पिछले कुछ महीनों में जिस तरह से कुछ अदालतों ने बलात्कार , दैहिक शोषण , यौन उत्पीड़न आदि से जुड़े मुकदमों को सुनते हुए अधिकाँश फैसले आरोपियों के पक्ष में सुनाते हुए उन्हें कहीं संदेह का लाभ देते हुए तो कहीं त्रुटिपूर्ण जाँच का हवाला देकर उन्हें बरी कर दिया है वो न सिर्फ महिला समाज के लिए निराशाजनक रहा है बल्कि स्वयं महिला अधिवक्ताओं में अदालतों के इस नज़रिये को लेकर भारी रोष है।

अभी कुछ समय पूर्व ही मुम्बई में पोक्सो के मामलों की सुनवाई करते हुए जिस तरह से विद्वान न्यायाधीश महोदया ने , उत्पीड़न , यौनिक संपर्क आदि को परिभाषित करते हुए नाबालिग के साथ हुए यौन शोषण को शोषण मानने से ही इंकार कर दिया और उसे विधिक शब्दों के जाल में इस तरह से उलझाया कि फैसला आने के बाद उसके विरोध में उठे असहमति और प्रतिकिया के स्वर ने न्यायाधीश महोदया की पदोन्नति पर ही रोक लगा दी।

अभी इस बात को ज्यादा समय बीता भी नहीं था कि गोआ के सत्र न्यायालय ने तहलका के संपादक तरुण तेजपाल को अपनी पुत्री की सहेली पर यौन उत्पीड़न के मामले में फैसला सुनाते हुए , संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाए – की नीति के अनुपालन में तरुण तेजपाल को बाइज्जत बरी कर दिया।

क्या ?? सचमुच , ये मामला झूठा था , आरोपी तरुण तेजपाल की पुत्री की सहेली द्वारा लगाए गए आरोप झूठे थे ?? हालाँकि अभियोजन पक्ष सत्र न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायलय में अपील दायर करने का मन बना चुका है , किन्तु बहुत से अधिवक्ताओं और विधिज्ञों , जिनमें एक बड़ा वर्ग महिलाओं का भी है , ने न सिर्फ इस फैसले को बल्कि इस पर पहुँचने के लिए महिला न्यायाधीश महोदया की टिप्पणियों को भी खेदपूर्ण और न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के प्रतिकूल करार दिया है।

ये जितनी हैरान करने वाली बात है उतनी ही दुःख की भी कि अदालत ने पूरे फैसले में आरोपी के कृत्य , उसके द्वारा पीड़िता को भेजे गए माफीनामे वाले ईमेल और तमाम उन साक्ष्यों को जो कि उसे मुजरिम साबित कर सकते थे उन्हें दरकिनार करते हुए पीड़िता की भाव भंगिमा , अगले दिन उसका सामान्य व्यवहार आदि को आधार बना कर आरोपी जो पीड़िता की हमउम्र और उसकी सहेली का पिता भी है को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। विधज्ञ कहते हैं कि , शोषण और उत्पीड़न के मामले में ये जिम्मेदारी आरोपी की अधिक होती है कि वो स्वयं को संदेह से परे जाकर निर्दोष साबित करे किन्तु यहां इसके ठीक उलटा हुआ है।

सत्र न्यायालय ने शीर्ष न्यायालय द्वारा “विशाखा बनाम राज्य ” में निर्देशित कई बुनियादी सिद्धांतों का भी पालन करने से परहेज़ किया जिनमे स्पष्ट किया गया है कि बिना सहमति के किसी यौन कर्मी के साथ की गई जबरदस्ती भी यौन शोषण ही कही मानी जाएगी। हैरान करने वाली बात ये भी है कि स्वयं एक महिला होते हुए महिला न्यायाधीश का ये मानना की पीड़िता का व्यवहार सामान्य था – तो क्या पीड़िता सदमे में आत्म ह्त्या कर लेती या फिर उसे जला कर मार काट कर फेंक दिया जाता तभी साबित होता कि पीड़िता दुःखी है।

समाज में दिनों दिन महिलाओं , युवतियों और बच्चियों तक के साथ घृणित अपराध , नृशंस हत्याएं , बलात्कार उत्पीड़न की सैकड़ों घटनांए रोज़ घट रहीं हैं ऐसे में अदालतों का यूँ असंवेदनशील होना जहां मुजरिमों के मन से कानून का भय समाप्त करता है वहीं न्याय के प्रति आम लोगों के विश्वास पर कुठाराघात भी करता है।

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