गार्गी ,मैत्रेयी ,आण्डाल , अपाला आदि विदुषी महिलाओं के देश में नारीवाद का तूफान उठाकर तथाकथित बुद्धिजीवियों ने एक ऐसा हौव्वा खड़ा किया जिससे सनातन समाज की का ताना बाना हीं लचर हो गया। सबसे पहले यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते वाक्य का बैंड बजाया गया और ये बताया गया कि सनातन में केवल शाब्दिक रूप से हीं नारी का सम्मान किया जाता है और वैसे समाज का समृद्ध तबका और पुरुष वर्ग नारी का शोषण हीं किया करता है। घरों में बहुओं के घूंघट को कुरीति बताया गया लेकिन इस दौरान इस्लाम में बुरका , मर्दों की चार शादियों को जायज ठहराने और तीन बार तलाक बोलकर इस रिश्ते से छुटकारा पाने को इस बाजीगरी के साथ अनदेखा किया गया जैसे यह नारी जाति पर सबसे बड़ा उपकार हो। भारतीय नारी समाज के अंदर यह बात कूट-कूट कर भरी गई कि पुरुष उनका शोषण कर रहा है और बाकायदा #मीटू अभियान चलाकर पुरुष को बलात्कारी और उत्प्रीड़क साबित करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी गई और इन सबसे मुक्ति के लिए यह उपाय बताया गया अगर नारी अपने पैरों पर खड़ी हो जाए तो इन सारी कुरीतियों से मुक्ति मिल जाएगी |
ऐसा हुआ भी….
सामाजिक उपवन की लताओं में भी बड़े वटवृक्ष की तरह कठोर और दृढ़ होने की चाहत बढ़ने लगी और आज उसका परिणाम सामने है कि कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है और यह संख्या चौकीदार , चपरासी, घरेलू नौकरानी, सफाई कर्मी, सिलाई कटाई सहायक, सेल्स गर्ल्स, बार गर्ल्स, वेयट्रेस , रिसेप्सनिस्ट से लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्म में देखी जा सकती हैं।
आत्मनिर्भर बनने की ज़िद स्त्रियों को कटी पतंग बना दिया जो परंपराओं की डोर को बन्धन मानकर उस डोर से टूटी और लूटी गई या फटी पर परवाज़ न कर सकी। नारियों की आत्मनिर्भरता की ज़िद ने सबसे बड़ा नुकसान परिवार के बच्चों और बुजुर्गों का हुआ जिनको देखभाल करने वाले दोनों युवा युगल पैसा बनाने की मशीन बन चुके होते हैंं और इन दोनों असहाय समूहों के लिए क्रैच और ओल्ड एज होम बन जाते हैं।
और नुकसान पुरुषों का भी हुआ क्योंकि अंतिम फायदा नियोक्ताओं का हो गया नियुक्ताओं ने कम वेतन में समान रूप से काम करने वाली औरतों को रख लिया और अधिक वेतन मांगने वाले कई पुरस्कार्यों को पुरुष कर्मियों क या तो चुनाव ही नहीं या या अनदेखा कर दिया एक बताओ याद रखें और याद रखें की कमाओ पति की पत्नी निठल्ली नहीं करती परंतु कमाओ पत्नी का पति निठल्ला कहलाता है एक एक पुरुष को मिला हुआ रोजगार आम तौर पर परिवार का पेट भरता है जबकि एक स्त्री को मिली हुई नौकरी या तो कॉस्मेटिक के दुकानों या ब्यूटी पार्लर और बुटीक की बिक्री बढ़ती है या नारीवाद के अहंकार को और पोस्ट करती है।
आमतौर पर पढ़ी लिखी आधुनिकाएं आम तौर परिवार द्वारा स्थिर किए गये रिश्ते को स्वीकृति नही देती और अगर वो नौकरी पेशा हो तो मामला करेला उस पर नीम चढ़ा। इस क्रम में नारी को अरेंज मैरिज के खिलाफ भी भड़काया गया और प्रेम विवाह को महिमा पंडित किया गया। इसमें भावुक फिल्मों का और गुलशन नंदा , रानू जैसे लुगदी साहित्यकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा जिन्होंने राह चलते नायक और नायिका के टक्कर या बकझक को पहली नज़र का प्यार बताया।
इसका एक और प्रभाव ये भी हुआ कि अधिसंख्यक पिताओं ने यह कहना प्रारंभ कर दिया कि हम बेटे और बेटियों में फर्क नहीं करते और हम बेटी को बेटे से कमतर नहीं मानते। यहां तक की बेटी को बेटा कहना प्रारंभ कर दिया और यह बेटी को बेटा बनाने के दिखावे ने वास्तव में नारी से स्त्री सुलभ कोमलता, माधुर्य और शालीनता को छीन कर उन्हें एक तरह से द्वापर युगीन चित्रांगदा में बदल दिया। अब यह नारियां खुद को स्त्री मानने के बदले पर्सन विद ड्यूटीज कहने लगीं और अपने यौवन और कौमार्य को करियर पर कुर्बान करने लगी।
बाल विवाह को कुरीति घोषित करके वामपंथियों ने नारी के कोमल मन में अधिक उम्र में विवाह करने की वो विष वेल लगाई कि विगत यौवन या प्रौढ़ा विवाह की अघोषित परंपरा अस्तित्व में आ गई। करियर और योग्य जीवनसाथी की तलाश ने 30 से 35 साल तक नारियों को भी विवाह के बारे में सोचने हीं नहीं दिया और इसका परिणाम यह रहा कि 30 वर्ष से लेकर 35 वर्ष तक की प्रौढ़ा सुन्दरियों से विवाह करने के लिए योग्य युवा कतराने लगे और जो तैयार थे उनसे इन आधुनिकताओं ने विवाह करने से इनकार किया। जिन प्रोफेशनल दंपतियों ने डिंक ( DINK Double Income No Kids) बनने की कोशिश कि उन्होंने संतानोत्पत्ति का कालखंड करियर ग्रोथ के दौरान ही बर्बाद कर लिया। अंतरजातीय विवाहों ने समाज में योग्य वधु और वर की अप्रत्याशित कमी उत्पन्न कर दी है।
इन परिस्थितियों में भग्नमनोरथाओं ने या तो स्वत सिंगल रहना स्वीकार कर लिया या इस असामाजिक अंतरजातीय और धर्मेतरविवाह के टूटने पर खुद को अकेला रखना हीं अधिक उचित माना। कुछ की उम्र इतनी ज्यादा हो गई कि किसी युवा ने इन विगत यौवनाओं को स्वीकार करने का विचार ही नहीं किया। तो अपने भारतीय समाज में बढ़ती हुई कुंवारी या एकाकी प्रौढ़ाओं की संख्या के पीछे आपको साफ-साफ वामपंथियों द्वारा बेवजह तूल दिए गये नारीवादी आंदोलन का साइड इफेक्ट लिखेगा।

एक और बात बड़ी मार्के की है कि इन कुंवारी महिलाओं में सिर्फ हिंदू महिलाएं देखेंगी। आपको मुसलमानों या ईसाइयों ऐसी अविवाहिता महिला नहीं दिखेगी, आखिर क्यों?
क्या ये नारीवादी आंदोलन सनातन के संख्याबल को कम करने की साज़िश तो नहीं?

 

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