भारत की युवा पीढ़ी को नपुंसकता का पाठ पढ़ाते इतिहासकारों ने कभी कल्पना भी नही की होगी कि उनकी पोल परत दर परत खोलने वाले लोग भी कभी आएंगे, उन्होंने वो लिखा जो उनके आकाओं को पसंद था, मुग़लों का गुणगान करती हमारी इतिहास की पुस्तकों में भारत के शोषण, कुरीतियों और आपसी मतभेदों को इस कदर भर दिया गया है कि उनमें वास्तविक इतिहास का सम्मिलित होना असंभव है, हमे इतिहास का पुनर्लेखन करना ही होगा, असंख्य पराक्रमी स्वंत्रता सेनानियों के बलिदान को धूल में मिलाता ये मुग़लिया और वामपंथी इतिहास भले गांधी के चरखे में उलझा रहे पर हमने सत्य का मार्ग चुना है, और इसी सत्य पर अटल रहते हम आपको अपने उन वीर सेनानियों से मिलवाते रहेंगे, इसी कड़ी में प्रस्तुत है भारत माँ के एक वीर सपूत का परिचय जिन्हें मुग़लिया और वामपंथी इतिहासकारों ने भुला दिया था।

महाराज नाहर सिंह

6 अप्रैल 1821 में बल्लभगढ़ हरियाणा के राजा राम सिंह के घर एक प्रतापी पुत्र ने जन्म लिया, नाम रखा गया नाहर सिंह, पिता को खोने के बाद 1839 में नाहर सिंह 18 वर्ष की आयु में राजा बने, राजा बनने के बाद उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाना शुरू किया और अपने राज्य में अंग्रेजों के प्रवेश पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया, उनके इस फैसले ने अंग्रेज़ी हुकूमत में तहलका मचा दिया, 1857 की क्रांति में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में ससैन्य हिस्सा लिया और अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया, 1857 की क्रांति में उन्होंने गुड़गांव रेवाड़ी ग्वालियर फरुखनगर के राजाओं को एक झंडे तले लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 18 मार्च 1857 को मथुरा में राजाओं की एक गुप्त बैठक हुई जिसमें नाहर सिंह को प्रतिनिधि बनाया गया। इस बैठक में तात्या टोपे भी शामिल थे, और बहादुर शाह जफर ने उन्हें दिल्ली के पश्चिमी हिस्से को चाक चौबंद रखने के लिए कहा। क्रांति की तारीख 31 मई रखी गई थी ताकि सब तक खबर पहुंचाकर पुरे देश में एक साथ क्रांति की जाये। मगर क्रांति पहले ही शुरू हो गई।जिससे अचानक से सब गड़बड़ा गया। मंगल पांडे शहीद हो गए। महाराजा नाहर सिंह की अगुवाई में बैरकपुर से मेरठ और मेरठ से दिल्ली आये वीर क्रांतिकारियों ने दिल्ली को अंग्रेजो के कब्जे से छुड़ा लिया, बहादुर शाह जफर को दिल्ली का बादशाह बना दिया गया। दिल्ली 132 दिन तक आजाद रही। नाहर सिंह ने पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की और अंग्रेजो को वहां से नही घुसने दिया।इसलिए अंग्रेज उन्हें “आयरन वाल ऑफ़ दिल्ली” कहने लगे। राजा नाहरसिंह की बहादुरी से तिलमिलाए अंग्रेजों ने उन्हें संधि के लिए बहादुर शाह जफर के साथ दिल्ली बुलवा लिया। इस दौरान राजा को धोखे से बंदी बनाकर उनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। इसमें उन्हें दोषी करार देते हुए 9 जनवरी 1858 में राजा नाहरसिंह को दिल्ली के चांदनी चौक में फांसी की सजा दी गई। 

चंद टुकड़ों के लिए अपनी अंतरात्मा को मार देने वाले इतिहासकारों ने जो हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के साथ अन्याय किया है वो अक्षम्य है, हमारा कर्तव्य है कि हम अपने बच्चों को इन अमर योद्धाओं के विषय मे बताते रहें ताकि उन्हें ये ज्ञात रहे कि भारत कुरीतियों से भरा गुलाम देश नही था बल्कि यहां की मिट्टी में जो वीर पैदा हुए उसका कोई मुकाबला ही नही है।

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