हर वर्षगांठ, बरसी ,जयंती या पुण्यतिथि एक विचारणीय कालखंड होता है जिसमें हम कोशिश करते हैं कि उन खूबियों और खामियों पर चिंतन करें कि हमने उस लक्ष्य को कहां तक प्राप्त किया जो उस व्यक्ति, घटना , स्थान या काल के सापेक्ष पूरा होना था।
जाहिर सी बात है कि संविधान दिवस के अवसर पर चिंतनीय और विचारणीय विषय है कि क्या हम ने सही किया?
क्या हमने संविधान बनाने के लिए कट एंड पेस्ट का जो प्रयोग किया वह सही था?
क्या हमारे मनीषियों ने कोई ऐसी किताब नहीं लिखी थी जिसके आधार पर हमारा संविधान बनता?
आज पाकिस्तान में शरीयत का असर है। पाकिस्तान ने मुफ्त में बैठा कर राजनयिकों को या नेताओं को एक नियमावली बनाने के लिए कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपी। पाकिस्तान को इस्लाम पर पर भरोसा है। पाकिस्तान ने उसी कुरान और हदीस के आधार पर अपना देश चलाया और आज भी चल रहा है। शिखर पर तो मारपीट चलती रहती है।
अब तालिबान पर ध्यान दें तो पहले भी तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा करके कोई संविधान सभा नहीं बनाई थी ।उन्हें कुरान, हदीस या शरीयत पर इतना भरोसा था और है कि उसी आधार पर अफगानिस्तान पहले भी चल रहा था , आज भी चल रहा है और अगर अमेरिका ने बेवजह उंगली ना की होती तो सब कुछ शांति शांति है।
मजे की बात है कि शराब का इस्तेमाल हराम पर अफीम का निर्यात पाक़ सौदा परंतु उन्होंने कभी भी कुछ निठल्ले लोगों को बैठा कर कट एंड पेस्ट मेथड से एक संविधान बनाने की कोशिश नहीं की। उन्हें अपने पूर्वजों पर उनकी रचनाओं पर विश्वास था आस्था थी और उनका देश चल रहा है।
विचारणीय प्रश्न है कि हिंदुस्तान की राजनीतिक चिंतकों की आखिर क्या मजबूरी थी कि विदेशियों का संविधान पढ़कर और उससे ही नोट्स ले कर अपना संविधान बनाया गया।
अपने यहां मनुस्मृति , बृहस्पति संहिता, अग्नि पुराण, याज्ञवल्क्य स्मृति , विदुर संहिता आदि कई ऐसे ग्रंथ थे जिन को आधार बनाकर हम एक भारतीय विधि संहिता बना सकते थे।
परंतु हमने स्वदेशी उत्खनन के बदले विदेशी स्मगलिंग को बढ़ावा दिया और हमारा संविधान कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति का कुनबा जोड़ा , बन गया।
उस संविधान का क्या महत्व जिसमें कुछ चालबाजों का बहुमत कभी भी संशोधन कर सकता है?
उस संविधान का क्या भरोसा जो अंतर्जातीय या अंतर-धर्म विवाह से उत्पन्न शिशु का ना जाति बता सकता है और ना धर्म? मजे की बात यह है कि संविधान उसे वर्णसंकर भी नहीं बता रहा।
उस संविधान का क्या करें जिसे आज तक यह पता नहीं है कि चुनाव देने लंगड़े लूले और अंधे भी आ सकते हैं क्योंकि मतदान केंद्र में मैंने कभी भी इन विकलांगों के लिए कोई सुविधा का प्रबंध नहीं देखा है?
पिछले सत्तर सालों को से अंधों को भी बैलट पेपर पर मुहर मार कर ही अपना मत प्रकट करना होता है ईवीएम आने के बाद भी हालत वही है। मतदान के लिए स्क्राइब नहीं मिलते हैं।
बहरों के लिए भी नेता जी आजकल लाउड स्पीकर पर ही अपनी घोषणाएं करते हैं।
उस संविधान से क्या उम्मीद कर सकते हैं जो आज तक यह स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि देश में वेश्यालय हैं?
वह देश जहां कमाठीपुरा है सोनागाछी है मंगल बाजार है और चतुर्भुज स्थान है । और कितने नाम गिनवाऊँ जबकि लगभग हर एक शहर में एक बदनाम गली जरूर है।।
जिस देश में मंटो, राजकमल चौधरी और मस्तराम के पाठक भरे पड़े हैं उस देश का संविधान वेश्याओं कोठों के बारे में नहीं जानता।
उस संविधान का क्या मतलब जो आपको अपने मौलिक अधिकारों में जान बचाने का अधिकार ना दे और सम्पत्ति का भी अधिकार ना दें?
उस संविधान से क्या मतलब जिसके छह के छह मौलिक अधिकार किसी काम के नहीं हैं और इसकी व्याख्या कोई भी बुद्धिजीवी वकील अपने हिसाब से कर सकता है?
क्या वह संविधान स्मरणीय है जिसमें मौलिक कर्तव्य गौतम और नीति निर्देशक तत्व, मौलिक अधिकार के नक्कारखाने में तूती की आवाज बने हुए थे, हैं और आगे भी रहेंगे?
क्या वह संविधान आदरणीय है जिसमें आपको पेट भरने का अधिकार नहीं है?

