गुरुओं के प्रकार

वैद्य तीन प्रकार के होते हैं – अच्छे, मध्यम और कनिष्ठ। कनिष्ठ चिकित्सक वह होता है जो नाडी देखकर ‘दवा लो’ कहकर चला जाता है और यह नहीं पूछता कि मरीज दवा ले रहा है या नहीं। जो चिकित्सक रोगी को दवा न लेते हुए देखता है, उसे विभिन्न मीठे शब्दों में समझाता है, ‘यदि आप दवा लेते हैं, तो आप ठीक हो जाएंगे’, वह हो गया मध्यम चिकित्सक और ऐसा चिकित्सक जो यह देखकर कि रोगी कोई दवा नहीं ले रहा, उसकी छाती पर घुटने टेककर उसे दवा लेने के लिए मजबूर करता है उसे सबसे अच्छा चिकित्सक कहना चाहिए । उसी प्रकार जो गुरु या आचार्य उपदेश देने के बाद शिष्यों से प्रश्न नहीं करते हैं, वे आचार्य या गुरु कनिष्ठ बन जाते हैं। शिष्यों को उनके कल्याण के लिए निर्देश प्राप्त करने में सक्षम होना चाहिए, इसलिए वह उन्हें बार-बार समझाते हैं और उनसे प्रेम करते हैं वो हो गये मध्यम गुरु; लेकिन यह देखकर कि शिष्य उचित ध्यान नहीं देते हैं या ठीक से व्यवहार नहीं करते हैं, तब आचार्य प्रसंग आने पर योग्य कृती करने के लिए जोर जबरदस्ती करते हैं , वह सर्वश्रेष्ठ आचार्य है।’ अर्थात यह जोर-जबरदस्ती स्थूल माध्यम से नहीं अपितु सूक्ष्म से की जाती है, तो औसत व्यक्ति के ध्यान में नहीं आता ।

आंतरिक गुरु और बाहरी गुरु: ‘आंतरिक गुरु और बाहरी गुरु में बहुत अंतर नहीं है। बाहरी गुरु की जो आप पूजा कर रहे हैं, वह वास्तव में आपके हृदय में गुरु तक पहुंचती है। आप अपना हृदय परमात्मा को अर्पित करते हैं; आप उसके लिए जो कुछ भी करते हैं, आपको आंतरिक रूप से लाभ होता है। गुरु गीता में यह भी कहा गया है कि सहस्रदल-मंडल के त्रिभुज में आंतरिक गुरु का वास होता है –

“अकठादित्रिरेखाब्जे-सहस्रदल मंण्डले। हंसपाश्र्वत्रीकोणे च स्मरेत्तन्मध्यगं गुरुम् ।। 58. “

यह आंतरिक गुरु सहस्र सूर्य के समान उज्ज्वल है; अंतर यह है कि बाहरी सूर्य प्रकाश के कारण गर्मी उत्पन्न करती है; लेकिन भीतर के गुरु का प्रकाश शीतल है। हर कोई जो ध्यान की उच्च अवस्था को प्राप्त करता है, उसको अंतरगुरु के दर्शन होते हैं । सहस्रदल के दिव्य प्रकाश में, लगातार चमकते नीले बिंदु के रूप में गुरु वास करते है। अपने भीतर के गुरु की सच्चाई को समझने का अर्थ यह अहसास होना है कि हम जिस बाहरी गुरु की पूजा कर रहे हैं, वह आंतरिक गुरु से अलग नहीं है।’

एक बार जब अंतर्ज्ञान जागृत होता है, तो यह स्वयं गुरु कृपा बन जाता है और मार्गदर्शन करना शुरू कर देता है। वह अंतर्ज्ञान तब तक मार्गदर्शन करता रहता है जब तक हम पूर्णता की ओर नहीं पहुंचते। अंत में यह अनुभव होता है ‘हम परिपूर्ण हैं और इससे पहले भी हम परिपूर्ण थे’। 

संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ ‘गुरुकृपायोग’

चेतन राजहंस,राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था

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