2021 के असम विधानसभा चुनाव CAA विरोधी आंदोलन की पृष्ठभूमि मे आयोजित किए गए थे, एक तरफ असम जातीय परिषद (AJP) और राइजोर दल जैसे नए क्षेत्रीय दलों का गठन हुआ और दूसरी ओर कांग्रेस-AIUDF-BPF तथा वाम दलों का गठबंधन। ऊपरी असम और गुवाहाटी शहर दोनों ही सीएए विरोधी  विरोध प्रदर्शनों के केंद्र थे, लेकिन भाजपा ने इन दोनों क्षेत्रों में शानदार जीत दर्ज की। चुनावों के नतीजों ने स्पष्ट रूप से साबित कर दिया है कि नवगठित पार्टियों ने चुनावों में कोई खासा प्रभाव नहीं डाला है, कम से कम ऊपरी और उत्तरी असम में स्थित 47 निर्वाचन क्षेत्रों में जहाँ 27 मार्च को पहले चरण में चुनाव में हुए थे। मतदाताओं के बीच एक सत्ता-समर्थक भावना  भी थी, जिसने  काफी हद तक एक कुलीन अल्पसंख्यक वर्ग के नेतृत्व मे CAA के विरुध्द आक्रामक ढंग से चलाये गए गलत सूचना अभियान के बावजूद भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को  मदद की। दूसरी ओर, कांग्रेस पार्टी  ने भाजपा के विरुद्ध  ‘सत्ता विरोधी ‘ भावना की क्षीण आशा पर अपने अवसरों की कल्पना की, जो काम करने में विफल रही।

ना तो CAA और ना ही AJP और राइजोर दल  जैसे  क्षेत्रीय संगठन, गंभीर चुनावी मुद्दे बन पाए। लेकिन, बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन (बीटीआर) से आने वाला संदेश इस बार और स्पष्ट तथा संदेहरहित  हो गया जहाँ यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) हैगरमा मोइलेरी के नेतृत्व वाले बोडलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के राजनीतिक  विकल्प के रूप में उभर रहा है। चुनावों के परिणामों ने साबित कर दिया है कि कुल मिलाकर, असम की जनता ने कांग्रेस पार्टी की सत्ता में आने के लिए AIUDF के साथ गठबंधन करने की नीति को खारिज कर दिया है। इस गठबंधन के कारण कांग्रेस पार्टी की उपस्थिति मुख्यतः निचले असम और बराक घाटी के मुस्लिम बहुल इलाकों में सीमित हो गई। कुल मिलाकर, AIUDF ने जिन 19 में से 16 सीटों पर (सभी मुस्लिम विधायक) चुनाव जीता है  वह  एक सोचनीय विषय है, विशेषकर उन क्षेत्रों के जनसांख्यिकीय समीकरणों के दृष्टिकोण से जहां से यह पार्टी जीती  है।

जहाँ 2016 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 126 सदस्यीय असम विधानसभा में 86 सीटें जीती थीं, इस बार कांग्रेस-एआईयूडीएफ गठबंधन के कारण, जिसने  मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अच्छा काम किया, ये  सीटें मामूली रूप से घट के 75 हो गई। कांग्रेस ने जिन 29 सीटों पर जीत दर्ज की है, उनमें से 16 मुस्लिम उम्मीदवारों की हैं। इस प्रकार 126 सीटों वाली असम विधानसभा मे  मुस्लिम विधायकों (कांग्रेस + AIUDF) की कुल संख्या 16 + 16 = 32 है। लोकसभा सदस्य और एआईयूडीएफ सुप्रीमो मौलाना बदरुद्दीन अजमल का असम में बंगाली भाषी मुसलमानों के समुदाय में खासा प्रभाव है, जो दशकों से बंगाली भाषी मुसलमानों की असामान्य रूप से बढ़ती संख्या के आधार पर अपने सांस्कृतिक और राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। यद्यपि  मौलाना अजमल ने समय समय पर  खुद को “धर्मनिरपेक्ष” और एक सर्वमान्य आसामी नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन यह तथ्य अभी भी बना हुआ है कि राज्य के चुनावी गणना में AIUDF की प्राथमिक शक्ति एक ऐसी पार्टी होने में निहित है, जो खुले तौर पर मुस्लिम घुसपैठियों  के समर्थन के खड़ी  होती है।

