कबीर का रहस्यवाद

 


    ‘रहसि भवम् रहस्यम्’! रहस्य का अर्थ है गोपनीय, गुप्त, गुह्य। प्राइवेट में सम्पन्न होने वाली अनुभूति ही रहस्य है। एकान्त साध्य कर्म ही रहस्य है। ब्रह्म भी इसलिए रहस्य है कि वह एकान्त में सम्पन्न हाने वाली प्राइवेसी है। रहस्य भावना है परोक्ष के प्रति जिज्ञासा।

 

  शब्द विकल्पों के जनक हैं। इन विकल्पात्मक शब्दों के द्वारा जब ब्रह्म का निवर्चन किया जाएगा तो धोखा ही होगा। कबीर कहते हैं-

      संतों धोखा का सु कहिए

     जस कहत तस होत नहीं है

     जस है तैसा होहिं।

     ब्रह्म न तो किसी शब्द का मोहताज है न किसी परिभाषा का। अभिव्यक्ति जो ससीम है वह असीम को नहीं बांध सकती। कबीर दास इस ब्रह्म को ढ़ुढ़ने के बाद, जब कहीं कुछ प्राप्त नहीं कर पाते तो अंततः झुझलाकर कहते हैं, ‘तहां कछु आहि की शुण्यम वहां कुछ है भी कि शुण्य ही शुण्य है। कबीर दास जी का ब्रह्म शुण्य है और इसलिए रहस्य है।

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