जैसे तैसे अक्षय रेलवे स्टेशन पहुंचा, ट्रेन के हॉर्न की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी. प्लेटफोर्म पर पहुंचा तो ट्रेन आ ही पहुंची थी, बस सबसे नज़दीक वाले कोच में चढ़ कर बैठ गया.     बैठते ही कुछ अटपटा सा लगा था …….. पर अब ट्रेन धीरे धीरे खिसकने लगी थी, शक़ तब यक़ीन में बदल गया जब ट्रेन एक छोटे से स्टेशन पर रुकी, वो ट्रेन से उतरा और उसने गौर से ट्रेन का नाम पढ़ा, अब उसे समझ आया क्या अटपटा था, वो हटिया गोरखपुर एक्सप्रेस की बजाये हटिया धनबाद पैसेंजेर पर सवार हो गया था.     ट्रेन अनमने ढंग से चलती थी और ख़ुशी ख़ुशी रुक जाती थी. पैसेंजेर ट्रेन का जीवन मानो रफ़्तार में नहीं ठहराव में हो जैसे.     अगले स्टेशन पर ट्रेन जैसे ही ख़ुशी ख़ुशी रुकी, झट एक लड़का अन्दर आ गया उसके हाथ में एक टोकरी थी संतरे बेच रहा था, संतरे भी वो की जैसे इनसे छोटे आपको शायद ही कहीं दिख जाएँ, या फिर ऐसा भी की नींबू को ही आरज़ू मिन्नत कर के संतरा बन जाने को कहा गया हो.     बगल में खिड़की वाली ओर दो बुज़ुर्ग बैठे थे, उनमे एक सीधा सादा तो दूसरा शक्ल से ही होशियार चंद दिख रहा था.     खैर “शराफत अली” जी ने छः संतरे लिए और अपने बैग की ज़िप खोल के उस के अन्दर रखने लगे.     

होशियार चंद को रहा न गया – “ संतरा ट्रेन में खाने के लिए न लिए हैं जी, फिर बैग्वा में काहे रख रहे हैं?”

शराफत अली – “ घर के बच्चों के लिए है, देखते ही उनको उम्मीद रहती है कि दादाजी कुछ तो ज़रूर लाये होंगे.”

होशियार चंद  – “ छः पोता-पोती है आपका ?”

शराफ़त अली – “नहीं तीन है, दो पोता और एक पोती.”

होशियार चंद – “मतलब तीनों के लिए दो-दो लिए हैं?” (अक्षय अब तक इनकी अकलमंदी का क़ायल हो चुका था.)

शराफत अली- हाँ.

अब ट्रेन बे मन चलने को तैयार थी, बार बार हॉर्न बजा कर सवारियों को ललकार रही थी, कोई तो रोक ले. जितने स्टेशनों पर ट्रेन रूकती हुई जा रही थी उन में से कई के नाम तो अक्षय ने कभी सुना ही नहीं था. बस ये रुकने चलने का सिलसिला चल ही रहा था. एक बुज़ुर्ग सा पुरुष मूंगफली बेचता हुआ आ गया.होशियार चंद हसरत भरी निगाह से मूंगफली की टोकरी को देख रहा था, पर शराफत अली का ध्यान कहीं और था. और जैसा की अक्षय ने सोचा था.

होशियार चंद शराफत अली से कह ही बैठा “ पांच रूपया का बादाम लीजिये न.” ( धरती के इस छोर पे मूंगफली को बादाम भी कहते हैं, अच्छी चीज़ों के कई कई नाम हुआ करते हैं.)

