जाति व्यवस्था पर हमारे समाज में अत्यधिक भ्रम उत्पन्न किया गया है। इतने वर्षों के घोषित अघोषित दासता काल में हिन्दू सभ्यता के विरुद्ध अनेक षड्यंत्र किये गए हैं। जैसे वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित षड्यंत्र है caste system। एक षड्यंत्र और है, की वर्ण व्यवस्था स्वीकार है किन्तु जाति व्यवस्था अस्वीकार है।
आज के आधुनिक काल में वैदिक दृष्टि अर्थात समझ का धीरे-धीरे लोप हो रहा है। जाति के गूढ़ सिद्धांत एवं अनुपालन परंपरा को आप आधुनिक विज्ञान एवं पाश्चात्य दर्शन की सतही दृष्टि से नहीं समझ सकते।
जाति व्यवस्था क्या है ?
जीव के जन्म से मिलने वाली पहचान ही जाति है। जाति व्यवस्था व्यक्ति की पहचान का निर्धारण एवं संगरक्षण करती है। जीव के गुण सूत्रों के आधार पर ही उसकी पहचान होती है। जीव के गुण सूत्रों, गुण धर्म एवं प्रकृति की सर्वांगीण समझ (multi -dimensional study), वह प्रत्येक मानक जिनसे जीव की सम्पूर्ण पहचान विकसित होती हो, के आधार पर ही जाति व्यवस्था का विकास किया गया ह
जाति व्यवस्था में पूर्व कर्मानुसार परिणाम स्वरुप मिला जन्म, आपकी जाति निर्धारण करता है। जीव के अलौकिक संसार से भौतिक संसार तक, उसकी पहचान की प्रणाली एवं मूल गुणधर्म के संगरक्षण की व्यवस्था ही जाति व्यवस्था है। जाति व्यवस्था में एक प्रकार की वर्गीकरण प्रणाली भी है जैसे मनुष्य जाति , पशु जाति, पुष्प की जाति – प्रजाति, देव जाति, दानव जाति, आदि।
वेदों के सैद्धांतिक आधार से उत्पन्न जाति व्यवस्था महाभारत, रामायण, मनु स्मृति आदि में वर्णित है। जन्म/जाति के अधिकृत वर्ण है, वर्ण के अधिकृत आश्रम है, वर्णाश्रम के अधिकृत कर्म है, कर्म के अधिकृत जीव की गति है।जन्म पश्चयात कर्म एवं जन्म से प्राप्त गुण के प्रभाव से जीव अपनी गति सुधार सकता है।
प्रकृति निर्धारित करती है की आपका जन्म कहाँ होगा, किस परिवार में होगा, किन परिस्तिथियों में होगा आदि। आप स्वयं तो निर्धारित नहीं कर सकते, यह अटल सत्य है।
वैदिक विज्ञान, सनातन (eternal rules) सिद्धांतों पर स्थापित है, यह प्रत्येक जीव की अद्वितीय विशेषता एवं विलक्षणता को पूर्ण रूप से समझता है। वैदिक विज्ञान जीवन क्रम-विकास (evolution) गति में होने वाली प्रकृति प्रदत्त विकृति (mutation ) को भी गूढ़ता से समझता है। प्रकृति के रक्षण हेतु, मानव जाति के स्वास्थ्य संवर्धन हेतु, हमारे पूर्वज जाति व्यवस्था को हिन्दू संस्कृति में गूढ़ता के साथ बुन कर, गूथ कर गए है।
चलिए कुछ सरल भाषा में समझने का प्रयास करते है
जैसे सामान्यतः संतान में आप माता पिता की छवि सरलता से देखते हैं। कभी कभी आपने सुना होगा की कोई कोई बच्चा बिलकुल अपने दादा दादी पर गया है , स्वभाव हो या रंग रूप। ऐसा क्यों होता है आप कहेंगे DNA , हाँ यही genetic memory है। इसी genetic मेमोरी से, जब कोई शारीरिक व्याधा संतान को प्राप्त होती है उसे ही genetic disorder कहते है।
