‘द कश्मीर फाइल्स पर मेरी प्रतिक्रिया’ 
मेरे एक मित्र के प्रोत्साहित करने पर मैंने फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ का ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो'(पहले दिन का पहला शो) देखा। मुझे यह अपेक्षा नहीं थी कि बॉलीवुड में भी ऐसी फिल्म बन सकती है, जो कि वास्तविकता को इतनी कुशलतापूर्वक उजागर करे। ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड में कभी अच्छी फिल्में नहीं बनीं, परन्तु यह  बहुत ‘अलग’ थी।
अब तक बनाई जानें वाली अधिकतर बॉलीवुड फिल्में; निराधार, फूहड़ और दिशा विहीन ही रही हैं। बड़े प्रोडक्शन हाउज़, ‘बड़े-बड़े’ नायक-नायिकाएं, दो कौड़ी की पटकथा, हल्के संवाद, गाली-गलौच, अश्लील गाने, करोड़ों रुपये का प्रमोशन, काल्पनिक और झूठे किरदार, जबरन ठूँसा गया मसाला, विधर्मी सोच और हिंसा से इतर यह फिल्म, ‘द कश्मीर फाइल्स’ अपने आप में नए आयाम स्थापित करती है।
मैंने पिछले महीने इसी फिल्म पर आधारित एक लेख अंग्रेज़ी में भी लिखा था जो कई वेबसाइट्स पर प्रकाशित हुआ था। यह लेख उसका हिन्दी अनुवाद नहीं है। यह उस लेख से बिल्कुल अलग है। हालांकि हो सकता है कि दोनों लेखों में कुछ समानतायें हों क्योंकि दोनों का लेखक और पृष्ठभूमि एक ही है।
मैंने जब कश्मीरी पंडितों के साथ हुई हिंसा और बर्बरता के दृश्य देखे तो तथ्यों को उजागर करने की मेरी क्षमता ने मुझे यह लेख आप सबके सामने रखने के लिए विवश कर दिया। कश्मीर पर हालांकि पहले भी कई फिल्में बनीं हैं, परंतु उन्होंने जानबूझकर सत्य का गला घोटकर, झूठ को एक पेशेवर, शातिर और रूमानी अंदाज़ में कल्पनाशीलता के साथ प्रस्तुत किया। ठीक यही काम उन फिल्मों ने भी किया जो मुग़लों और अन्य आतताइयों पर बनीं। मुझे यह कहने में कोई परहेज नहीं है कि यह फिल्म कई मायनों में एक असाधारण फिल्म है। ऐसा प्रतीत होता है की अतीत उजागर करने से कई बुझे हुए दीपक फिर से जलने लगे हैं। इस फिल्म का कई लोगों ने जमकर विरोध भी किया। आमतौर पर यह लोग एक ही तपके से आते हैं, यह ‘तपका’ लगभग समान सोच वाले लोगों का समूह है, न कि कोई सम्पूर्ण जाति या धर्म। पता नहीं इनको सत्य का सामना करने में इतनी तकलीफ क्यों होती है और क्यों झूठ इन्हें इतना सुकून देता है?
