2021 की 3 जुलाई को जब आमिर खान और किरण राव की तलाक की खबर आई तो स्मृतियों में 15 साल पीछे चला गया। मेधा पाटकर याद आ गईं। उनका वो नर्मदा वाला आंदोलन और उसके पीछे छिपी मोदी घृणा याद आ गई। जंतर-मंतर याद आ गया। रंग दे बसंती याद आ गई। और याद आ गई वो दुबली-पतली लड़की जो शायद एम्स में लगे उस जमावड़े से सहज नहीं थी।यह सब 2006 में हो रहा था। केंद्र में वह सरकार थी जिसकी बागडोर पर्दे के पीछे से सोनिया गाँधी के हाथों में थी। तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए तरह-तरह के हथकंडों का दौर था। सोशल मीडिया बस आई थी तो ‘ट्रेंड’ वाला आज जैसा शोर नहीं था। ये प्रोपेगेंडा जिस रणनीति का हिस्सा थे उस ‘टूलकिट’ का भी शोर नहीं दिखता था। लेकिन जमीन पर तब भी हलचल होती थी।उस वक्त मेरा नाता देश की राजधानी से जुड़ा नहीं था। पत्रकारिता की शुरुआत हो गई थी। पर मुतमइन नहीं था कि यही करना है। राजनीतिक और सामाजिक गलियारों में जगह की तलाश थी। नियति का खेल था कि जब यह सब चल रहा था मैं दिल्ली आया हुआ था। उन सालों में जब भी दिल्ली आता तो जंतर-मंतर मेरा पसंदीदा ठिकाना होता। घंटों वहाँ बैठ देश के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग माँग लेकर पहुँचे लोगों को देखता, उनसे बतियाता। सबकी अपनी अलग-अलग कहानी। हर इलाका दूसरे से अलग। उन सालों के जंतर-मंतर के इन कुछेक दिनों ने बाद के सालों में राजनीतिक दृष्टि को बढ़ाने का काम किया।तो 2006 में जब मैं आया तो मेधा पाटकर का आंदोलन जंतर-मंतर पर चल रहा था। फिर खबर आई कि उनके समर्थन में आमिर खान आ रहे हैं। रंग दे बसंती के निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा और फिल्म के को-स्टार अतुल कुलकर्णी तथा कुणाल के साथ आमिर जिस दिन जंतर-मंतर पहुँचे थे, उस दिन शायद 14 अप्रैल थी। वहाँ वे कुछ देर प्रदर्शनकारियों के साथ बैठे। इस दौरान आमिर खान के चेहरे से पसीने टपकते रहे और वे मौन बने रहे। फिर वे एम्स गए जहाँ मेधा पाटकर भर्ती थीं। असल में मेधा पाटकर ने उपवास शुरू किया था और तबीयत बिगड़ने पर उन्हें एम्स ले जाया गया था।मेधा पाटकर से मिल कर जब आमिर बाहर निकले तो उनके साथ पहली बार किरण राव को देखा था। तब दोनों की शादी को कुछ महीने ही हुए थे। आमिर की मिस्टर परफेक्शनिस्ट की छवि गढ़ी जा रही थी। यह भी चर्चा थी कि लगान की शूटिंग के दौरान करीब आईं किरण राव की ‘बौद्धिकता’ से प्रभावित होकर आमिर ने पहली पत्नी को तलाक दे उनके साथ घर बसाने का फैसला किया था।एम्स में इस दंपती की बौद्धिकता की कोई झलक नहीं दिखी थी। किरण राव मीडिया के जमावड़े से नाखुश दिख रहीं थी और उन्होंने आमिर के कानों में कुछ फुसफुसाया भी था। फिर वे चलते बने। बाद में आमिर ने मेधा पाटकर की लाइन को आगे बढ़ाते हुए नर्मदा बाँध की ऊँचाई बढ़ाने का विरोध और विस्थापितों के लिए ‘लगान’ की माँग भी की थी।बाद में यह भी समझ आया कि आमिर खान का वहाँ आना मोदी विरोधी राजनीति के तहत एक स्ट्रेटजी थी। उसी तरह की स्ट्रेटजी जो हमने हाल के समय में जेएनयू पहुँची दीपिका पादुकोण के मामले में देखा था। फर्क यह था कि सोशल मीडिया का आज जैसा जोर न होने के कारण उस समय लगे हाथ प्रतिक्रिया का वैसा शोर नहीं था। पर बाद के सालों में मोदी का उदय बताता है कि तब भी लोग इन प्रपंचों को भली-भाँति समझ रहे थे।बाद के वर्षों में आमिर खान की परफेक्शनिस्ट वाले मुखौटे के पीछे छिपा असली चेहरा और हिंदूफोबिया कई मौकों पर सामने आया भी। किरण राव को तो इस देश में रहने से ही डर लगने लगा था।आज जब दोनों एक-दूसरे से ‘आजाद’ हो चुके हैं तो इस बौद्धिकता और उनकी मोदी घृणा को सलाम करिए, भले ही यह उनका निजी मसला हो।

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