आधुनिक विज्ञान अनुवांशिकी को कुछ सीमा तक समझता तो है , किन्तु genetic disorder से बचाव का कोई उपाय इसके पास नहीं है। वहीं वैदिक विज्ञान अनुवांशिकी को सूक्ष्मता से समझता भी है एवं बचाव की प्रणाली भी लाखों वर्ष पूर्व ही विकसित भी कर चुका है इसे हम जाति व्यवस्था के रूप में जानते हैं। सामान्य भाषा में आपने इसे “रोटी बेटी का संबंध” बोलते हुए कितनी ही बार सुना होगा।
प्रकृति प्रदत्त भेद जीव व्यवहार के साधन है। स्त्री पुरुष में प्राकृतिक भेद है। प्रत्येक मानव या जीव के गुणसूत्र भी एक दूसरे से भिन्न होते है। उदाहरण के लिए सभी मनुष्यों की हस्तरेखा भिन्न होती है । प्रकृति स्वयं ही प्रत्येक जीव को नैसर्गिक विशेषता प्रदान करती है, उसी विशेषता को बनाये रखने एवं मानव कल्याण हेतु हिन्दू समाज ने एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में स्थापित किया है , जिसे हम सभी जाति व्यवस्था कहते है ।
जाति व्यवस्था के लाभ
१. जाति व्यवस्था अनुवांशिक गुणों को संरक्षित करने के साथ साथ ही अनुवांशिक रोगो से बचाव का सबसे उपयुक्त उपाय है। (बेटी सम्बंधित)
यह तो आधुनिक विज्ञान भी मानता है। हिन्दू समाज में अंतरजातीय विवाह पर निषेधाज्ञा है। यह एक सरल किन्तु प्रभावी समाधान है अनुवांशिक रोगो से बचाव का।
बनिया वैश्य जाति व्यवसाय के लिये प्रसिद्ध क्यों है। गौरखा क्षत्रिय जाति शौर्य एंव युद्ध कौशल के लिये प्रसिद्ध क्यों है।गाड़िया लौहार शुद्र जाति अपनी प्रतिज्ञा एंव लोहे के धातु कौशल के लिये क्यों प्रसिद्ध है । ब्राह्मण अध्ययन क्षेत्र के लिये क्यों प्रसिद्ध है। क्योंकि ये उनके नैसर्गिक अनुवांशिक गुण है।
२. जाति व्यवस्था भारत के उद्योग जगत की नींव भी है। (रोटी सम्बंधित) इससे गूढ़ कौशल क्षमता पारिवारिक ईकाई से होती हुई नई पीढ़ी को मिलती है।
आधुनिक शिक्षा प्रणाली में, हम विद्यालयों में शिक्षक एवं छात्रों के अनुपात पर चिंता करते रहते है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली समाज के प्रत्येक व्यक्ति को जीविका एवं सामन्य स्तर की शिक्षा प्रदान करने में सक्षम नहीं है। किन्तु जाति व्यवस्था “जन्म से ही व्यक्ति की जीविका संरक्षित करती है” एवं “सृष्टि को समर्पित सामान्य मनुष्य जीवन से सम्बंधित ज्ञान” की व्यवस्था भी करती है। जाति परंपरा में आपको आपने परिवार से ही शिक्षक प्राप्त हो जाते है। जैसे उदाहरण के लिए एक लौहार जाति है, जिस प्रेम समर्पण से लौहार के कार्य से सम्बंधित समस्त ज्ञान एवं अनुभव, एक लोहार पिता अपनी संतान को देगा, क्या ठीक वैसा समर्पण प्रेम से भरपूर ज्ञान कोई आधुनिक शिक्षक अपने छात्र को सामन्यतः दे सकते हैं ।
आधुनिक युग में copyright या patent करके ज्ञान को संगरक्षित एवं आरक्षित कर लिया जाता है, अंत में royalty के नाम पर बेच कर खूब ज्ञान का व्यापार होता है। किन्तु जाति व्यवस्था में ऐसा नहीं है। जाति व्यवस्था में उपभोग की वस्तु का व्यापार मान्य है किन्तु ज्ञान का दान किया जाता है व्यापार नहीं। किसी उद्योग की विशेषता उसके पारंपरिक श्रमिक भी होते है। जैसे की जेवर का घेवर प्रसिद्ध मिष्ठान है , मिथिला की मधुबनी प्रसिद्ध कला है आदि। आज के आधुनिक युग में मिष्ठान या मधुबनी कला कहीं भी बनाई जा सकती है किन्तु उसकी उत्पति के पारम्परिक स्थान या जाति से