बॉलीवुड गैंग ने जमकर फिल्में बनाईं, जिनमें मार-धाड़, धक्का-मुक्की, हल्की सोच और कामोत्तेजक विचारों को प्रमुखता दी गई। कमज़ोर कॉन्टेंट वाली इन फिल्मों ने दर्शकों को बेवकूफ़ समझा भी और बनाया भी। बेवजह के नाचगाने और अटपटे दृश्यों को लोगों पर थोपा गया और कई बार लोगों ने उन्हें मनोरंजन के एकमात्र और सस्ते साधन के रूप में स्वीकार किया। समाज के नैतिक पतन में भी बॉलीवुड ने अच्छी-खासी भूमिका निभाई। लड़कियां कृत्रिम सौंदर्य वाली अभिनेत्रियों की तरह दिखने का प्रयास करने लगीं। अंग प्रदर्शन की होड़ लग गई और समाज में अपनी जगह बनाने की जुगत में हम अपनी संस्कृति का विनाश कर बैठे। नायिकाओं को मीडिया ने समाज के समक्ष आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया और लोगों ने इस झूठ पर विश्वास भी कर लिया। आमतौर पर इन नायिकाओं को उत्पाद बेचने से लेकर समाज को सही दिशा देने की बागडोर सौंप दी गई। ढेरों पुरस्कारों और सम्मानों से सुसज्जित यह नायिकाएं; नारी सशक्तिकरण के प्रतीक और समाजसेविकाओं के तौर पर देखीं जाने लगीं। हमारे मन पर अंकित इनकी काल्पनिक छवि वास्तविकता से कोसों दूर है।
फिल्मों में अभिनेत्री की भूमिका पुरुष पात्रों(मुख्यतः अभिनेता) के इर्द-गिर्द ही घूमती है। न तो वो असहाय होती है और न ही सशक्त। कभी पीड़िता तो कभी खलनायिका, इन्हें केवल उच्छृंखल और विकृत विचारों वाले पुरुषों की वासना पूर्ति के माध्यम के रूप में रखा जाता है। तंग और फूहड़ कपड़ों में लिपटी अभिनेत्रियों को केवल चूमने, मटकने और रिझाने के लिए मीडिया, वेब सिरीज़, कार्यक्रम और फिल्में इस्तेमाल करती हैं। यह नारी वर्ग का अपमान है, परन्तु तथाकथित नारीवादी(फेमिनिस्ट) पुरुषों और महिलाओं को न केवल साँप सूंघ जाता है, अपितु बड़े ही चाव से वो इस कॉन्टेंट का उपभोग करते हैं। बड़ी बिंदियों और साड़ियों से सुस्सजित समजसेविकाओं को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं होती और वो भी आग में घी डालने का ही कार्य करती हैं।
फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में नारी देह को कहीं भी एक उत्पाद के रूप में न दिखाकर, उसे वास्तविकता का अमलीजामा पहनाकर दिखाया गया है।
फिल्म में प्रोफेसर राधिका मेनन का किरदार बहुत ज़बरदस्त है। मेनन एक खलनायिका है, जो अपने पेशे और भूमिका की आड़ लेकर छात्र-छत्राओं को विष परोसती है। यह विष, विषैली विचारधाराओं रूपी विष है, जिसका सेवन जाने-अनजाने में भारत के कई युवाओं द्वारा किया जाता है। अपने आपको ‘आज़ादी’ से जोड़कर देखते छात्र-छात्राएं, जीवन की सच्चाइयों और कठोरता से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। साधारण और जागरूक प्रतीत होने वाले यह विद्यार्थी ही तथाकथित बुद्धिजीवियों का पहला शिकार बनते हैं। कुसंगति, नशा और गन्दी और अपमानजनक भाषा को ट्रेंड(दौर) और लाइफस्टाइल(जीवनशैली) के तौर पर मानने वाले यह विद्यार्थी, समाज और राष्ट्र की बुनियाद को खोखला कर देते हैं।
