भारत चीन सीमा विवाद जो की पिछ्ले 4-5 महिनों से महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है । उसपर शान्ति की एक छोटी से बात भी एक बहुत ही अच्छा निर्णय प्रमाणित हो सकती है। इसमे सभी बातों को मानते समय कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ध्यान देना अतिआवश्यक है।

जैसा कि सभी जानते हैं और मानते हैं के चीन अगर विस्तारवादी नहीं होता तो उसकी कोई भी सीमा भारत से लगती हीं नहीं। हमारे देश की सीमा पूर्वी तुर्किस्तान और तिब्बत से लगती है। सबसे पहले तो हमे भारत चीन सीमा विवाद की जगह भारत-तिब्बत सीमा विवाद और भारत-पूर्वी तुर्किस्तान सीमा विवाद कहना अधिक उचित होगा।

चूकि अभी इन दोनो देशो पर चीन का अनुचित नियन्त्रण है इसलिए भारत सरकार को इन दोनो देशो की बजाय चीन से वार्ता करनी पड़ रही है। तो जब बात दोनो सेनाओं के पीछे हटने की आती है तो भारत की सेना पीछे क्यूँ हटे ? क्या भारत की सेना ने चीन के किसी भी भूभाग पर कब्जा किया है? नहीं। चीन ने हमारे आक्साई चीन पर कब्जा किया हुआ है।तो फिर केवल और केवल चीन को अपनी सेना पीछे लेनी होगी। जब कभी भी वार्ता हो , भारत सरकार को जोर आक्साई चीन को खाली कराने पर होना चाहिए और तिब्बत को आज़ाद कराने पर होना चाहिए।

आज जैसे परिस्थिति है, क्या वो कभी आई थी, जब सारी दुनियाँ चीन के विरोध मे और भारत के समर्थन मे हो? और ना हीं भविष्य मे ऐसी कोई उम्मीद है। इसलिए आक्साई चीन, पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेने और तिब्बत की स्वतंत्रता का इससे अच्छा मौका नहीं मिलनें वाला है। हम सब ये जानते हैं के इसमे खतरा है। युद्ध कुछ ज्यादा ही बड़ा हो सकता है लेकिन जब हमने सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक किया था तब हमे पकिस्तान के परमाणु बम का खतरा नहीं था? जब हमने जून मे चीनी सेना से हाथापाई की थी तब युद्ध के बड़ा होने का खतरा नहीं था? जब ब्लैक टॉप और अन्य चोटियो पर कब्जा किया था तब युद्ध का खतरा नहीं था?

भारत जब तक दबता रहा, चीन और पकिस्तान मिल कर हमे दबाते रहे। हमने थोड़ा जवाब देना सुरु किया, वो दोनो वार्ता करने की गुहार लगाने लगे।

क्या चीन वन भारत पॉलिसी को मानता है? तो हम वन चाइना पॉलिसी को क्यूँ माने? हम खुल कर ताइवान, तिब्बत, होंगकाँग का साथ क्यूँ नहीं दे सकते? हम खुल कर उइगर मुसलमानों के पक्ष मे क्यूँ नहीं बोल सकते?

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