प्राप्त उपभोग की वस्तु का मूल्य बढ़ जाता है । क्योंकि वस्तु की विश्वसनीयता स्वाभाविक रूप से अधिक हो जाती है। आज भी प्रचलित है व्यापार में की ” हम यह कार्य तीन पीढ़ी से, कोई चार पीढ़ी से, कोई सात पीढ़ी से करते आ रहे हैं”। जाति व्यवस्था में भावनाओं एवं समर्पण से ज्ञान का संगरक्षण किया जाता है जैसे जाति विशेष में ही वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ना, अंतर जातीय विवाह को निषेद्य किया गया है। इससे copyright की आवश्यकता नहीं है।
आज के आधुनिक युग में आप bank के पास जाते है आपने startup के पूंजी निवेश के लिए , कितने ही उधार NPA बन जाते हैं , अर्थात लोग bank का उधार नहीं चुकाते और देश के banking system को करोड़ों की चपत लगती है। परन्तु जाति व्यवस्था में आप अपने उद्योग के लिए पूंजी अपनी जाति में से ही अर्जित कर सकते है, क्योंकि जाति में सभी लोग व्यक्ति से परिचित होते है तो एक सामाजिक निंदा एवं बहिष्कार का विचार उधार समय पर चुकाने के लिए बाध्य रखता है। जाति व्यवस्था में “अधिकार उपभोग” से अधिक “कर्तव्य पालन” व्यक्ति की प्राथमिकता बनी रहती है ।कारगार जाने से तो अच्छा ही विकल्प है ।
३. सामाजिक सुरक्षा
मानव एक सामूहिक प्राणी है। जाति व्यवस्था व्यक्ति को जन्म से ही एक नैसर्गिक समूह प्रदान करती है। जिसमे उसके परिवार की ही भांति जीवन यापन एवं परम्पराओं नियमो का पालन करने वाले अन्य परिवारों का विशाल समूह, उसे प्राप्त होता है। इससे उनकी अधिकतर समस्याओं का समाधान प्रकति रूप में उनके अपने समूह में ही मिल जाता है। इसके बाद भी कोई समस्या हो तो वह अपनी जाति के साथ मिलकर उसे दूसरे समुदायों या राजा के सामने रख सकते हैं । जाति व्यवस्था प्राकृतिक संघठन की शक्ति को भरपूर प्रयोग करती है।
आज के आधुनिक संघठन या समूह जैसे की doctor’s association, engineer’s association , ias association, employee association आदि है। क्यों doctor का बेटा – बेटी doctor है , engineer का बेटा – बेटी engineer है , IAS का बेटा – बेटी IAS है, singer का बेटा – बेटी singer है आदि गर्व से बताया जाता है। यदि आप जाति व्यवस्था को सही नहीं मानते है, तो यह सब कैसे सही हो सकता है , स्वयं विचार करे ।
हिन्दू विरोधी षड़यंत्र के अंर्तगत कुछ प्रचलित झूठे एवं दूषित वैचारिक विष
१. वर्ण व्यवस्था स्वीकार है किन्तु जाति व्यवस्था अस्वीकार है
हिन्दू विरोधी तत्त्व मात्र हिन्दू समाज को तोड़ना चाहते है ये एक प्रकार का वैचारिक मतभेद बढ़ाने का षड़यंत्र है।
वास्तविकता क्या है, एक उदहारण से समझने का प्रयास करते है। आपने एक प्रसंग अवश्य सुना होगा की, महाभारत में भगवान परशुराम जी को कर्ण का भेद कैसे ज्ञात होता है। कर्ण जब गुरु की निंद्रा भंग न हो इसके लिए वह रक्त चूसने वाले कीड़े की पीड़ा भी सहन कर लेता है। तब भगवान परशुराम जी क्रोध से बोलते हैं “तुम एक ब्राह्मण तो नहीं हो सकते , जो इतनी पीड़ा सहन कर सके ” उन्हें ज्ञात हो गया था कि कर्ण एक क्षत्रिय है । गुरुद्रोह करने के कारणवश ही कर्ण को श्राप मिला।