‘द कश्मीर फाइल्स’ में न तो गाने हैं, न कोई आइटम नम्बर और न ही कोई ‘सितारा’। इसमें जीवंत किरदार, मंझे हुए कलाकार, मज़बूत पटकथा, दिल को झकझोर कर रख देने वाली सच्चाई और एक बोल्ड रूपरेखा है। इस फिल्म ने सालों से बॉलीवुड पर अपना आधिपत्य जमाये बड़े कलाकारों और प्रोडक्शन होउसेज़ के भी परखच्चे उड़ा दिए, जो की आजतक एक सेट फॉर्मूले की निरर्थक मसाला फिल्में बनाते आए।
बॉलीवुड एक हिन्दू विरोधी एजेंडे पर भी बहुत लंबे अरसे से काम कर रहा है। नकारात्मक और गंदे पात्रों के नाम अक्सर हिन्दू देवी-देवताओं के नाम पर रखे जाते हैं। हिन्दू परम्पराओं और त्योहारों का उपहास बनाया जाता है। आतताइयों पर जो फिल्में बनती हैं उनमें नवाबों, सुल्तानों और बादशाहों के किरदार आकर्षक पुरुष निभाते हैं; जिन्हें दर्शकों को भ्रमित करने के लिए नेक, बलशाली, न्यायप्रिय और रूमानी अंदाज़ में दुनिया के सामने रखा जाता है। गुप्त वंश, मौर्य वंश और महाराणा प्रताप जैसे महान शूरवीर राजाओं पर या तो फिल्में बनती ही नहीं हैं, और यदि बनती भी हैं तो वो छोटे बजट की साधारण फिल्में होती हैं, जिन्हें खास कमर्शियल सफलता नहीं मिलती है। आतंकियों और जालिमों पर बनने वाली फिल्में बड़े बजट की भव्य फिल्में होती हैं, जो लोगों के मन में उनकी सकारात्मक छवि पैदा करने का काम करती हैं। धार्मिक हिन्दूओं और भगवाधारी किरदारों को पाखंडी और कामी व्यक्तियों के तौर पर इस तरह दिखाया जाता है कि लोग सनातन धर्म से चिढ़ जायें और नफरत करने लगें। यह सब होता रहा है और यदि हम इसका बहिष्कार नहीं करेंगे तो होता ही रहेगा। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हिन्दू निर्माता, निर्देशक, कलाकार और फिल्म उद्योग से जुड़े अन्य लोग भी इसी मिलीभगत का हिस्सा हैं। ऐसे कुछ गाने भी लिखे जाते हैं जो जानबूझकर हिन्दुओं पर फब्तियां कसने वाले होते हैं।
इस फिल्म ने हिन्दू समाज को भी एक सीख दी, जो कि केवल आर्थिक उन्नति और सामाजिक प्रतिष्ठा को अपने जीवन का ध्येय मानकर जीता है। हमारे समाज को यह समझना होगा कि केवल धन, प्रतिष्ठा, सुविधाओं और विलासिता के बूते हम टिके नहीं रह सकते हैं। हमें अपने आपको बनाये रखने के लिए; समाजिक समरसता, अखण्डता, सांस्कृतिक और वैचारिक उत्कर्ष, नैतिकता और कला की भी उतनी ही आवश्यकता है। हमें उन घटनाओं और दमनकारी नीतियों को याद रखना होगा, जिन्होंने हमारा वजूद मिटा दिया। एक समाज के तौर पर हमें अपना सशक्तिकरण स्वयं करना होगा, फिर चाहे हमें ‘शस्त्र और शास्त्र’ दोनों को ही आधार क्यों न बनाना पड़े। अगर कश्मीरी पंडितों में से एक प्रतिशत भी हथियारों के साथ आतातायी हत्यारों से भिड़ जाते तो उनपर भारी पड़ सकते थे। मुझे कश्मीरी पंडितों के नरसंहार से भी ज़्यादा बड़ा भय उन नरसंहारों का है, जो की आने वाले हैं। क्या हम उनका सामना कर सकने में समर्थ हैं? क्या हमारे पास आत्मरक्षा की भी कोई योजना नहीं है? क्या हम हमेशा पिटते ही रहेंगे? क्या हमारा वर्चस्व खतरे में नहीं है?