क्या हुआ संविधान आदरणीय है जिसमें भाई और बहन की शादी हो जाए तो भी आईपीसी और सीआरपीसी को कोई फर्क नहीं पड़ता?
क्या वह संविधान भी अस्तित्व में रहना चाहिए जिसमें योजना आयोग और नीति आयोग जैसे नीति निर्धारक संगठन संवैधानिक संकाय नहीं है?
क्या उस संविधान को अस्तित्व में रहना चाहिए जो बाल मजदूरी को असंवैधानिक तो कहता है परंतु वह बच्चा खाना कैसे खाए इसकी व्यवस्था नहीं कर पाता?
क्या वह संविधान औचित्य पूर्ण है जिसमें फिल्म या नाटकों में दिन भर शूटिंग और रिहर्सल कर रहा बच्चा तो बाल मजदूर नहीं है परंतु अपनी विधवा मां को इज्जत की दो रोटी खिलाने के लिए काम करता हुआ मातृ भक्त बच्चा एक बाल मजदूर है और उसको नौकरी देने वाला एक भलामानस अपराधी।
अगर हम पढ़ें दें तो चाणक्य के अर्थशास्त्र में वेश्याओं के लिए भी अधिकार और कर्तव्य की विवेचना है उसके लिए भी अधिकारी हैं पर हमारे इस कट पेस्ट संविधान में तो वेश्याएं होती ही नहीं है और विकलांग होते ही नहीं और अगर होते भी हैं तो उनकी गिनती नहीं होती।
जिस संविधान को बनने के 70 साल के बाद भी उसे यह फाइनली नहीं पता है कि किन्नर क्या होते हैं और एलजीबीटीक्यू प्लस क्या बला है?

वह संविधान अस्तित्व में कैसे रह सकता है जिसे यह पता नहीं है कि तीन तलाक के बाद अगर मुस्लिम महिला आपने पति के पास आना चाहे तो उसे हलाला की रस्म से गुजरना पड़ेगा?

क्या उस संविधान को स्थाई होना चाहिए इस या पता नहीं कि उसके द्वारा प्रस्तावित राष्ट्र गान में सिंध और बंगाल का जिक्र है जो पाकिस्तान का हिस्सा है और बिहार राष्ट्रगान में कहीं जगह नहीं पाता जिसमें भारती गणराज्य को प्रजातंत्र की भी सौगात दी और पहला राष्ट्रपति भी?

परंतु सत्तावादी राजनीति को इस मुद्दे पर क्या सोचना?

अपना संविधान तो इतना चुल्ल है कि आतंकवादी कसाब की फांसी रुकवाने के लिए रात रात भर काम कर सकता है और शहीद भगत सिंह पर से आतंकवादी होने का ठप्पा नहीं हटा सकता।

जय हो।

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