देवी का माहात्म्य व उपासना !

भारत में विविध संप्रदाय कार्यरत हैं । इन संप्रदायों के अनुसार संबंधित देवताओं की पूजा उपासना पद्धति प्रचलित है। गाणपत्य, शैव, वैष्णव, सौर्य, दत्त आदि संप्रदायों की तरह शाक्त संप्रदाय का अस्तित्व भी प्राचीन काल से भारत में है। शाक्त संप्रदाय द्वारा बताई गई पद्धति से शक्ति उपासना करने वाले अनेक शाक्त भारत में सर्वत्र मिलते हैं। आदि शंकराचार्य जी ने पंचायतन पूजा की प्रथा भारत में प्रारंभ की। उसमें देवी का स्थान महत्वपूर्ण है। भारत में जिन उपास्य देवताओं की उपासना की जाती है, उन प्रमुख पांच देवताओं में से एक शक्ति अर्थात देवी है।
तंत्र शास्त्र की आराध्य देवता : तंत्र शास्त्र का पालन करने वाले तांत्रिक तंत्र शास्त्र के जनक सदाशिव की उपासना करते हैं। इसी तरह त्रिपुर सुंदरी, मातंगी, उग्रतारा आदि तांत्रिक शक्तियों की भी उपासना करते हैं। इससे शिव के समान शक्ति भी तंत्र शास्त्र की आराध्य देवता है यह स्पष्ट होता है।
पुराणों की कथाओं के माध्यम से लक्षित हुईं देवी की गुण विशेषताएं –
समस्याओं पर स्वयं उपाय खोज निकालने वाली स्वयंपूर्ण पार्वती देवी – कैलाश पर निवास करते समय स्नान के समय कक्ष की पहरेदारी की सेवा करने के लिए पार्वती जी ने अंतः प्रेरणा से स्वयं के मैैल से गणपति का निर्माण किया । सुरक्षा के व्यक्तिगत कारण से गणपति का निर्माण किया, तो भी पार्वती जी के कारण संसार को आराध्य देव श्री गणेश प्राप्त हुए यह त्रिवार सत्य है। देवी कौशिक की निर्मिती भी इसी तरह के भाव से हुई है ।
समुद्र मंथन के समय उत्पन्न विष को मंदराचल पर्वत द्वारा सोखा गया। उस सोखे हुए विष के प्रभाव से मंदराचल पर्वत की मुक्ति करने के लिए शिव के साथ पार्वती जी ने उस पर करुणामय दृष्टि से कृपा की। जब मंदराचल से निकलने वाली विषयुक्त हवा शिव शंकर स्वयं सोख रहे थे, तब कुछ अंश का परिणाम पार्वती जी पर भी हुआ इस कारण वे काली हो गईं। उमा को उनका गौर वर्ण प्रिय होने के कारण पुनः गौर वर्ण प्राप्त करने के लिए उन्होंने ब्रह्म देव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप प्रारंभ किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न ब्रह्मदेव ने उन्हें फिर से गौर वर्ण प्रदान किया एवं उस समय उनके श्याम वर्ण से कौशिकी नामक एक देवी का निर्माण किया । इस देवी ने आगे चलकर शुंभ निशुंभ इन दैत्यों का वध किया। इस प्रकार पार्वती जी ने संपूर्ण विश्व को त्रस्त करने वाले शुंभ निशुंभ इन दैत्यों का संहार करने वाली देवी की निर्मिति की।
करुणामयी देवी द्वारा पृथ्वी के जीवों के लिए शताक्षी एवं शाकंभरी रूप धारण कर कृपा करना – दुर्गमासुर द्वारा वेदों को पाताल में बंदी बनाने के कारण धर्म का लोप हो गया, यज्ञ एवं उपासना न होने के कारण देवताओं को उनका हविर्भाग नहीं मिल पा रहा था। इस कारण देवताओं की भी शक्ति क्षीण हो गई। देवताओं की पृथ्वी पर कृपा वर्षा रुक गई । इस कारण पृथ्वी पर भीषण अकाल पड़ गया। नदी, झरने, पानी के स्रोत सूख गए । तब पृथ्वी पर मरणोन्मुख स्थिति को प्राप्त जीवों की दुर्दशा देखकर महिषासुर मर्दिनी माता की आंखों में आंसू आए और उससे शताक्षी देवी की निर्मित हुई । सौ आंखों वाली देवी की आंखों से बहने वाली अश्रु धाराएं पृथ्वी पर आईं एवं उन्होंने नदियों का रूप धारण किया। इस तरह सर्वत्र पानी उपलब्ध हुआ। तत्पश्चात देवी के अंश से शाकंभरी देवी की निर्मित हुई, जिनकी कृपा से पृथ्वी पर सर्वत्र शाक अर्थात पत्ते वाली सब्जियां एवं अन्य सब्जियों का निर्माण हुआ। इस प्रकार पृथ्वी के जीवन के लिए पानी एवं शाक उपलब्ध होकर पृथ्वी पर से अकाल के संकट का निवारण हुआ।
माता सरस्वती द्वारा देवताओं की सहायता करना – ब्रह्मदेव से वरदान प्राप्त करते समय कुंभकर्ण को इंद्रासन मांगना था परंतु देवताओं की प्रार्थना के कारण महासरस्वती कुंभकर्ण की जिह्वा पर विराजमान हुईं इस कारण कुंभकर्ण ने इंद्रासन के स्थान पर निद्रासन का वरदान मांग लिया। तारकासुर के तीन तारक पुत्रों को परास्त कैसे किया जाए ? यह प्रश्न समस्त देवताओं के सामने उपस्थित हुआ, तब श्री हरि विष्णु ने उन पुत्रों को धर्म विमुख होने के लिए प्रवृत्त करना चाहिए यह उपाय बताया। धर्म विमुख करने का उपाय किस प्रकार साध्य किया जाए इसका मार्गदर्शन माता सरस्वती ने नारद जी को देकर देवताओं की सहायता की।
माता लक्ष्मी द्वारा देवताओं की सहायता करना – शिव के अंश एवं समुद्र से उत्पन्न जालंधर दैत्य, देवताओं को कष्ट देने लगा । लक्ष्मी जी का जन्म भी समुद्र मंथन से होने के कारण नाते से जालंधर लक्ष्मी देवी का छोटा भाई था, परंतु वह देवताओं को कष्ट दे रहा था तथा उसके मन में पार्वती देवी के विषय में कामवासना के अधर्मी विचार होने के कारण उसका नाश हो, यह कामना लक्ष्मी जी ने श्री हरि विष्णु से की। इससे लक्ष्मी देवी तत्व निष्ठ थीं एवं अधर्म आचरण करने वाले अपने भाई की सहायता ना करते हुए देवताओं के पक्ष में निर्णय दिया एवं स्वयं का धर्म कर्तव्य पूर्ण करके आदर्श उदाहरण संसार के सामने रखा।
दुर्गा माता द्वारा देवताओं की सहायता – त्रेता युग में श्रीराम ने नवरात्रि की कालावधि में देवी की उपासना की एवं देवी के कृपाशीर्वाद से ही विजयादशमी के दिन रावण का वध किया । द्वापर युग में भी श्री कृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने महाभारत का युद्ध प्रारंभ करने से पूर्व श्री दुर्गा देवी को शरण जाकर प्रार्थना की । श्री दुर्गा देवी ने प्रसन्न होकर अर्जुन को विजय श्री का आशीर्वाद दिया । श्री दुर्गा देवी की कृपा का कवच धारण करके ही अर्जुन ने महाभारत का युद्ध किया एवं उसमें विजय प्राप्त की ।
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