कृष्ण समग्रता के ईश्वर हैं। कृष्ण राम की तरह न तो अपनी पत्नी की अग्निपरीक्षा लेते हैं और ना ही अपने भाई का परित्याग करते हैं। कृष्ण न अपने माता-पिता की किसी प्रतिज्ञा के कारण किसी स्थान का परित्याग करते हैं और ना ही नित्य प्रति माता पिता के चरण स्पर्श से अपने दिन की शुरुआत करते हैं। कृष्ण ना कभी स्वयंवर में अपनी उपस्थिति दर्ज कर किसी स्त्री को अपने चयन का अधिकार देते हैं और न हीं किसी समर्पिता के आर्त आह्वान को अनदेखा करते हैं।
वे राधा से प्रेम करके भी विवाह नहीं करते और रुकमणी से प्रेम ना करते हुए भी उसका अपहरण कर के विवाह करते हैं। जब सत्यभामा से विधिवत विवाह करते हैं तो एक पत्नी पीड़ित पति की तरह इंद्र से युद्ध कर के पारिजात वृक्ष भी ले आते हैं और जब तक बुलाया न गया तो युधिष्ठिर को अपनी पत्नी दांव पर लगाने से भी नहीं रोकते।
वे अगर राधा से प्रेम करते हैं तो मथुरा की कुब्जा को भी उसी गरिमा के साथ स्वीकारते हैं। जिस इंद्रादि
देवताओं की सहायता के लिए अवतरित होते हैं उसी इंद्र की गोवर्धन पूजा के नाम पर ऐसी तैसी कर देते हैं, क्योंकि उन्हें इंद्र के समर्पण का भी पता है इंद्र के घमंड का भी।
वे राम की तरह माया मृग से भ्रमित नहीं होते और न हीं युद्ध में धर्म स्थापना के लिए असत्य बोलने से परहेज़ करते हैं।
अपने धर्म पिता नंद के सम्मान की रक्षा करते हुए हुए राधा को स्वीकारते नहीं परंतु नरकासुर के वध के बाद वहां हरण करके रखी हुई विभिन्न परिवार की १६१०० बहू और बेटियों को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं। ना तो उनके पति पिता या भाई की मर्जी की परवाह करते हैं और ना ही समाज के बंधनों की। वजह एक है कि कृष्ण पूरी परिस्थितियों को समग्रता के साथ स्वीकार करते हैं। उन्हें सामाजिक मान्यताओं के अनुसार राधा भी अस्वीकार है परन्तु १६१०० स्त्रियां भी उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार है और इस पर वे समाज की राय भी नहीं मांगते।
जब कृष्ण बांसुरी बजाते हैं और रास रचाते हैं तो अपने ईश्वरत्व को भूल कर एक सामान्य ग्वाल बाल की तरह आचरण करते हैं परंतु जब धर्म की स्थापना के लिए कुरुक्षेत्र के महासमर में कदम रखते हैं तो हाथों से मुरली हट जाती है और घोड़े की लगाम आ जाती है। घोड़े की हिनहिनाहट और हाथियों की चिंघाड़ के बीच उनकी मुरली की धुन विश्व के सर्वश्रेष्ठ दर्शन गीता के श्लोक बन जाती है क्योंकि कृष्ण को मुरली की धुन भी समग्रता के साथ स्वीकार है और रण का उद्घोष भी उसी समग्रता के साथ स्वीकार है।
जहां राम मर्यादा के बंधन में बंधे दिखते हैं वही कृष्ण अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ संकल्पित और सदैव बंधनमुक्त दिखते हैं। उन्हें न समाज के बने बनाए नियमों से डर लगता है और न वे किशोरावस्था के भावुक प्रेम के बंधनों में जकड़े हुए दिखाई देते हैं।
वे अगर रुकमणी के इच्छानुसार उसका अपहरण करते हैं तो अपनी बहन सुभद्रा का अपहरण होने देते हैं अर्जुन के हाथों।
वह सर्वशक्तिमान होते हुए भी अपने भांजे अभिमन्यु की मृत्यु होने देते हैं परंतु उसी के पुत्र परीक्षित को ब्रह्मास्त्र के प्रकोप से भी बचा लेते हैं क्योंकि उन्हें समय की मांग का पता है और प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक घटना को और प्रत्येक परिस्थिति को समग्रता के साथ स्वीकार करने की क्षमता भी है।

वाणी थक सकती है परंतु कृष्ण की समग्रता का वर्णन समाप्त नहीं हो सकता। इसलिए अंत में बस
कृष्णं वंदे जगदगुरूम् ।।

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