जाति व्यवस्था के अद्धभुत ज्ञान के कारण ही भगवान परशुराम जी ने कर्ण को पहचाना। यहाँ आप समझ सकते है की क्यों वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था भिन्न नहीं है किन्तु एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। रक्त से क्षत्रिय गुण वाले कर्ण ने (छात्र के रूप में) ब्राह्मण एवं ( सूतपुत्र के रूप में ) शूद्र वर्ण का जीवन यापन किया, किन्तु उसका अनुवांशिक जाति से प्राप्त क्षत्रिय गुण ही उसके जीवन पर प्रभावी रहा।
२. अगड़ा पिछड़ा, सवर्ण दलित का राग
शब्दों के वास्तविक अर्थ के स्थान पर राजनैतिक या द्वेषभाव से प्रेरित होकर शब्दों का प्रयोग प्रचलित करने का षड़यंत्र चल रहा है। यह एक प्रकार का वैचारिक युद्ध है।
सवर्ण अर्थात जो सामान वर्ण का हो। यहाँ सवर्ण का अर्थ ब्राह्मण जाति या क्षत्रिय जाति कैसे हो जाता है। यह एक प्रकार का संबन्ध प्रदर्शित करने वाला उदबोधन है, जब यह बताना हो की व्यक्ति उसी वर्ण समूह से संबन्ध रखता है। सभी वर्ण के लोग इसे अपना अपना संबन्ध अपने अपने समूह को उदबोधन के लिए कर सकते है। Similar to Like I belong to same class.
अवर्ण अर्थात जिसका कोई वर्ण न हो। यहाँ इसका प्रचलित अर्थ शूद्र कैसे हो सकता है। शूद्र अपने आप में एक वर्ण है। अवर्ण अर्थात जो किसी भी वर्ण में सम्मिलित नहीं है, जैसे कोई विदेशीमूल या वर्णसंकर व्यक्ति।
अगड़ा का अर्थ जो सामने की ओर है, पिछड़ा का अर्थ जो पीछे की ओर है। इसका प्रचलित प्रयोग हिन्दू समाज में भेद उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। हमारे समाज में चारों वर्ण एक दूसरे के पूरक है, एक दूसरे से छोटे बड़े नहीं।
दलित शब्द हिन्दू जाति परंपरा का ही नहीं है। दलित शब्द दलने से बना है जैसे दाल पीसना । इसे षड़यंत्र के रूप में हिन्दू समाज के एक वर्ग में हिन्दू समाज के प्रति घृणा व्याप्त रखने के लिए प्रचलित किया गया।
३. Caste System
caste जाति या वर्ण व्यवस्था का सही भाषान्तरण नहीं है, इनके अर्थ वाला समांतर शब्द अंग्रेजी भाषा में है ही नही। caste system का मूल पाश्चात्य संस्कृति की भेद प्रधान दृष्टि है, जो मानव समूह को उच्च, मध्यम, निचले स्तर पर विभाजित करता है। यह सनातन सिद्धांत नहीं है। सनातन दृष्टि जीवो के भिन्न भिन्न समूह को एक दूसरे के पूरक रूप में, एक विशाल किन्तु संयुक्त समूह के रूप में देखती है। सरल उदाहरण के लिए, हिन्दू समाज साधु संतों को सर्वश्रेष्ठ पूजनीय सम्मानीय स्थान देता है, हिन्दू परंपरा समाज के सर्वाधिक संपन्न व्यवसायी को पूजनीय स्थान नहीं देती।
४. शूद्र को पैरो में रखना
इस प्रकार का चित्र हिन्दू समाज में हीन भावना बढ़ाने के उद्देश्य से प्रसारित किया जाता है। इसमें यही बताया जाता है की पैरों से शूद्र निकले इसीलिए वो हीन है। यह एक सतही एवं खोखली दृष्टि है। वास्तव में ब्रह्मा जी को एक शरीर की भांति दर्शाया गया है , जिसे आप एक यंत्र प्रणाली के रूप में भी समझ सकते है। मस्तिष्क से ब्राह्मण वर्ण दर्शाता है दिशा देने वाला। हाथ से दर्शाता है रक्षक क्षत्रिय। जंघा से दर्शाता है समाज का भार उठाने वाला वैश्य । पैरों से दर्शाता है समाज की नींव शूद्र। आप ही विचार कीजिये, क्या नींव के बिना कोई भवन ठीक सकता है, उत्तर है नहीं । पहियों की आभाव में कोई भी गाड़ी कैसे चलेगी। पैरों के आभाव में शरीर अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य नहीं कर सकता। ठीक उसी प्रकार शूद्र के बिना हिन्दू समाज अधूरा है। सभी अंग अति आवश्यक है शरीर रुपी हिन्दू समाज के पूर्ण क्षमता से आगे बढ़ने के लिए ।