नवरात्रों का महत्त्व
लेखक :- डॉ ओम प्रकाश पांडेय
(लेखक प्रसिद्ध अंतरिक्षविज्ञानी हैं)
भारतीय अवधारणा में हिरण्यगर्भ जिसे पाश्चात्य विज्ञान बिग बैंग के रूप में देखता है, से अस्तित्व में आए इस दृष्यादृष्य जगत के सभी प्रपंच चाहे वह जड़ हों या चेतन, सभी निर्विवाद रूप से शक्ति के ही परिणाम हैं। हम सभी का श्वांस-प्रश्वांस प्रणाली, रक्त संचार, हृदय की धड़कन, नाड़ी गति, शरीर संचालन, सोचना समझना, सभी कुछ शक्ति के द्वारा ही संभव होता है। जो कुछ भी पदार्थ के रूप में हैं, उनके साथ-साथ हम सभी पंचतत्वों यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा से बने हैं। उदाहरण के लिए जल में द्रव यानी गीला करने की शक्ति है, अग्नि में दाह यानी जलाने की शक्ति है, वायु में स्पर्श की शक्ति है, मिट्टी में गंध की शक्ति है और आकाश में शब्द की शक्ति है। प्रकाश और ध्वनि में तरंग की शक्ति है। सृष्टि में सृजन की शक्ति है और प्रलय में विसर्जन की शक्ति है। प्राण में जीवन शक्ति है।
आईंस्टीन का इनर्जी-मैटर समीकरण ई = एमसी2 के अनुसार भी संसार के सभी द्रव्य ऊर्जा की संहति के ही परिणाम हैं। यहाँ तक कि पदार्थों का स्वरूप परिवर्तन भी ऊर्जा की विभिन्न गत्यात्मकता से ही संभव होता है। इन सभी क्रियाओं से ऊर्जा न तो खर्च होती है और न ही उसका ह्रास होता है, वह सदैव विद्यमान रहती है। यह सनातन है, यह अक्षत है। इसे न तो पैदा किया जा सकता है और न ही समाप्त किया जा सकता है। हमें जो जड़ प्रतीत होता है, वह भी ऊर्जा के प्रभाव से अपने नाभी की परिधि में विविध वेग से गतिमान है। इन अणुओं का स्वरूप भी प्लाज्मा, क्वाट्र्ज, पार्टिकल्स यानी कणों के गतिक्रम के अनुरूप ही अस्तित्व में आते हैं। यानी गत्यात्मकताओं के इन्हीं आधारों पर ही अणु-परमाणु आदि सूक्ष्म तत्व आपसी संयोजन करके सूर्य, चंद्र तथा पृथिवी जैसे विशाल पिंडों में परिवर्तित होकर आकाश में विचरण करने लगते हैं। ब्रह्मांड में सभी कुछ गतिमान है, स्थिर कुछ भी नहीं। अनंत ब्रह्मांडों वाली ये श्रृंखलाएं प्रकृति के प्रगट स्वरूप के चार प्रतिशत के क्षेत्र में हैं, 76 प्रतिशत क्षेत्र डार्क इनर्जी का है और 21 प्रतिशत क्षेत्र डार्क मैटर का है।
इसे ऋग्वेद में कहा गया है आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मत्र्यण्च। हिरण्यय़ेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन।। यह नक्षत्रों से परिपूर्ण ब्रह्मांड की ये अनंत श्रृंखलाएं किसी बल विशेष के प्रभाव से ही निरंतर गतिशील बनी हुई हैं। यह सर्वविदित है कि किसी भी प्रकार की गतिशीलता के लिए एक स्थिर आधार की आवश्यकता होती है। हम यदि चल पाते हैं तो इसलिए कि हमारी तुलना में पृथिवी स्थिर है। इसी प्रकार सृष्टि की गतिशीलता जिस आधार पर क्रियाशील है, उसे ही ऋषियों ने निष्कलंक, निष्क्रिय, शांत, निरंजन, निगूढ़ कहा है। इस अपरिमेय निरंजन निगूढ़ सत्ता में चेतना के प्रभाव से कामना का भाव जागृत होता है, तब उसे साकार करने के लिए मातृत्व गुणों से परिपूर्ण चिन्मयी शक्ति का प्राकट्य होता है। इस तरह आदि शक्ति के तीन स्वरूपों ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति के उपक्रमों से प्रकृति के सत्व, रज और तम तीन गुणों की उत्पत्ति होती है। इन्हें ही उनकी आभा के अनुसार श्वेत, रक्तिम और कृष्ण कहा गया है।
