१५ अगस्त १९४७ को भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति और लगभग दो सौ साल चले स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्व तो यह है कि उसने बर्तानिया के वर्चस्व को चुनौती दी परंतु दूसरा और महत्वपूर्ण उद्देश्य था कि आर्य संस्कृति ने आंशिक रूप से हीं सही परन्तु निर्णायिका सत्ता प्राप्त की। परंतु इस भगीरथ प्रयास में आर्य वर्चस्व को यवनों और क्रिस्तानों की सहायता भी लेनी पड़ी । आगे के साठ या सत्तर सालों तक यवन और क्रिस्तान दोनों सत्ता के अविभाज्य अंग बने रहे। आर्यों की गौरव भाषा संस्कृत या पाली या प्राकृत आदि किसी भाषा को थोड़ी भी शासकीय सहानुभूति का आसरा नहीं मिला और उर्दू-फारसी के संग अंग्रेजी ने सत्ता के आसपास जो अपनी धमक बनाई वह आज भी कायम है ।
अखिल भारतीय कांग्रेस ने सत्ता प्राप्ति के साथ ही धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज़्म Secularism का चोला पहन लिया जो व्यवहार में अपने अंग्रेजी अर्थ से बिल्कुल विपरीत था । धर्मनिरपेक्षता अपने भारतीय स्वरूप में असनातनी सम्प्रदाय सापेक्षता में बदल गई थी और यही दौर जारी रहा । सनातनी कभी भी संगठित नहीं हुए और करोड़ों की संख्या में रहने वाले यवन और क्रिस्तान अपने आपको अल्पसंख्यक कहलवाते हुए दोगले चरित्र के साथ सनातनी वर्ण व्यवस्था के श्रमिक वर्ग को सनातन के चिंतक वर्ग के साथ नफरत सिखाते रहे। इस आज़ादी का स्वरूप लगभग बर्तानियाँ के शासन का हीं एक भ्रष्टतम रूप था। आर्य संस्कृति की यह जीत वास्तव में अंग्रेजी और उर्दू के दुष्चक्र में फंसी भारतीय भाषाओं और सनातन के प्रतिमानों के चीरहरण के अतिरिक्त कुछ नहीं रही । भाजपा नीत छः वर्षीय शासन ने भारतीय समाज में फैली अभारतीयता की धूसरता को हटाने की थोड़ी कोशिश की परन्तु मनमोहन नीत कांग्रेसी सत्ता के एक दशक ने भारतीय मध्यवर्गीय जनमानस के असंतोष को इतना बढ़ा दिया के पूरा भारतीय मध्यवर्ग धर्मनिरपेक्षता के कुहासे से बाहर निकल आया और उसे आर्य संस्कृति के अरुणोदय की आभा का अनुभव हुआ। आर्य चिंतन का एक रूप नरेंद्र के रूप में मूर्त हुआ और उसके कुछ दिन बाद ही भारत के संयुक्त प्रांत में योगी आदित्यनाथ के उदय ने आर्य वर्चस्व को हजारों सालों के बाद एक बार पुनः स्थापित किया। अगर हम महाभारत , विष्णुपुराण और मुद्राराक्षस को याद करें तो महाराज परीक्षित के शासनकाल के बाद नंद वंश ने आर्य तत्व को प्रखरता के साथ सत्ता नियंत्रण का मौका दिया और उसके बाद चाणक्य की दुरभिसंधियों ने आर्य सत्ता में यूनानी वर्णसंकरता के गुणसूत्र को घुसेड़ने में में कोई कमी नहीं छोड़ी और आने वाला अगली एक शताब्दी सनातन की उत्क्षिप्त शाखाओं की विचारधारा के अधीन बौद्ध और जैन संस्कृति का वाहक बना रहा। तब कहीं जाकर पुष्यमित्र शुंग ने बुद्ध को विष्णु का नवम अवतार मानकर बौद्धों के शासकीय घुसपैठ को प्रभावहीन किया।


