योगेंद्र यादव का संयुक्त किसान मोर्चा से कुछ अवधि के लिए निलंबन दरअसल तमाम धर्मनिरपेक्ष के लिए एक दृगोन्मेषी घटना यानी आइ ओपनर इवेंट है। जब भी कभी आप अपनी मूल चरित्र से हटकर तथाकथित प्रगतिशीलता की धारा में बहते हैं तब शुरुआती दिनों में तो लोग आपको स्वीकार करते हैं परंतु जैसे ही आप अपने मूल स्वभाव के अनुरूप नई राह ढूंढते हैं, आपको पहले से चाहने वाली व्यवस्था आप का परित्याग कर देती है। राजनीति की बिसात पर भले ही आप अपने आप को किंग मेकर या किंग का अंगरक्षक मानें पर आप सिर्फ प्यादे होते हैं जिसका इस्तेमाल आपका किंग कभी भी कर सकता है और कभी भी आपको दुश्मनों की व्यूह रचना के सामने चारे की तरफ फेंक सकता है। आप ने पहले योगेंद्र यादव को एक मार्गदर्शक के रुप में एक थिंक टैंक के रूप में स्वीकार किया और एक अदना सा समूह देखते ही देखते राजनीतिक धुरंधरों का बसेरा बन गया जो आज दिल्ली की सत्ता पर काबिज है। परंतु जैसे ही आप पार्टी की निजी आकांक्षाओं पर योगेंद्र यादव मौलिक सोच की वजह से तुषारापात होने लगा आप ने उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंकना शुरू कर दिया। बाकी का छोड़िए जो आजकल खुद बहिष्कृत हैं वे कुमार विश्वास भी उनकी बातों पर विश्वास ना दिखा सके। दरअसल योगेंद्र यादव एक भद्र पुरुष है जिन्हें राजनीति के विश्लेषण करने का तो बहुत विराट अनुभव है पर राजनीति में विश्लेषित होने का अनुभव कुछ भी नहीं।उनका अगला कदम तत्कालीन सरकार की और कृषि नीतियों नागरिकता कानून का विरोध रहा जिसके लिए उन्होंने एड़ी चोटी एक कर दी। जेएनयू में छात्र विप्लव और शाहीन बाग का प्रदर्शन दरअसल कोरोना के नाम चला गया । केंद्रीय सत्ता की नपुंसकता को कोरोनावायरस ने समयोचित पौरुष में बदल दिया।कृषि कानूनों पर सरकार को घेरने की कोशिश मैं योगेंद्र यादव ने किसानों के साथ दिल्ली के बॉर्डर पर धरना दिया, बैठे रहे और वहीं से कई साक्षात्कार भी उन्होंने दिये और कई प्राइम टाइम कार्यक्रमों का हिस्सा बने। परंतु हालिया दिनों में एक मंत्री की कार से कुछ किसानों की मौत पर दुख प्रकट करते हुए वैसे घरों में भी चले गए जहां के लोग बुद्धिजीवियों की नजरों में भक्त कहलाते हैं। और एक भक्त के निधन पर या असामयिक निधन पर एक बुद्धिजीवी को रुदन का अधिकार नहीं होता और यही हुआ।उस मृतक का सत्ता का समर्थक होना योगेंद्र यादव के आंसुओं को तेजाब बना गया।आनन-फानन में योगेंद्र का संयुक्त किसान मोर्चा से वियोग हो गया।परंतु अपनी जड़ से उखड़ कर अन्य प्रकार की राजनीति करके अपना अस्तित्व स्थापित करने वाले व्यक्ति को अंततः अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के फंदे में हमेशा के लिए फंसना हीं पड़ता है और यही वजह है कि योगेंद्र यादव ने सर झुका कर इस निलंबन को सर माथे पर लिया। यह कुछ वैसा ही था जैसे शार्ली एब्दो प्रकरण के बाद भी फ़्रांस सरकार इस्लाम के मामले में किंकर्तव्यविमूढ़ है और दूसरी तरफ कृतनिश्चय होकर ९/११ के बाद आजतक अमरीका एक खास समुदाय की पैंट उतार कर चेकिंग कर रहा है।पर यही किंकर्तव्यविमूढ़ता योगेन्द्र यादव की भी है। सनातन पोषित राजनीति उन्हें दकियानूसी और धर्मान्ध लगती है और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के जहाज से दुत्कारे जाने के बाद भी यह पक्षी उसी जहाज के पीछे उड़ रहा है क्योंकि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का हरा चश्मा पहनने वालों को बाकी रंग काले हीं लगते हैं।सभी सेक्यूलर सोचें, सभी बुद्धिजीवी सोचें , सभी अभाजपाई सोचें कि सबसे ज्यादा किसानी सनातनी कर रहे हैं, मुसलमानों और सिखों से ज्यादा प्रताड़ित हिन्दू हैं अन्य ( खासकर इस्लामी देशों में ) परन्तु किसी नागरिकता कानून या कृषि कानून विरोधी सम्मेलन में जय श्री राम या हर हर महादेव के नारे नहीं लग रहे हैं। हर जगह हरे झण्डे और एक खास किस्म के नारे क्यों लग रहे हैं?अगर पता न चले तो एक बार टिकैत की टोपी का रंग भगवा करके देखिये आप सब जान जायेंगे।

दरअसल सारे बुद्धिजीवी सनातन से चिढ़ की वज़ह से अल्पसंख्यकों के हरम की बेगम बनकर खुश हैं जो उन्हें कभी भी तलाक दे देता है पर हलाला के आश्वासन के साथ । अब देखा जाये कि योगेन्द्र जी का हलाला कब होता है।

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