अतिशय शुद्धता की स्थिति में कोई भी निर्माण नहीं हो सकता। जैसे कि 24 कैरेट शुद्ध सोने से आभूषण नहीं बनता, इसके लिए उसमें तांबा या चांदी का मिश्रण करना होता है। इसी प्रकार साम्यावस्था में प्रकृति से सृष्टि से संभव नहीं है। उसकी साम्यावस्था को भंग होकर आपसी मिश्रणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न विकृतियों से ही सृष्टि की आकृतियां बनने लगती हैं। इसको ही सांख्य में कहा है – रागविराग योग: सृष्टि। प्रकृति, विकृति और आकृति ये तीन का क्रम होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदि शक्ति के तीनों रूपों, उनके तीनों गुणों और तीन क्रियात्मक वेगों के परस्पर संघात से समस्त सृष्टि होती है। तीन का तीन में संघात होने से नौ का यौगिक बन जाता है। यही सृष्टि का पहला गर्भ होता है। पदार्थों में निविष्ट इन गुणों को आज का विज्ञान न्यूट्रल, पॉजिटिव और निगेटिव गुणों के रूप में व्याख्यायित करता है। इन गुणों का आपसी गुणों के समिश्रण से उत्पन्न बल के कारण इषत्, स्पंदन तथा चलन नामक तीन प्रारंभिक स्वर उभरते हैं। ये गति के तीन रूप हैं। आधुनिक विज्ञान इन्हें ही, इक्वीलीबिरियम यानी संतुलन, पोटेंशियल यानी स्थिज और काइनेटिक यानी गतिज के नाम से गति या ऊर्जा के तीन मूल स्तरों के रूप में परिभाषित करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदि शक्ति के तीन रूप, तीन गुण और उनकी तीन क्रियात्मक वेग, इन सभी का योग नौ होता है।
जैसा कि हम देखते और जानते हैं कि जैविक सृष्टि का जन्म मादा के ही कोख से होता है। अत: मूल प्रकृति और उससे प्रसूत त्रिगुणात्मक आधारों जिसके कारण सृष्टि अस्तित्व में आती है, को हमारे मनीषियों ने नारी के रूप में ही स्वीकार किया। इसलिए पौराणिक आख्यानों में शक्ति के क्रियात्मक मूल स्वरूपों को ही सरस्वती, लक्ष्मी और दूर्गा के मानवीय रूपों के माध्यम से उनके गुणों और क्रिया सहित व्यक्त करने का प्रयास किया। हम तीन देवों की भी कल्पना करते हैं – ब्रह्मा विष्णु और महेश जोकि सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता हैं। लेकिन ये तीनों आधार हैं आधेय नहीं। ये शक्तिमान हैं। इनमें से वह शक्ति निकल जाए तो वे कभी विशिष्ट कामों के पालन में असमर्थ हो जाते हैं। शक्ति ही इनमें व्याप्त देवत्व का आधार है। इसलिए देवताओं की आरतियों के अंत में लिखा होता है – जो कोई नर गावे। कहीं भी नारी नहीं लिखा, क्योंकि नारी देवताओं की स्तुति कैसे करेगी, वह तो स्वयं वंदनीया है, देवताओं की भी स्तुत्य है।
