यह पोस्ट में किसी राजनीतिक पार्टी विचारधारा या व्यक्ति विशेष की तुष्टीकरण आदि के लिए नहीं कर रहा हूं।
इस कानून के बनने और निरस्त होने के बीच में देश ने जो कुछ खोया है या देश की जनता ने जो कुछ खोया है ,उसकी भरपाई के लिए देश के द्वारा , देश का मतलब राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अगर निम्नांकित कदम उठाया जाए तो आगे से ये बात निश्चित हो सकती है कि किसी भी धरना , रैली और सामूहिक विरोध के दौरान आम आदमी और राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की कोशिश न्यूनतम हो जाएगी।
मेरे अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को स्वतः संज्ञान लेकर पहले संसद की कार्यवाही में जिन जिन लोगों ने कृषि कानूनों का विरोध नहीं किया था या समर्थन किया था उन सबको इस आंदोलन की अवधि में होने वाली सारे नुकसान के लिए जिसमें राष्ट्रीय संपत्ति, व्यापार- व्यवसाय, लोगों के आवागमन में जानबूझकर अवरोध उत्पन्न करने के कारण हुए नुकसान का एक निष्पक्ष आकलन करके जो भी रकम तय होती है वह इन सारे सांसदों के निजी संपत्ति से आनुपातिक रूप से काटा जाए।
दूसरी कदम में ये उचित होगा कि जिन जिन राजनीतिक दलों ने इस कृषि कानून का विरोध किया और राज्यों की सीमाओं पर तथाकथित भीड़ जुटाकर देश की राजधानी की सांसे रोक दी , उन सबको भी उन १४ महीनों में हुए सार्वजनिक नुकसान के लिए भी उत्तरदायी बनाया जाए और तदनुरूप निर्धारित रकम को उन सांसदों के निजी फंड से या पार्टी के कोष से निकालकर भरपाई की जाए।

तीसरे कदम के रूप में संयुक्त किसान मोर्चा से यह पूछा जाए कि अगर यह किसान मोर्चा था तो इसमें खालिस्तानी झंडे और अल्लाह हू अकबर जैसे नारे क्यों लगे जबकि सब ये मानेंगे कि इस भारत में मुस्लिम किसान इतने तो नहीं है कि भीड़ में उन्हें अपने समर्थन के लिए अपने धार्मिक प्रतिमान का प्रयोग करना पड़े।
यूँ तो अल्लाह हू अकबर कहना तो कोई देश विरोधी नारा नहीं है परंतु किसान मोर्चे में अगर भजन सबद , बाइबिल, अवेस्ता का पाठ होता या कव्वाली होती तो यह अल्लाह हू अकबर उतना नहीं चुभता।
परंतु खालिस्तानी झंडे और यह नारा कुछ षड्यंत्र कारी कॉकटेल का नजारा पेश करता है।
तो इस संयुक्त किसान मोर्चा से उन लोगों की सूची मांगी जाए जिन्होंने झंडे लहराए या अल्लाह हू अकबर के नारे लगाए और ट्रैक्टर रैली के दिन जिन जिन लोगों ने भी जान माल का नुकसान सहा है उन सब की भरपाई यह संयुक्त किसान मोर्चा अपने उन उत्साही सदस्यों की मदद से करें।

इन रैलियों में सुविधाएं मुहैया कराने वाली जैसे चलंत शौचालय , रोटी वेंडिंग मशीन, बिरयानी, जिम आदि उपलब्ध कराने वाली पार्टी संगठन या समूह को भी निशाने पर लिया जाए और यदि इन सहूलियतों में राष्ट्रीय धन का उपयोग हुआ हो तो उस संगठन के निजी कोष से उसे भारतीय राजकोष में जमा करवाया जाए ।

योगेंद्र यादव जैसे चिंतकों को भी इस पूरे १४ महीनों में हुए नुकसान के लिए उत्तरदायी बनाना चाहिए। जिस जिस राजनैतिक चेहरे ने इन धरना प्रदर्शनों में अपनी उपस्थिति दर्ज की उन पर भी उचित आर्थिक दंड लगाया जाए और साथ-साथ उनसे यह भी शपथ पत्र लिया जाए कि भविष्य में वे कभी भी ऐसे जन विरोधी कार्यक्रमों का हिस्सा ना बने। यह शपथ पत्र उन सब समूहों, राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक संगठनों से भी लिया जाए।

लेकिन सबसे पहले भारत सरकार के मंत्रियों सांसदों और उन विधायकों से भी आर्थिक दंड वसूला जाए जिन्होंने इसका समर्थन किया था क्योंकि प्रधानमंत्री और संसद ने तो २ दिन की नूरा कुश्ती के बाद यह कानून वापस ले लिया परंतु १४ महीनों तक इस भारत की छाती पर जो मूंग दले गए उसके लिए क्या इन राष्ट्रीय चेहरों को दंडित करना सर्वोच्च न्यायालय के लिए उचित नहीं है?

अगर आप पाठकों में से भी किसी ने इस कानून का समर्थन करके सरकार के कृत्य का समर्थन किया है तो प्रायश्चित के रूप में आप सभी कुछ ना कुछ करें।

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