आज हम याद कर रहे हैं स्वातन्त्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर को। आज का दिन विशेष इसलिए हो जाता है क्योंकि महान स्वंतत्रता सेनानी वीर सावरकर का आज ही के दिन जन्म हुआ था।
वीर सावरकर एक हिंदुत्ववादी, राजनैतिक चिंतक और स्वतंत्रता सेनानी थे। सावरकर पहले स्वतंत्रता सेनानी व राजनेता थे जिन्होंने ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें प्रायः वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय सावरकर को जाता है। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया है।
भारत स्वतंत्रता के अग्रदूत वीर सावरकर का जन्म आज ही के दिन 28 मई, 1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम राधाबाई सावरकर और पिता दामोदर पंत सावरकर था। उनके माता-पिता राधाबाई और दामोदर पंत की चार संतानें थीं। वीर सावरकर के तीन भाई और एक बहन भी थी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा नासिक के शिवाजी स्कूल से हुयी थी। मात्र 9 साल की उम्र में हैजा बीमारी से उनकी मां का देहांत हो गया था जिसके कुछ वर्ष बाद ही उनके पिता की भी मृत्यु हो गई।
भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई और भारत में हिंदूत्व का प्रचार-प्रसार करने का श्रेय क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को जाता है। सावरकर जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सफलतम व्यक्त्वि रहे किन्तु आज भी लोग उनकी नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति करते है सत्य जो भी हो तथ्य ये है कि हिन्दू राष्ट्र और हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने का श्रेय सावरकर को ही जाता है।
सावरकर जी बचपन से ही क्रांतिकारी थे। उनके ह्रदय में राष्ट्रभावना कूट-कूट के भरी थी। पुणे में उन्होंने अभिनव भारत सोसाइटी का गठन किया और बाद में स्वदेशी आंदोलन का भी हिस्सा बने। उनके देश भक्ति से ओप-प्रोत भाषण और स्वतंत्रता आंदोलन के गतिविधियों के कारण अंग्रेज सरकार ने उनकी स्नातक की डिग्री ज़ब्त कर ली थी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वो नाम, जिसे अंग्रेजी हुकूमत ने सबसे कड़ी सजा दी। सजा काले पानी की, वो भी एक नहीं दो बार, पूरे इतिहास में इतनी लंबी सजा किसी भी स्वतन्त्रता सेनानी या क्रांतिकारी को नहीं दी गई, सावरकर ने अखंड भारत का सपना देखा। उनकी पुस्तक ′भारत का प्रथम स्वतंत्रता समर 1857′ ने अंग्रेजों की जड़े हिला दी थी। अंग्रेजों के अंदर फिर से 1857 जैसी स्वन्त्रता संग्राम का डर समा गया। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने 1905 में स्वदेशी का नारा दे कर विदेशी कपड़ो की होली जलाई थी। सावकर ऐसे भारतीय थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी लंदन जा कर क्रांतिकारी आंदोलन को संगठित किया।
13 मार्च, 1910 को ब्रिटिश सरकार ने सावरकर को ब्रिटिश सरकार विरोधी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। समुन्द्र के रास्ते उन्हें भारत लाया जा रहा था। वीर सावरकर का साहस था कि वो समुंद्र में कूद कर भाग निकले। बाद में फ्रांस के समुन्द्र तट पर उन्हें फिर पकड़ लिया गया। उनका मुकदमा अंतरराष्ट्रीय अदालत हेग में लड़ा गया। ये पहला मौका था जब किसी क्रांतिकारी का मुकदमा अंतरराष्ट्रीय अदालत में लड़ा गया था।
सावरकर को काला पानी के सजा के तहत अंडमान के सेलुलर जेल में रखा गया था। उन्हें जेल में खतरनाक श्रेणी में रखा गया था। उन्हें कोल्हू में बैल की जगह जोता जाता। इस घोर यातना के बाद भी सावरकर के साहस और मातृभूमि के लिए कुछ करने की तड़प काम न हुई। उन्होंने पत्थर के टुकड़ों से जेल की दीवार पर दस हजार पंक्तियों की रचना की और उसे कण्ठस्थ भी किया।
1920 में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। जनवरी, 1921 में अंडमान से भारत आने पर सरकार ने उन्हें रत्नागिरि में नजरबंद कर दिया। चुकी ब्रिटिश सरकार पर दबाव था, इसलिए वह उन्हें अंडमान में रख न सकी। उन पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया ताकि वो राजनैतिक गतिविधियों में हिस्सा न ले सकें। जनता से सामने भाषण नही दें, अखबारों में लेख न लिख पाएं। 30 दिसम्बर, 1937 को उन्हें हिन्दू महासभा का अध्यक्ष चुना गया। वे देश भर में घूम-घूम कर लोगों को क्रांति के लिए प्रेरित करने लगे। उन्होंने आजादी के लिए अहिंसा के मार्ग का खुल कर विरोध किया। उनका मानना था कि आजादी बिना हथियार के नहीं मिल सकती। देश आजाद हुआ सावरकर सक्रिय राजनीति में नहीं आये लेकिन राजनीति के प्रति अपने विचार खुल कर रखते थे गांधी जी के विचारों से वो सहमत नहीं थे।
30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के छठवें दिन विनायक दामोदर सावरकर को गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के लिए मुंबई से गिरफ़्तार कर लिया गया था। हांलाकि उन्हें फ़रवरी 1949 में बरी कर दिया गया था। गिरफ्तारी के बाद उनको बम्बई के आर्थर रोड जेल में रखा गया। ।
काल कोठरी के दिन व सावरकर
क्या मैं अब अपनी प्यारी मातृभूमि के पुनः दर्शन कर सकूंगा ? 4 जुलाई 1911 में अंडमान के सेलुलर जेल में पहुँचने से पहले सावरकर के मन की व्यथा शायद कुछ ऐसी ही रही होगी। अंडमान की उस काल कोठरी में सावरकर को न जाने कितनी ही शारीरिक यातनाएं सहनी पड़ी होगी, इसको शब्दों में बता पाना असंभव है. अनेक वर्षो तक रस्सी कूटने, कोल्हू में बैल की तरह जुत कर तेल निकालना, हाथों में हथकड़ियां पहने हुए घंटों टंगे रहना, महीनों एकांत काल-कोठरी में रहना और भी न जाने किसी -किस प्रकार के असहनीय कष्ट झेलने पड़े होंगे सावरकर को. लेकिन ये शारीरिक कष्ट भी कभी उस अदम्य साहस के प्रयाय बन चुके विनायक सावरकर को प्रभावित न कर सके. कारावास में रहते हुए भी सावरकर सदा सक्रिय बने रहे.