समाज के सभी जैवसंबंध स्त्रियों पर ही टिका है। रिश्तों का सारा फैलाव, घर-परिवार की सारी संकल्पना स्त्रियों के कारण ही अस्तित्व में आती है। लेकिन पश्चिम की मानसिकता के भ्रमजाल के कारण स्वयं को केवल आधी आबादी मानने लगी हैं और पुरुषों से प्रतिद्वन्द्विता के चक्कर में पड़ गई हैं। नारी की पुरुष से प्रतिद्वन्द्विता कैसे संभव है, वह तो पुरुष को जन्म देती हैं। वह आधी आबादी नहीं है, वह तो इस समस्त आबादी की जन्मदात्री है। इसलिए माता होना नारी की सार्थकता है और माँ कहलाना उसका सर्वोच्च संबोधन है। बंगाल में हम छोटी-छोटी बच्चियों को भी माँ कह कर बुलाते हैं। हरेक संबंध में माँ लगा कर संबोधित करते हैं, जैसे पीसीमाँ, मासीमाँ, बऊमाँ आदि। इसलिए ऋग्वेद में यह निर्देश पाया जाता है कि श्वसुर बहु को आशीर्वाद दे कि वह दस पुत्रों की माता बने और पति तुम्हारा ग्यारहवाँ पुत्र हो जाए। यह वास्तविकता भी है। विवाह नया हो तो बात अलग होती है, परंतु संतानों के जन्म के बाद स्त्री का ध्यान पति की बजाय संतानों की ओर अधिक होता है और जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, स्त्री संतान की भांति ही पति की भी वात्सल्यजनित चिंता करने लगती है।
आदिशक्ति को जगज्जननी क्यों कहा गया, इसे हम ईशावास्योपनिषद के एक मंत्र से मिलता है। पहले मैं यह बता दूँ कि चूंकि वैदिक संकल्पना में ईश्वर अकल्पनीय, निराकार, निगूढ़ है, इसलिए उसकी कोई मूर्ति नहीं हो सकती, उसका आकार नहीं हो सकता। यदि कोई आकार होगा भी तो वह मनुष्य के समझ से परे होगा। हम मन, बुद्धि, कल्पना और ज्ञान के आधार पर सोचते हैं। परंतु ईश्वर तो इन सब से परे है। इसलिए हम उसकी आकृति नहीं गढ़ सकते। यजुर्वेद कहता है कि न तस्य प्रतिमा अस्ति। यह हमारी भारतीय परंपरा में बौद्धों के काल से पूर्व तक जीवंत रहा है। उससे पहले तक हम केवल शिवलिंग, शालीग्राम और पिंडी का पूजन करते थे। देवी के लिए पिंडी, क्योंकि वह गर्भ का स्वरूप है, विष्णु के लिए शालीग्राम, क्योंकि वह आकाशगंगा का स्वरूप है और शिव के लिंग, क्योंकि शिव अग्निसोमात्मक है तो दीपक के लौ के भांति लिंग। दीपक में लौ अग्नि है और तेल सोम। बुद्ध के बाद बौद्धों के तर्ज पर मूर्तियां गढ़ी गईं।
ईशावास्योपनिषद में कहा है पूर्णमिद:…। इसका अर्थ है कि वह भी पूर्ण है और यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण प्रकट होता है और फिर भी पूर्ण शेष बच जाता है। पूर्ण से पूर्ण निकल जाए, फिर भी पूर्ण शेष बचे, वही ईश्वर है। यदि नौ पूर्णांक में से नौ पूर्णांक निकल जाए तो शून्य बचना चाहिए, परंतु ऋषि कहता है कि उसमें शून्य नहीं, नौ ही बचेगा। यह एक विशेष घटना है। यह भौतिक स्तर पर संसार में कहीं नहीं घटती है, इसका केवल एक अपवाद है। एक स्त्री गर्भ धारण करती है, संतान को जन्म देती है। जन्म लेने वाली संतान पूर्ण होती है और माँ भी पूर्ण शेष रहती है। इसलिए माँ ईश्वर का ही रूप है। संसार की सभी मादाएं ईश्वर का ही स्वरूप हैं। इसलिए हमने प्रकृति की कारणस्वरूपा त्रयात्मक शक्ति और फिर उसके त्रिगुणात्मक प्रभाव से उत्पन्न प्राकृतिक शक्ति के नौ स्वरूपों को जगज्जननी के श्रद्धात्मक भावों में ही अंगीकार किया। फिर दुर्गा के नौ स्वरूपों में प्रकृति के त्रिगुणात्मक शक्ति को देखा। वे हैं – शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। ये नौ दुर्गाएं काल और समय के आयाम में नहीं हैं, उससे परे हैं। ये दिव्य शक्तियां हैं, काल और समय के परे हैं। इनका जो विकार निकलता है, वही काल और समय के आयाम में प्रवेश करता है और ऊर्जा का रूप ले लेता है।