अगर शूद्र होना इतना ही अपमानजनक है तो आज का नगर निगम, कुटीर उद्योग आदि बंद कर देना चाहिए।नगर की सफाई का दायित्व केवल नगर निगम के कर्मी ही क्यों उठाये, ये तो उनके साथ भेदभाव है। स्वयं विचार कीजिये आपको आधुनिक वैकल्पिक व्यवस्था स्वीकार है परन्तु प्राचीन जाति व्यवस्था से परेशानी है क्योकि वह आपकी समझ से परे है।
५. शूद्र होना हीनता है या हिन्दू समाज ने उनका शोषण किया है
हिन्दू परंपरा के अनुसार शूद्र वर्ण को कुटीर उद्योग एवं सेवा के प्रकल्प पर अधिकार दिया गया है। जैसे लकड़ी, धातु , भवन निर्माण, नगर का रख रखाव, नाई, दाई, कुम्हार आदि। ये सभी प्रकल्प जीविका , धन अर्जन के स्रोत है। आप स्वयं विचार करे, हिन्दू समाज शोषण की मंशा रखता तो धन अर्जन के प्रकल्प शूद्रों के लिए क्यों संगरक्षित करता।
एक उदाहरण है , आपने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र जी की जीवन कथा तो सुनी ही होगी उसमे एक प्रसंग आता है जब विपरीत परिस्थिति में एक चांडाल सत्यवादी राजा हरिशचंद्र जी को अपने सहायक के रूप में क्रय करता है। यहाँ एक शूद्र एक क्षत्रिय को क्रय करता है। आप स्वयं विचार कीजिये क्या शोषण करने वाला समाज इतना अधिकार देगा।
एक ब्राह्मण हो या क्षत्रिय हो या वैश्य हो क्या इनके यहाँ के मांगलिक कार्य बिना शूद्र भाइयों के सम्मान पूर्वक सम्मिलित हुए पूरे हो सकते है। उत्तर है नहीं । कोई भी पारम्परिक हिन्दू विवाह नाई के निमंत्रण, कुम्हार के चाक पूजन, के आभाव में पूरा नहीं होता। आप स्वयं विचार कीजिये क्या शोषण करने वाला समाज इतना अधिकार देगा।
परंपरागत हिन्दू मत के अनुसार जूते बनाने वाली bata company शूद्र है , सौन्दर्य सेवा देने वाली urban clap company शूद्र है ।
६. शूद्रों के साथ छुआछूत किया जाता है
छुआछूत का वैचारिक विष हिन्दू विरोध षडयंत्र के अंतर्गत घोला गया है। छुआछूत हिन्दू परंपरा का भाग नहीं है । हिन्दू परंपरा में निषेद्याज्ञा का सिद्धांत है । वैदिक परंपरा पंच ज्ञानेद्रियों (स्पर्श दृश्य गंध रस ध्वनि ) विज्ञान को सुक्ष्मता से समझता है। पंच ज्ञानेद्रियों का दूरगामी एवं लघु प्रभाव का सामान्य ज्ञान हमारे गुरुकुल परंपरा के समय तक व्यापक था। किसी मनुष्य की ऊर्जा के स्तर को बनाये रखने के लिए प्रथम रक्षात्मक सीमा के रूप में कार्य करने वाली पंच ज्ञानेद्रियों से संबंधित निषेद्याज्ञा का ठीक से पालन अनिवार्य है। संबंधित निषेद्याज्ञा नियम एक प्रकार की अनिवार्य योग्यता है संबंधित कर्मकांड को करने के लिए, जिसमे अधिकृत व्यक्ति को कोई छूट नहीं मिलती। किन्तु छुआछूत व्यक्ति स्वयं की इक्छा से करता है दूसरे व्यक्ति को हीन दिखने के लिए । यही अंतर है। वर्ण जाति व्यवस्था में प्रत्येक मनुष्य के संबंधित मर्यादा नियम है जिनका उल्लंघन संबंधित योग्यता समाप्त कर देता है।