और शराफत अली तो जैसे अहिंसा के पुजारी थे, शब्दों की भी अहिंसा, तुरंत अपनी जेबें टटोलने लगे, कहीं से एक का कहीं से दो का सिक्का मिला के पांच रुपये मूंगफली वाले को दिए, और फिर दोनों मूंगफली खाने लगे.शराफत अली बड़ी सावधानी से एक एक फली उठा के उसको उँगलियों से तोड़ते फिर दानों के ऊपर की गुलाबी परत को रगड़ कर हटाते तब मुंह में डालते.वहीँ दूसरी ओर होशियार चंद ताबड़ तोड़ खाए जा रहा था, चुन ने में या साफ़ करने में बिना वक़्त गंवाए, जैसे कोई विश्व रिकॉर्ड तोड़ के ही दम लेगा.थोड़ी देर में मूंगफली भी ट्रेन की रफ़्तार की तरह ख़त्म हुई.बीसियों स्टेशनों पे रूकती हुई ट्रेन आगे बढ़ रही थी.अब ये तो नहीं कहा जा सकता कि ट्रेन सरपट दौड़ रही थी हाँ ये ज़रूर है की ट्रेन की रफ़्तार देख सर पटकने को मन कर रहा था. शराफत अली और होशियार चंद दोनों को ही बोकारो स्टेशन पर उतरना था. होशियार चंद के पास वक़्त बहुत कम रह गया था……….

होशियार चंद ने कहा “ मूंगफली नहीं खाना चाहिए था, और भूख लग गया.” जी हाँ दुनिया के इस छोर पे भूख लगता है, हम हैं, हमारी भूख है, अब लगता है की लगती है ये तो हम ही न बताएँगे.  जब यहाँ क़ानून का राज नहीं चलता है तो व्याकरण?

शराफत अली- “पर अब तो कुछ मिल नहीं रहा है, घर जा के खा लीजियेगा.

”होशियार चंद – “हम लोग के पास तो संतरा भी है न.”   होशियार चंद की चतुराई अक्षय को चकित कर रही थी.
( “हम” शब्द का प्रयोग सुन कर अक्षय के होठ पे एक मुस्कान आ गयी. स्कूल की हिंदी पाठ्य पुस्तक में एक कहानी थी “ चचा छक्कन ने केले खरीदे” )

शराफत अली – “नहीं-नहीं वो बच्चा लोग के लिए ख़रीदे हैं.”

होशियार चंद- “घर पहुँचते पहुँचते रात हो जाएगा, और एक एक काफी है, हम लोग  तीन संतरा खा सकते हैं.”

शराफत अली खामोश हैं.

होशियार चंद – “अरे निकालिए न , बहुत सोचते हैं.”

भारी मन से शराफत अली बैग से तीन संतरे निकालते हैं.होशियार चंद झटपट एक संतरा छील कर खाने लगता है.पर शराफत अली को बच्चों के हिस्से के संतरे खाने की इच्छा नहीं है, वो चुप चाप बैठे हैं. होशियार चंद अब दूसरे संतरे पर हमला कर चुके हैं. शराफत अली ने महसूस किया की अगर उन्होंने संतरा नहीं उठाया तो ये तीनों हजम कर देगा, इसलिए बे मन उन्होंने एक उठा लिया और धीरे धीरे खाने लगे.

होशियार चंद- “बहुत मीठा संतरा है, पर इतना छोटा, दो से मन नहीं भरा और निकालिए, रात में कोई खायेगा नहीं और सुबह तक इतना स्वादिष्ट थोड़े ही रहेगा.”

होशियार चंद मानव मनोविज्ञान में सिगमंड फ़्रोइड का भी बाप लग रहा था.लगातार दबाव बने रहने पे थक के शराफत अली ने बाकी के तीन संतरे भी बैग से निकाले और सीट पर रख दिए, चेहरे पे गुस्सा साफ़ दिख रहा था पर होशियार चंद संतरे को देखे या इनके चेहरे को.और बात-बात में उसने बाकी के संतरे भी “देख” लिए. शराफत अली अब गुस्साए दिखने की बजाये दुखी नज़र आ रहे थे.लेकिन होशियार चंद तो अपने मनोरथ को सिद्ध कर चुका था. ट्रेन भी अब बोकारो स्टेशन में प्रवेश कर चुकी थी, दोनों उतरने के लिए खड़े हुए पर शराफत अली  के व्यव्हार में तल्खी स्पष्ट नज़र आ रही थी.
Moral of the story:  Some stories, like some people, are without morals.

Ashwini Singh,

Ranchi.

22 Sept 2021.

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.