भाजपा विरोधी वोटों के विपक्षी ‘ग्रैंड अलायंस’ (कांग्रेस + एआईयूडीएफ + बीपीएफ + लेफ्ट) की तरफ हुए एकीकरण ने आखिरकार निचले असम और बराक घाटी में विधानसभा चुनाव के दूसरे और तीसरे चरण के दौरान एआईयूडीएफ के पक्ष में काम किया, जहां  बहुतायत मुसलमान रहते हैं। मध्य असम, निचले  असम, और बराक घाटी में उपस्थित जनसांख्यिकीय संरचना ने उन सीटों पर इत्र उद्योगपति  बदरुद्दीन अजमल की पार्टी को बढ़त प्रदान करने में मदद की, जहां वह मैदान में थी। इनमें से अधिकांश स्थानों की जनसांख्यिकी  भाजपा की चुनावी जीत के लिए बहुत प्रतिकूल है। यहां तक ​​कि उन सीटों पर जहां एआईयूडीएफ कांग्रेस के साथ एक ‘मैत्री प्रतियोगिता’ में थी, जैसे की  जलेस्वर, दलगाँव, चेंगा इत्यादि जहाँ  मुस्लिम जनसांख्यिकीय संरचना कारक मुख्य  था। अतः, भले ही मुस्लिम वोटों का विभाजन हुआ हो, लेकिन इससे बीजेपी की राह आसान नहीं हुई  को। एक अन्य ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण कारक यह है कि विगत वर्षों में, मुसलमानों ने भाजपा को हराने के प्राथमिक उद्देश्य के साथ ‘सामरिक मतदान’ की रणनीति को पूरी तरह से जान लिया है।

AIUDF और भाजपा के बीच मुकाबला ज्यादातर सीटों पर, जहाँ कांग्रेस और AIUDF के बीच कोई ‘मैत्री प्रतियोगिता’ नहीं था, काफी हद तक एकतरफा था। AIUDF को भाजपा-AGP गठबंधन या एजेपी और राईजोर दल जैसी पार्टियों से चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा। मतदान के समय मुसलमानों द्वारा अंधभावना के पक्ष में तर्क की अवहेलना, बाताद्रबा और मंगलदोई जैसे निर्वाचन क्षेत्रों में सबसे प्रमुख रूप से सामने आई है, जहाँ मुस्लिम आबादी बहुतायत  मे है और जहाँ कांग्रेस पार्टी की जीत हुई है। बाताद्रबा महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव की जन्मस्थली है, जहाँ भाजपा ने 2016 से राज्य के एक प्रमुख निर्वाचन क्षेत्र तथा  पर्यटन के लिए एक संभावित क्षेत्र के रूप में  विकसित करने के लिए बहुत समय और ऊर्जा का निवेश किया था। पीएम नरेंद्र मोदी भी जल्द ही प्रस्तावित नौगांव-धिंग फोर-लेन सड़क का उद्घाटन करने जा रहे हैं, जो समय और लागत दोनों को कम करके समाज के सभी वर्गों को बहुत लाभान्वित करेगा। यहां यह उल्लेख करना उचित है कि कांग्रेस के पूर्व दिग्गज नेता गौतम बोरा को पार्टी के टिकट से अंतिम समय में वंचित कर दिया गया था और कांग्रेस ने इस बार उनके स्थान पर नई  उम्मीदवार सिबमोनी बोरा को मैदान में उतारा था।