सामान्यतः एक पुरोहित ब्राह्मण को शूद्र से स्पर्श हो जाने पर छुआछूत करते हुए दर्शाया जाता है। यह अत्यंत खोखली और सतही समझ है। इसे समझने के लिए आपको मंदिर एवं पुरोहित को समझना होगा । हमारे मंदिर शक्ति स्थल है कोई बगीचा नहीं जहाँ कोई भी बिना उद्देश्य जा सके। मंदिरों की ऊर्जा को संगरक्षित करने के लिए लिए पुरोहित पुजारी नियुक्त किये जाते है।
इसे आप एक जैविक प्रयोगशाला (जो मानव कल्याण के लिए कार्य करती है) को जीवाणुरहित बनाये रखने जैसा समझ सकते है। अब वहां सिर्फ चुने हुए व्यक्ति ही जा सकते है, क्या इसका अर्थ ये लगाना उचित है की अन्य व्यक्तियों से वह जैविक प्रयोगशाला छुआछूत या भेदभाव करती है। आज के कोरोना आपदा में जब चिकित्सक स्वयं की सुरक्षा दृष्टि से विशेष कपडे या साधन प्रयोग करते है। जैसे दस्ताने (gloves) पहनाना, तो क्या चिकित्सक रोगी से भेदभाव या छुआछूत करता है। क्या चिकित्सक एवं जैविक प्रयोगशाला से मानव समाज का कल्याण नहीं होता है। क्या इनके आभाव में मानव समाज प्रभावी रूप में कार्य कर सकता है, उत्तर है नही।
स्वयं विचार करे
जिस प्रकार आधुनिक जीव विज्ञान में पहचान (identification) एवं वर्गीकरण (classification) किया जाता है, मानव को अनुवांशिक (genetic) एवं भौगोलिक (geographical) ईकाई के आधार पर वर्गीकृत कर अध्ययन किया जाता है, क्या आप उससे भेदभाव कहेंगे। उत्तर है नहीं।
हमारा वैदिक विज्ञान आज के आधुनिक विज्ञान से सैकड़ों वर्ष आगे है। वैदिक विज्ञान का स्वाभाविक मूल है, विषय को सूक्ष्म आधार तक बहुआयामी अध्ययन करना, उसका सृष्टि कल्याण में उपयोग करना, आदि ।
हाँ, यहाँ एक बात ध्यान में रखनी अति आवश्यक है कि , दीर्धकालीक आक्रांता काल एवं स्वतंत्रता के बाद आधुनिक पाश्चात्य वैचारिक अंधानुकरण से हमारी पुण्य भारत भूमि की स्थापित परम्पराओं, सामाजिक प्रणालिओं पर, भारतीय जनसंख्या के अनुवांशिक गुण सूत्रों में मिलावट से गहरा आघात अवश्य हुआ है। किन्तु स्थिति को अभी भी सम्भाला जा सकता है। विचार हिन्दू समाज को करना है। अपनी पहचान को संगरक्षित करना हर हिन्दू का कर्तव्य है। शुद्र शब्द को अपशब्द बना दिया है हिन्दू विरोधी तत्वों ने । शुद्र भाईयों को उनकी पहचान में आत्मसम्मान पूनः स्थापित करना होगा। हिन्दू समाज एक संयुक्त विशाल परिवार है।
पारंपरिक जाति व्यवस्था हिन्दू समाज की नींव है। इसके संरक्षण का प्रयास करे ।अपनी जातिगत परम्पराओं को समझे एवं पालन करे। अंतर्जातीय विवाह की निषेद्याज्ञा का सम्मान करे ।
हिन्दुओं से अनुरोध है, अपनी परम्पराओं के प्रति समझ विकसित कीजिये, अध्ययन स्थापित करे, हिन्दू विरोधी षड्यंत्रों का उत्तर देना प्रारम्भ कीजिये।अपनी परम्पराओं का सम्मान कीजिये उनका पालन कीजिये।
सनातन धर्म की जय
हर हर महादेव
गोवर्धन पुरी के वर्त्तमान पूज्य शंकराचार्य जी के श्री चरणों में नमन
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।। चैतन्य हिन्दू ।।
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