हिंदुत्व के पुरोधा
जब 1924 को सावरकर को जेल से मुक्त कर रत्नागिरी में ही स्थानबद्ध कर दिया गया था तब उन्हें केवल रत्नागिरी में ही घूमने -फिरने की स्वतंत्रता थी. इसी समय में सावरकर ने हिंदू संगठन व समरसता का कार्य प्रारम्भ कर दिया। महाराष्ट्र के इस प्रदेश में छुआछूत को लेकर घूम – घूमकर विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छुआछूत को हटाने की आवश्यकता बतलाई। सावरकर के प्रेरणादायी व्याख्यान व तर्कपूर्ण दलीलों से लोग इस आंदोलन में उनके साथ हो लिए. दलितों में अपने को हीन समझने की भावना धीरे-धीरे जाती रही और वो भी इस समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है ऐसा गर्व का भाव जागृत होना शुरू हो गया.
1 फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया था। 26 फरवरी, 1966 को राष्ट्र का यह दैदीप्यमान ज्योति अनंत में विलीन हो गया। अपने मृत्यु से दो दिन पहले उन्होंने लिखा – ″मैंने अब अपना हर कर्तव्य पूरा कर लिया है। ऐ मृत्यु ! अब यह जीवन तुम्हारे लिए ही शेष है। तुम इसे चाहे जब खुशी से ले जाओ।″
आधुनिक राजनीतिक विमर्श में विनायक दामोदर सावरकर एक ऐसे नाम हैं, जिनकी उपेक्षा करने का साहस उनके धुर विरोधी भी नहीं जुटा पाते| वे एक क्रांतिकारी, समाज सुधारक, इतिहासकार, कवि, चिंतक, राजनेता और दार्शनिक के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं| उनका हर रूप ध्यान आकर्षित करता है| हाँ, यह अवश्य है कि जहाँ उनके समर्थकों की बहुतायत है, वहीं उनके कतिपय विरोधियों की भी कमी नहीं| इसलिए यह आवश्यक है कि उनकी जयंती के पावन अवसर पर उनका यथार्थपरक मूल्यांकन किया जाए क्योंकि आज भी निहित स्वार्थी लोग महान स्वंतन्त्रता सेनानी के नाम पर जो राजनीति करते उनके नाम को बार बार बदनाम किया जाता साथ देखे तो एक और भी अन्याय किया जा रहा है कि वे अंडमान जेल से माफी मांगकर अपने घर आ गए थे। ऐसे लोगों से पूछना चाहिए कि यदि वीर सावरकर ने क्षमायाचना ही करनी थी तो वे दस वर्षों तक घोर यातनाएं क्यों सहते रहे? शुरु में ही माफी क्यों नहीं मांग ली? क्यों तेल निकालने वाले कोल्हू में बैल की तरह उत्पीड़ित होते रहे? मार खाते रहे, भूखे मरते रहे, गालियां बर्दाश्त करते रहे, क्यों?
सच्चाई तो यह है कि क्षमा पत्र पर हस्ताक्षर करना उनकी कूटनीतिक रणनीति थी। जिन्दगी भर जेल में न रहकर किसी भी प्रकार से बाहर आकर स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देना उनका उद्देश्य था।
वीर सावरकर ने माफी नहीं मांगी थी अपितु ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की आंख में धूल झौंक कर वे बाहर आए और पुनः स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों में कूद पड़े। यह बात भी जानना जरूरी है कि अंग्रेज सरकार ने उन्हें छोड़ा नहीं था अपितु रत्नागिरी में नजरबंद कर दिया था। बाद में 1937 में उन्हें छोड़ा गया। इसी समय वीर सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ और ‘हिन्दू महासभा’ इत्यादि मंचों के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अग्रणी भागीदारी को सक्रिय रखा। क्रांतिकारियों को संगठित करने का सफल प्रयास किया। वे एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा थे। चाहे जेल में हों, चाहे नजरबंदी में हों, चाहे खुले मैदान में, प्रखर राष्ट्रवाद की लौ उनमें सदैव जलती रही। इस जिंदा शहीद ने कभी भी अपने सिद्धांतों और अपनी विचारधारा के साथ समझौता नहीं किया।
- पवन सारस्वत मुकलावा
कृषि एंव स्वंतत्र लेखक
सदस्य लेखक मरुभूमि राइटर्स फोरम
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