भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप में उनकी पूजा का प्रावधान आदिकाल से चला आ रहा है, जिसे हम सत्यनारायण व्रतकथा के नाम से जानते हैं। केवल भगवान विष्णु ही नहीं बल्कि तीज व्रत कथा, करवाचौथ व्रत कथा, संकठा माता की व्रतकथा भी देश के पूर्वोत्तर क्षेत्रों में प्रचलित है, ये व्रतकथाएँ हमेशा से वामपंथियों के निशाने पर रही हैं, इन्हे पाखण्ड, अन्धविश्वास, ब्राम्हणो की कमाई का जरिया जैसे नामों से बदनाम किया गया है, आइये आज हम जानते हैं की ये व्रत कथा वामपंथियों को इतना क्यों चुभती है।

भगवान सत्यनारायण की कथा आरम्भ होती है आपके परिचय से, आपका नाम, आपका गोत्र, आपका वंश और विश्व मानचित्र में वो स्थान जहाँ आप पूजा कर रहे हैं उदाहरण के लिए “जम्बूद्वीपे भारतखण्डे इंद्रप्रस्थ राज्ये यमुनापार क्षेत्रे” यहाँ आप पूजन का संकल्प लेते हैं, उसके बाद नवग्रहों, पितरों और सभी देवी देवताओं का आवाहन किया जाता है, भगवान विष्णु आदि देवताओं के पूजन के पश्चात् 4 कथाएं सुनाई जाती हैं जिसके पश्चात् आरती, प्रसाद वितरण के बाद दान दक्षिणा और विप्र भोज के साथ पूजा संपन्न होती है। अब वामपंथी यहाँ कुतर्क करते हैं की ये ब्राम्हणों की कमाई का जरिया है, तो आपको ज्ञात हो की पूजा की सब सामग्री आप स्वयं एकत्रित करते हैं उसमे से ब्राम्हण कुछ लेकर नहीं जाता, हाँ दक्षिणा के तौर पर 200 से 500 या बहुत ज्यादा हुआ तो 1000 रु वो भी आप अपनी श्रद्धा से देते हैं, आज हम परिवार सहित कहीं मॉल में पिज़्ज़ा खाने बैठ जाएँ तो 3000 लग जाते हैं. ऐसे में उस 500 रु में ब्राम्हण का खर्च कितने दिन चलेगा? एक समय के भोजन कर लेने से उसने आपका कितना क़र्ज़ बढ़ा दिया आप स्वयं सोचिये, पर साथ ये भी सोचिये की उस ब्राम्हण ने आपकी प्राचीन संस्कृति को उस स्तर पर आज भी जीवित रखा है जिस स्तर तक आप अनंत धन कमा कर भी नहीं पहुंचा सकते, वो आपके घर नहीं आता की मुझसे पूजा करवाइये आप स्वयं ही तो जाते हैं, पूजा में आप अकेले नहीं अपने बंधू बांधवों के साथ बैठते हैं, आज के युग में जहाँ कॉर्पोरेट और फ्लैट सभ्यता हावी होती जा रही है हम समाज से काटते जा रहे हैं उन परिस्थितियों में भी ये कथाएं हमारी सामाजिकता को जीवित रखे हैं। पूजा के बाद आरती भी सामूहिक गाई जाती है, हवन में डाली जाने वाली आहुतियां हवा में स्थित विषाणुओं को मारकर उसे शुद्ध करती हैं ये तो अब विज्ञान भी मानता है।

आइये बात करते हैं उन चार कथाओं की जिन्हे इस पूजा में सुना जाता है, एक ब्राम्हण, एक राजा (क्षत्रिय), एक बनिक (वैश्य) और एक लकड़हारे (शूद्र) की कथा इसमें सुनाई जाती है, ध्यान दीजिये इन चारो वर्णों के पूज्य भगवान विष्णु ही हैं, यही सुंदरता है हमारे धर्म की, हमारे यहाँ खलीफा बनने की खुनी जंग नहीं होती न ही किसी देव के पूजने पर किसी को सूली चढ़या जाता है, हमारे यहाँ हमने भगवान् का स्थान किसी को नहीं दिया, और जो भगवान हैं उन्हें हम आजतक पूजते आ रहे हैं। ये कथा सामाजिकता को बनाये रखने का उसे परस्पर जोड़े रखने का एक धार्मिक जरिया है, आशा है आपको समझ आ गया होगा की वामपंथियों और बुद्धिजीवियों को इस से इतनी दिक्कत क्यों है। हमारे पूर्वज गुफाओं में कच्चा मांस खा कर बन्दर से इंसान बनने की झूठी प्रक्रिया से नहीं गुज़रे वो बुद्धिमान थे, भविष्य देख सकने वाले युगदृष्टा थे जिन्होंने पहले से ही इन परिस्थितियों को समझ लिया था और इन व्रत कथाओं, सामूहिक आरती, पूजनों द्वारा हमारे लिए सदैव एक मार्ग छोड़ रखा था जहाँ से हम अपनी संस्कृति, अपने धर्म की जड़ों से सदैव जुड़े रहें।

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