आपको यह जानकर हैरानी होगी कि स्वतंत्रता आंदोलन में अपने क्रांति कार्य के लिए पहचान रखने वाले विनायक दामोदर सावरकर एक शानदार लेखक भी थे… क्या आपने कभी पढ़ा है सावरकर की लेखनी को ! कितने मौलिक पुस्तकों के लेखक और उसमें भी क्या शानदार कंटेंट रखते थे वो। राष्ट्र की सांस्कृतिक अस्मिता,हिंदुत्व,हिन्दू पद-पादशाही और उसके नायकों के ऊपर इतना सजीव चित्रण उस दौर में और आज के दौर में कितने लोग कर पाए ? लेकिन उनका तो दुर्भाग्य था ही साथ मे देश का भी दुर्भाग्य रहा.. कि उनके पूरे वाङ्गमय को एक सिरे से किनारे लगा दिया गया। उनके विचारों को अस्पृश्य करार देकर आम जनता को इनके लिखे पुस्तकों और विचारों से दूर कर दिया गया, और सुनियोजित तरीके से इन जैसे सभी विचारकों और लेखकों का चरित्र हनन किया गया। 


अभी पांच सात साल पहले तक जब सावरकर की चर्चा होती थी तो सिर्फ दो प्रसंगों तक उन्हें सीमित कर दिया जाता था। एक उन्होंने कालापानी की सजा से बचने के लिए अंग्रेजी सरकार से माफी मांगी और दूसरा गांधी हत्याकांड के षड्यंत्र में उनकी मिलीभगत। या फिर हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र को लेकर उनके दिए गए विचार। अगर सबसे बड़ी लड़ाई वैचारिकी की होती है तो सावरकर इस लड़ाई के सबसे बड़े विक्टिम रहे। 


वामपंथी और कांग्रेसी विचारधारा ने किस प्रकार से उनकी बात उनके विचार को रौंदा ये स्वातंत्रयोत्तर काल के भारत में बड़ी घटना मानी जा सकती है। ऐसे प्रसंगों में लोकतंत्र और विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों को भी काठ मार जाता है,कि कम से कम वो एक स्वस्थ विमर्श भी नहीं करते ..अपने से विपरीत विचारधाराओं वाले लोगों से। बस उन्हें एक सिरे से खारिज कर दिया जाता है। इस वैचारिक कट्टरता नें सावरकर,सीताराम गोयल,राम स्वरूप,नाथू राम गोड्से, निर्मल वर्मा इत्यादि सरीखे लोगों के स्वर को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

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