इस फिल्म का एक अन्य प्रमुख किरदार एक युवा छात्र है, जो कि कश्मीरी पंडितों की नई पीढ़ी का परिचायक है। ‘कृष्ण पंडित’ का किरदार अभिनेता दर्शन कुमार ने निभाया है, जो की फिल्म के अंत में भरी सभा में कश्मीर और कश्मीरी पंडितों के महिमामंडन करता है और फिल्म के माध्यम से हमारा परिचय हमारे  ही सुनहरे अतीत से करवाता है। वो अतीत जो कि सुनहरा था, और यह वर्तमान जो कि रंग-विहीन है। कश्मीर एक समय पर विश्व का प्रमुख बौद्धिक स्थल था, जो बड़े-बड़े पंडितों और विद्वानों से अटा हुआ था और आज वहाँ कुछ भी नहीं बचा है।
हम अब भी नहीं समझे या सम्भले तो फिर कब संभलेंगे और कैसे? क्या हमने देर की तो बहुत ज़्यादा देर नहीं हो जायेगी? क्या तथाकथित सेक्युलर, वामपंथी तथा कूटनीतिक विचारधाराओं वाले लोग कुछ नहीं बोलेंगे?
हमें सुप्त अवस्था से लुप्त अवस्था तक पहुंचने में ज़्यादा समय नहीं लगेगा और इस समय हमारा समाज सुप्त अवस्था से लुप्त अवस्था में जाने की यात्रा तय कर रहा है।

मैंने कभी भी फिल्मों पर कुछ नहीं लिखा, क्योंकि इस विषयवस्तु में मेरी कभी भी गहरी रुचि नहीं थी। कुछ समय पहले मैंने ‘नीरजा’ नामक एक फिल्म देखी थी। इस नायिका प्रधान फिल्म में मैंने पहली बार महिला को एक मुख्य और सशक्त किरदार के रूप में पाया। एयर हिस्टेस(नीरजा भानोत) चाहती को खुद को आसानी से हाईजैकर्स से बचा सकती थी, परन्तु उन्होंने खुद की बलि देकर सैंकड़ों यात्रियों को बचाया। हमारे समाज और धर्म को सुरक्षित, सुदृढ़ और सशक्त बनाने के लिए ऐसे कई ‘किरदारों’ की ज़रूरत है। क्या आप अपने राष्ट्र, समाज और संस्कृति के लिए ऐसी ही एक भूमिका निभाना चाहेंगे?

लेखक की जानकारी

प्रांजल जोशी एक स्वतंत्र लेखक हैं जो कि पिछले 15 वर्षों से भी ज़्यादा समय से विभिन्न पत्रिकाओं, ब्लॉग्स, वेबसाइट्स, और समाचार-पत्रों के लिए लिख रहे हैं। यह एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं जिन्होंने IMT गाज़ियाबाद से MBA किया है। प्रांजल को राजनीति, समाजशास्त्र, धर्म, अध्यात्म और सामान्य विषयों पर लिखने में खासी रुचि है। इन्हें अपने आपको एक लेखक और वक्ता के रूप में अभिव्यक्त करने का कौशल प्राप्त है। इनमें सत्य को उजागर करने की एक अद्भुत क्षमता है और इनका लेखन पाठकों को सोचने पर विवश कर देता है। जिस प्रकार प्रांजल विषयों की समीक्षा करते हैं उसमें गहराई भी है और अनूठापन भी। प्रांजल एक कलाप्रेमी हैं, जिन्हें सनातन धर्म के प्रचार से बहुत प्रेम है।
इन्होंने एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीकृत बैंक और कई कम्पनियों में अपनी सेवाएं प्रदान की हैं। प्रांजल एक रेकी मास्टर और एनर्जी हीलर भी हैं, जिनके कई प्रकार की हीलिंग पद्धतियों का ज्ञान है। इनके क्लाइंट्स पूरे दुनिया में हैं, जिन्हें इनकी हीलिंग से बहुत लाभ मिला है।

प्रांजल जोशी से उनके ईमेल pranjal280@gmail.com के माध्यम से सम्पर्क किया जा सकता है।

                प्रांजल जोशी

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.