और उसके बाद से लगभग सात आठ सताब्दियों तक आर्यभूमि कभी यवनों तो कभी यवन पोषित सनातनियों के शिकंजे में तड़पती रही । इसके बाद ईसाइयत ने फ़्रांसिसीयों, डचों , पुर्तगालियों और बरतानिया हुकूमत के माध्यम से आर्य सत्ता को लगभग 200 साल तक पद दलित रखा। आने आने वाला अगला कई दशक भी काले अंग्रेजों के हाथों सनातन को छद्म सनातनियों के शिकंजे में इस आर्य चिंतन को सांत्वना के छींटे डालकर भड़कने से रोकने की कोशिश करता रहा । मनमोहन के मौन ने भारतीय मध्यवर्ग को इस ऊहापोह से निकाला और सदियों बाद नरेन्द्र के रूप में आर्य संस्कृति को अपना नेता मिला।
मेरे इस आलेख का मतलब नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी के गलतियों को छिपाना या उनकी चापलूसी में विरुदावली गाना नहीं है। मेरा लक्ष्य मात्र यवन और ईसाइयत के व्यामोह से आर्य सत्ता के मुक्त होने की कहानी कहना मात्र है।
मेरा यह आलेख इस समकालीन सत्ता का महिमामंडन कदापि नहीं है और यह आलेख किसी भी सूरत में नोटबंदी के दुष्प्रभाव या लॉक डाउन की अनियंत्रित और अमानवीय परिस्थितियों के निर्माण के आरोप से कभी भी वर्तमान सत्ता को मुक्त नहीं करता है।
अनुच्छेद ३७० और ३५ ए का शिथिलीकरण, राम जन्मभूमि का विवाद उसी वामपंथी जजों की बेंच से करवाना और और उसी वाद पर पुनरीक्षण याचिका का निरस्त होना क्या आपको आर्य सत्ता के वर्चस्व की याद नहीं दिलाता है वरना हमारे न्यायाधीशों की बेंच ने तो बलात्कारियों के लिए भी देर रात तक रुक कर याचिकाओं की सुनवाई की है और कसाब जैसे आतंकवादियों के लिए भी दया याचिका पर विचार किया है। भारत के संयुक्त प्रांत में विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को खड़ा किए बगैर सत्ता पाना क्या आर्य विचारधारा की विजय नहीं है?
जो कांग्रेस वामपंथ के नक्सली स्वरूप को भी आसानी से स्वीकार कर लेती है और मध्यप्रदेश में नक्सलियों के स्थाई समानांतर सरकार को भी झेल सकती है वही वाली कांग्रेस आज भी इस आर्य विचारधारा वाली सत्ता के समक्ष बिखरती हुई सी क्यों दिखाई दे रही है। अपने पुराने सिपहसालारों के आगे किसी नए रंगरूट को जहाज का कप्तान बना देना कांग्रेस की उसी बौखलाहट का प्रतीक है। समान नागरिक संहिता की डगर पर अल्पसंख्यक पर्सनल कानून के विरुद्ध तीन तलाक का निरस्त होना भी आपको सनातन के वर्चस्व को दिखाएगा और राम मंदिर के भूमि पूजन में प्रधानमंत्री के द्वारा किया गया साष्टांग दंडवत समकालीन सत्ता के द्वारा सनातन को दिया गया हुआ वह उपहार है जिसके लिए आर्य संस्कृति और भारत इस दक्षिणपंथी विचारधारा का अनंत काल कृतज्ञ रहेंगे। तिलक तराजू और तलवार को जूते चार मारने वाली पार्टी अगर प्रबुद्ध सम्मेलन करवा रही है तो आपको इसमें आर्य सत्ता की महक आनी चाहिए । भारतीय गणराज्य का राष्ट्रपति अगर राम मंदिर के चंदे के लिए चेक काट रहा है तो आपको आर्य सत्ता की महक आनी चाहिए और नहीं आती है तो मान लीजिए कि आपको धर्म निरपेक्षता का कोरोनावायरस अंदर तक जकड़ चुका है। आप अध्ययन का आर टी पी सी आर करवाएँ और सनातन संस्कृति का वैक्सीनेशन लगवाएं और कभी मुमकिन हो तो अफगानिस्तान , पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति पर समाचार देखें तब यकीन मानिए आपको धर्मनिरपेक्ष का कोरोना कभी नहीं सतायेगा।
दो दो सौ साल पुरानी पार्टियों के मुखौटे को अपना गोत्र याद आ रहा है। जामा मस्जिद के शाही इमाम और दरगाह पर झुकते हुए सर आज मंदिरों में भी रुद्राभिषेक कर रहे हैं तो जब भी आप पलके बंद करेंगे आर्य संस्कृति के अधरों पर एक मुस्कुराहट महसूस करेंगे और इस मुस्कुराहट को साकार करने के लिए हेडगेवार और सावरकर से लेकर गोलवलकर, रज्जू भैया ,नानाजी देशमुख ,कल्याण सिंह कुशाभाऊ ठाकरे, मुरली मनोहर जोशी, उमाभारती, अशोक सिंघल , अटल और आडवाणी से होते हुए नरेंद्र और अमित तक के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
इस वर्तमान सत्ता को दोषमुक्त नहीं माना जा सकता है । राम राज्य भी सीता वनवास को कभी भी मानवीय आधार पर सही सिद्ध नहीं कर पायेगा परन्तु जब भी किसी विचारधारा के हाथों आर्यावर्त की सत्ता सौंपने की बात आयेगी तो आप किसे चुनेंगे …. अशोक वाटिका में तमाम सुख सुविधायें जुटाने का आश्वासन देती अनार्य संस्कृति को या एक आदर्श राज्य की स्थापना के लिये कल्पित लोकापवाद को भी हटाने के लिये अपने परिवार की आहुति देने वाली आर्य संस्कृति को।
उसी आर्य संस्कृति को आज नरेन्द्र पर गर्व है। इस व्यक्तित्व की तारीफ़ के लिये शब्द कम पड़ेंगे परन्तु अधोलिखित श्लोक प्रधानमन्त्री के कृतित्व जन्य प्रतिष्ठा को सहज हीं कर देगा …

नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने। विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता॥

अर्थात्-सिंह को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई अभिषेक किया जाता है, न कोई संस्कार । अपने गुण और पराक्रम से वह खुद ही (जंगल का राजा) मृगेंद्रपद प्राप्त करता है।

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