खेती-किसान की आड़ में 26 नवंबर 2020 को उपद्रव का जो जमावड़ा राजधानी की दहलीज पर जमाया गया था उसका भाड़ा इस 26 जनवरी को फूट गया। लालकिले की प्राचीर पर तिरंगे के अपमान के बाद देशभर में उठी रोष की लहर में वे सारे तर्क बह गए जो कथित किसानों को आगे कर ‘इच्छाधारी’ आंदोलनकारियों ने गढ़े थे। भाजपा का विरोध, प्रधानमंत्री जी का विरोध, संसद का विरोध, न्यायपालिका का विरोध.. हर मौके, मुद्दे और मंच पर भारत से बैर-विरोध के लिए पल-पल नारे और बैनर बदल लेने वाले चेहरों को ‘इच्छाधारी’ नहीं तो और क्या कहें? इन देशविरोधी लामबंदियो को अब यह देश पहचानने लगा है। इस घटना ने सिद्ध कर दिया कि जिसे लोकतांत्रिक आंदोलन का नाम दिया गया वास्तव में वह एक ढकोसला भर था। कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो सकती है किन्तु सत्य वहीं है, क्योंकि लोकतंत्र की परिधि में आंदोलन सिर्फ शब्द या ठप्पे से बड़ी चीज है। दिल्ली दंगों की पृष्ठभूमि रचता शाहीनबाग का सड़क धरना या अन्नदाता के नाम पर अराजक उपद्रव, इस तरह के राजनितिक प्रयोगों को आप हिंसक हुल्लड़बाजी कहें तो कहें, यह ‘आंदोलन’ कतई नहीं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी आंदोलन के लिए कुछ कंसोटिया कुछ मापदंड होते हैं। उदाहरण के लिए- आंदोलन की पहली आवश्यकता है- मुद्दा उसकी दुसरी जरूरत है- जनाधार तीसरी महत्वपूर्ण शर्तें हैं- नेतृत्व और चौथी रेखांकित कि जाने वाली बात है- निर्दिष्ट प्रकिया का पालन। पहले बात मुद्दे की। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि दस-दस बार सरकार से ‘कथित’ किसानों की वार्ता विफल होने का कारण क्या है यही की मुद्दे के नाम पर शून्य बुद्धिजीवियों में से कोई यह बताने की स्थिति में नहीं की जब किसान से कुछ लेने की बजाय फ़सल बेचने की अतिरिक्त वैकल्पिक व्यवस्था दी जा रही है। कहना जरूरी नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र को अपमानित करने का सपना पालने वालों को यह समीकरण भारी पड़ने वाला है, क्योंकि शत्रु चाहें जितने हो, जब राष्ट्रN एक होता है हर चक्रव्यूह बिखर जाता है
?आप का अपना भाई ? SOMVIRSHEORAN

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.