नागांव जिले के बाताद्रबा और धींग के क्षेत्रों में बांग्लाभाषी मुसलमानों की बड़े पैमाने पर घुसपैठ देखी गई है, और बाताद्रबा थान तथा  बाताद्रबा नामघर (असमिया हिंदुओं के धार्मिक उपासना स्थल ) की भूमि पर पिछले कई वर्षों में बड़े पैमाने पर अतिक्रमण हुआ  हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस की सिंबोनी बोरा भूतकाल  में  बाताद्रबा में खंड विकास अधिकारी के रूप में तैनात थीं। बाताद्रबा मे एक चुनावी रैली के दौरान उन्होंने खुले तौर पर कहा था कि जब उन्हें क्षेत्र के बीडीओ के रूप में चुनाव दायित्व सौंपा  गई थी, तो उन्होंने कई लोगों को बिना किसी सत्यापन के उनके नाम दर्ज करने दिए। उन्होंने यह चौंकाने वाला बयान यह साबित करने के लिए दिया कि एक सरकारी अधिकारी रहते हुए  तथा सक्रिय राजनीति में शामिल होने से पहले भी क्षेत्र के लोगों की ‘सेवा’ कर रही थी। असमिया समाचार चैनल द्वारा साझा किए गए एक वीडियो में, सिबमौनी बोरा ने संकेत दिया कि अगर कांग्रेस- AIUDF गठबंधन बाताद्रबा विधानसभा चुनाव नहीं जीतते तो वे अपने वोटिंग अधिकार खो सकते हैं, और इसलिए उन्हें बाताद्रबा से भाजपा की निवर्तमान विधायक अंगूरलता डेका के बजाय उन्हें वोट देना चाहिए। मंगलदोई क्षेत्र में भी, भाजपा के पूर्व विधायक गुरुज्योति दास ने भी पिछले पांच वर्षों में अपने निर्वाचन क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए बहुत सराहनीय कार्य किए थे, लेकिन  जनसांख्यिकीय असंतुलन के कारण वह कांग्रेस के बसंत दास के हाथों पराजित हुए।

चुनावों में कांग्रेस-AIUDF गठबंधन द्वारा शक्ति-प्रदर्शन करने के बावजूद, ऐसे कई कारक हैं जिन्होंने भाजपा को फिर से दिसपुर में सत्ता की बागडोर सौंपने में मदद की। शिक्षा के मोर्चे पर, सोनोवाल सरकार असम के विद्यालयों में असंतुलित शिक्षक-छात्र अनुपात, जो असमिया विद्यालयों का एक प्रमुख चिंतनीय विषय है, से निपटने के लिए उल्लेखनीय प्रयास कर रही है। यद्यपि स्कूलों  में  शिक्षकों की कमी को कम करने के लिए बहुत काम किया जाना बाकी है, पिछले पांच वर्षों के दौरान प्राथमिक, निम्न प्राथमिक, उच्च और उच्चतर माध्यमिक स्कूलों का एक व्यवस्थित प्रांतीयकरण किया गया था। इससे राज्य में बड़ी संख्या में शिक्षक लाभान्वित हुए हैं जो पिछले कई वर्षों से अनुबंध या तदर्थ आधार पर काम कर रहे थे। 5 फरवरी को, 2021 को सीएम सर्बानंद सोनोवाल द्वारा औपचारिक रूप से 16,484 शिक्षकों को नियुक्ति पत्र दिए गए थे, जिनके स्कूल प्रांतीयकृत कर दिए गए थे और अन्य 13,217 शिक्षक को भी नियुक्ति पत्र दिए गए थे जिन्होंने शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) के माध्यम से अर्हता प्राप्त की थी। यह राज्य की शैक्षिक प्रणाली में मौजूदा दोष को भरने की दिशा में एक बहुत आवश्यक और सकारात्मक कदम था।

