आजाद हिंद फौज या सेना का नाम लेते ही आंखों के सामने आते हैं देश की स्वतंत्रता के लिए विश्व भर में भ्रमण करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ‘चलो दिल्ली’ की घोषणा करते हुए हिंदुस्तान में आने वाली स्वतंत्रता संग्राम की कल्पना से आनंदित सेना और देश के लिए प्राणार्पण करने के लिए इच्छुक हिंदुस्तानी महिलाओं की झांसी की रानी की पलटन।
नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना महान था कि कुछ विद्वानों का मानना है कि यदि नेताजी उस समय जीवित होते, तो संभवतः विभाजन के बिना भारत एक संयुक्त राष्ट्र बना रहता। स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम सबसे पहले आता है। नेताजी की सोच में एक अलग ही ऊर्जा थी, जिसने कई देशभक्त युवाओं के मन में उत्साह निर्माण किया। सुभाष चंद्र बोस अपने दृढ़ संकल्प और अपनी सोच से कभी समझौता नहीं करने के लिए जाने जाते थे। वे न केवल भारत के लिए परंतु दुनिया के लिए भी प्रेरणा के स्रोत हैं। उन्होंने ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ की घोषणा से प्रत्येक भारतीयों के मन में राष्ट्र प्रेम की ज्योत जला दी। अंग्रेजों से लड़ने के लिए संघर्ष किया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर संशोधन कर चुके सैन्य इतिहासकार (मिलेट्री हिस्टोरियन) जनरल जीडी बख्शी की पुस्तक ‘बोस: इंडियन समुराई’ में दावा किया गया है कि, सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल सेना (आईएनए) ने भारत की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । गांधी के ‘भारत छोडो आंदोलन’ से ज्यादा सुभाषचंद्र बोस की सेना के कारण भारत काे स्वतंत्रता मिली । बख्शी जी के अनुसार, तब के ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे क्लीमेंट एटली ने कहा था कि, नेताजी की इंडियन नेशनल सेना ने स्वतंत्रता दिलाने में बडी भूमिका निभाई । वहीं, गांधी के नेतृत्व में चलाए जा रहे अहिंसा आंदोलन का प्रभाव बहुत कम था ।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री की बातचीत से खुलासा – बख्शी जी ने, एटली और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे न्यायाधीश पीबी चक्रवर्ती के बीच की बातचीत का भी उल्लेख किया है । वर्ष 1956 में एटली भारत आए थे और कोलकाता में पीबी चक्रवर्ती के अतिथि थे । भारत की स्वतंत्रता के दस्तावेज पर एटली ने ही हस्ताक्षर किए थे । चक्रवर्ती कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल भी थे ।
सुभाष चंद्र बोस की सेना का प्रभाव – चक्रवर्ती ने इतिहासकार आर.सी. मजूमदार को उनकी पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ बंगाल’ के लिए खत लिखा था । चक्रवर्ती ने लिखा, ‘मेरे राज्यपाल रहने के कालावधि में एटली दो दिन के लिए राज्यपाल भवन में रुके थे । इस दौरान ब्रिटिशर्स के भारत छोड़ने के कारणों पर लम्बा विचार-विमर्श हुआ । मैंने उनसे पूछा था कि, गांधीजी का भारत छोड़ो आंदोलन (1942) स्वतंत्रता के कुछ साल पहले ही शुरू हुआ था । क्या उसका इतना प्रभाव हुआ कि अंग्रेजों को इंग्लैंड लौटना पडा ?
’बक्शी जी की पुस्तक के अनुसार ‘उत्तर में एटली ने, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की सेना के प्रयत्नों को महत्वपूर्ण बताया था ।’ पुस्तक के अनुसार चक्रवर्ती ने जब एटली से पूछा कि गांधीजी के अहिंसा आंदोलन का कितना प्रभाव हुआ तो एटली ने हंसते हुए जवाब दिया – ‘बहुत कम’ । चक्रवर्ती और एटली की इस बातचीत को 1982 में ऐतिहासिक समीक्षा संस्थान के राजन बोरा ने ‘सुभाष चंद्र बोस-द इंडियन नेशनल सेना एंड द वॉर ऑफ इंडियाज लिबरेशन’ इस लेख में छापा था ।
सैनिकों का विद्रोह आया काम : 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के 20 हजार सैनिकाें ने अंग्रेजों के विरुध्द बगावत कर दी थी । सैनिक 78 जहाज लेकर मुंबई पहुंच गए थे । इन जहाजों पर तिरंगा भी फहरा दिया गया था । हालांकि तब इस बगावत को दबा लिया गया । लेकिन अंग्रेजों के लिए यह खतरे की घंटी थी ।
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