इस प्रकार ये नौ दूर्गा, उनके नौ प्रकार और उनके प्रकार की ही काल और समय में नौ ऊर्जाएं हैं। ऊर्जाएं भी नौ ही हैं क्योंकि यह उनका ही विकार है। यह तो भौतिक ऊर्जाओं की बात हुई, अब इन भौतिक ऊर्जाओं के आधार पर सृष्टि की जो आकृति बनती है, वह भी नौ प्रकार की ही है। पहला है, प्लाज्मा, दूसरा है क्वार्क, तीसरा है एंटीक्वार्क, चौथा है पार्टिकल, पाँचवां है एंटी पार्टिकल, छठा है एटम, सातवाँ है मालुक्यूल्स, आठवाँ है मास और उनसे नौवें प्रकार में नाना प्रकार के ग्रह-नक्षत्र। यदि हम जैविक सृष्टि की बात करें तो वहाँ भी नौ प्रकार ही हैं। छह प्रकार के उद्भिज हैं – औषधि, वनस्पति, लता, त्वक्सार, विरुद् और द्रमुक, सातवाँ स्वेदज, आठवाँ अंडज और नौवां जरायुज जिससे मानव पैदा होते हैं। ये नौ प्रकार की सृष्टि होती है।
पृथिवी का स्वरूप भी नौ प्रकार का ही है। पहले यह जल रूप में थी, फिर फेन बनी, फिर कीचड़ (मृद) बना। और सूखने पर शुष्क बनी। फिर पयुष यानी ऊसर बनी। फिर सिक्ता यानी रेत बनी, फिर शर्करा यानी कंकड़ बनी, फिर अश्मा यानी पत्थर बनी और फिर लौह आदि धातु बने। फिर नौवें स्तर पर वनस्पति बनी। इसी प्रकार स्त्री की अवस्थाएं, उनके स्वभाव, नौ गुण, सभी कुछ नौ ही हैं।
इसी प्रकार सभी महत्वपूर्ण संख्याएं भी नौ या उसके गुणक ही हैं। पूर्ण वृत्त 360 अंश और अर्धवृत्त 180 अंश का होता है। नक्षत्र 27 हैं, हरेक के चार चरण हैं, तो कुल चरण 108 होते हैं। कलियुग 432000 वर्ष, इसी क्रम में द्वापर, त्रेता और सत्युग हैं। ये सभी नौ के ही गुणक हैं। चतुर्युगी, कल्प और ब्रह्मा की आयु भी नौ का ही गुणक है। सृष्टि का पूरा काल भी नौ का ही गुणक है। मानव मन में भाव नौ हैं, रस नौ हैं, भक्ति भी नवधा है, रत्न भी नौ हैं, धान्य भी नौ हैं, रंग भी नौ हैं, निधियां भी नौ हैं। इसप्रकार नौ की संख्या का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व है। इसलिए नौ दिनों के नवरात्र मनाने की परंपरा हमारे पूर्वज ऋषियों ने बनायी।
नवरात्र में नया धान्य आता है। सामान्यत: वर्ष में 40 नवरात्र होते हैं, परंतु मुख्य फसलें दो हैं रबी और खरीफ, इसलिए दो नवरात्र महत्वपूर्ण हैं – चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र। एक में गेंहू कट कर आता है और एक में चावल कट कर आता है। नये धान्य में ऊष्मा काफी अधिक होती है क्योंकि उसमें धरती की गरमी होती है। इसलिए उस नवधान्य को खाने से पचाना कठिन होता है। इसलिए नौ दिन व्रत रह कर अपनी जठराग्नि अधिक तेज किया जाता है। तब उस धान्य को पचाना सरल हो जाता है। इसमें भी शारदीय नवरात्र अधिक महत्वपूर्ण है। शारदीय नवरात्र से पहले ही गुरू पूर्णिमा, रक्षा बंधन आदि सभी महत्वपूर्ण त्यौहार पड़ते हैं। वर्षा के चौमासे के बाद फिर से गतिविधियां प्रारंभ की जाती हैं, इसलिए शारदीय नवरात्र में शक्ति की आराधना की जाती है।
साभार – भारतीय धरोहर पत्रिका
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