भारतीय मजदूर संघ (BMS) के अथक प्रयासों की बदौलत, भाजपा ऊपरी असम के सात जिलों में फैले चाय बागान समुदाय के मतदाताओं के बीच भी एक प्रभावशाली बढ़त बनाने में सफल रही है। वास्तव में ऊपरी असम में प्रभाव बढ़ाने  की भाजपा की पूरी रणनीति 2016 में और 2021 में भी, चाय बागान श्रमिकों और मजदूरों के इस समुदाय के पूर्ण समर्थन पर आधारित  थी । कांग्रेस पार्टी ने इस तथ्य को अच्छी तरह से समझा है कि चाय बागान क्षेत्रों के उसके परंपरागत वोट बैंक में भाजपा द्वारा की गई सेंध स्थायी और अपरिवर्तनीय हो गई है। अपने पहले ही कार्यकाल में, राज्य की भाजपा सरकार ने चाय बागान श्रमिकों के प्रधानमंत्री जन धन योजना (PMJDY) योजना के तहत बैंक खाते खुलवा कर उनके साथ सामूहिक संपर्क स्थापित किया, इसके अलावा उनकी नकद राशि देकर भी मदद की। असम और पश्चिम बंगाल के चुनाव वाले राज्यों में चाय श्रमिकों के कल्याण के लिए 2021-22 के बजट में वित्त मंत्री श्रीमती  निर्मला सीतारमण द्वारा 1,000 करोड़ रुपये  का  बजटीय प्रावधान किए गया था। असम में चाय संघों ने इस प्रावधान को इस आधार पर  सराहा कि यह चाय बागानों के क्षेत्रों में आवास, शिक्षा, चिकित्सा और स्वच्छता सुविधाओं से संबंधित कल्याणकारी योजनाओं पर अधिक व्यापक स्तर पर सहायता प्रदान करने में लाभदायक होगा।

भाजपा केंद्र और राज्य दोनों की विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के तहत, राज्य भर में लाखों लाभार्थी बनाने में सफल रही , उदाहरणतया  प्रधानमंत्री उज्ज्वला  योजना, अरुणदोई आसोनी, स्वामी विवेकानंद असम युवा सशक्तिकरण योजना (SVAYEM) इत्यादि। हिंदी भाषी मारवाड़ी,और बिहार के छोटे-बड़े व्यापारियों का एक बड़ा वर्ग  ऊपरी असम के डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया जिलों में  सदैव से ही भाजपा के महत्वपूर्ण वोट बैंक रहे हैं। उल्फा विद्रोहियों द्वारा इन वर्गों पर किए गए अत्याचार उनके मानस में अभी भी अंकित हैं। इसलिए,असम में क्षेत्रीयता या जातिवाद को मजबूत करने का कोई भी आह्वान इस व्यापारिक समुदाय के हितों के अनुकूल नहीं है। ऊपरी असम की राजनीति पर नियंत्रण प्राप्त करने के इच्छुक राजनीतिक दल इस समुदाय को केवल अपने जोखिम पर नजरअंदाज कर सकते हैं।

असम विधान सभा, 2021 के चुनावों के परिणामों ने अगले पांच वर्षों के लिए राज्य में भाजपा तथा राष्ट्रीय गणतांत्रिक गठबंधन की स्थिति को और अधिक मजबूत किया है। लेकिन, नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (NRC) नाम की भारी भरकम प्रक्रिया अभी भी अनसुलझी है। यह प्रक्रिया अब भारत के रजिस्ट्रार जनरल (RGI) के साथ एक टकराव की स्थिति में आ गयी है  जिसने असम सरकार के शेष कार्य के पूरा होने के लिए वित्तीय सहायता जारी रखने अनुरोध को ठुकरा दिया है । RGI ने पूरे अभ्यास को पूरा करने में हुई “गैरजरूरी  देरी” को गंभीरता से लिया है, जिसमें कहा गया है कि राज्य सरकार द्वारा दिए गए प्रस्ताव में लंबित कार्य को पूरा करने और परियोजना को पूरा करने के लिए समय और लागत की व्याख्या नहीं की गई थी। एनआरसी से जुड़े ऐसे घटनाक्रमों ने राज्य सरकार को  कठिन परिस्थिति में डाल दिया है, क्योंकि वह उचित समय-सीमा के भीतर इस प्रक्रिया को आगे ले जाने में आवश्यक सक्रिय रुख का प्रदर्शन करने में विफल रही है। केंद्र अब NRC प्रक्रिया को पूरा करने की अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता है और किसी भी तरह से, असम के लोगों को आधे-अधूरे NRC को प्रस्तुत करके सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती है।

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