ईश्वर को जब लगा कि मैं अकेला हूं और बहुत रूपों में प्रकट हो जाऊं अर्थात उन्होंने ” एकोहम बहुस्यां” का जब संकल्प लिया तभी से इस संसार का निर्माण हुआ। इस सिद्धांत को मानते हुए हम यह मानते हैं कि इस संसार में सभी जड़ चेतन आदि में वही ईश्वर तत्व है। सभी में समान रूप से ईश्वर तत्व है। किंतु किसी किसी में ईश्वर तत्व का प्रकटीकरण कम होता है तो किसी किसी में अधिक होता है। मनुष्यों में भी ऐसा ही है। जब किसी मानव में सामान्य से अधिक ईश्वर तत्व का प्रकटीकरण होता है तब हम कहते हैं कि वह कोई अवतार है। किसी कार्य विशेष के लिए जब कोई अवतार होता है तो हम इसे नैमित्तिक अवतार कहते हैं। मुगलों से संघर्ष के काल में जो नैमित्तिक अवतार हुए हैं वह सभी भक्ति आंदोलन के सूत्रधार थे और वह समय की मांग भी थी।
अंग्रेजों से संघर्ष के काल में जो अवतार हुए वे दो प्रकार के थे।
1. राजनैतिक स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले
2. सामाजिक जागरण द्वारा एवं शिक्षा के माध्यम से खोई हुई स्वतंत्रता को पुनः स्थापित करने वाले।
इनमें से बाबा साहेब का कार्यक्षेत्र दोनों तरह का दिखाई देता है।
* भारतीय इतिहास के एक ऐसे ज्योतिपुंज जिन्होंने अंधियारी सदियों को प्रकाशित किया- वे थे बाबासाहेब
* भारत में जिन्होंने संतप्त और पीड़ित मानवता के कल्याण के लिए स्वयं के शरीर को चंदन की तरह घिसा है- वह थे बाबासाहेब
* व्यक्ति स्वतंत्र्य और शिक्षा के द्वारा समता और न्याय प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हुए स्वर्ण की तरह जिन्होंने स्वयं को तपाया है- वे थे बाबासाहेब
* वंचितों के लिए अधिकार न्याय, समता, स्वतंत्रता और शिक्षा के महान यज्ञ में समिधा बनकर स्वयं को जिन्होंने जलाया है -वे थे बाबासाहेब
हिंदू विचार जो “बहुजन हिताय” से कहीं आगे “सर्वजन हिताय” की बात करता है किंतु काल के प्रवाह में विकृति ने संस्कृति को प्रतिस्थापित कर दिया इसका परिणाम यह हुआ कि समाज व्यवस्था में विषमता का विष घुलता गया। अन्याय, अवमानना, उपेक्षा की सोच ने अपने ही समाज बंधुओं को दलित बना दिया। इस दौरान दलित समाज की चेतना कुंठित तो हुई किंतु समाप्त ना हुई। समाज ने फिनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से पुनः उत्पन्न होकर जीवन जीने का प्रयास निरंतर जारी रखा।
स्वातंत्र्य पूर्व के 30- 40 वर्ष तक भारत में चार व्यक्तित्व भारत की जनता को प्रमुखता से प्रभावित करते रहे। यह चारों ही पाश्चात्य शिक्षा से शिक्षित व्यक्तित्व थे।
1. मोहम्मद अली जिन्ना- यह अलगाववादी सांप्रदायिक मुस्लिम मानसिकता का ईंधन के रूप में उपयोग करते हुए अवसरवादी राजनीति के द्वारा अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को साधने में सफल रहे।
किंतु शेष तीन महानुभाव महान विभूतियां जिन्ना से भिन्न थी। वे थी महात्मा गांधी, स्वतंत्र वीर सावरकर एवं डॉ बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर। इनके लिए देश की स्वाधीनता एक स्वप्न था जिसे वे पूरा करने में लगे थे। तीनों को लगता था कि भारत को आजादी मिलने के साथ ही भारतीय समाज व्यवस्था का आधुनिकीकरण होना चाहिए। किंतु यह कैसे हो इस पर उनके विचार भिन्न-भिन्न थे।
2. महात्मा गांधी परंपराओं के ताने-बाने को बिगाड़े बिना सत्याग्रह के द्वारा व्यक्ति के आत्म तेज को जगा कर देश में चैतन्य जागरण करना चाहते थे और उन्होंने यह किया भी। उनका मानना था कि जो सबल है वे मानवता के नाते दुर्बल की सहायता करें। सावरकर और बाबा साहेब के विचार इनसे भिन्न थे।
3. सावरकर जी के चिंतन का केंद्र बिंदु राष्ट्र था। एक राष्ट्र के सभी नागरिक सम्मान हैं, संस्कृति समान है, पूर्वज समान है, सुख दुख भी समान है। इस नाते दुर्बल का उत्थान सबल का परम कर्तव्य है।
4. बाबा साहेब का मानना था कि व्यक्ति मानवतावादी होकर सोचने की अपेक्षा बुद्धिनिष्ठ होकर विचार करें। उनका निश्चय विचार था कि संसार में जन्मे व्यक्ति को स्वयं के गुणों के आधार पर उन्नति करने का अधिकार है। यदि कोई समाज व्यवस्था उसे इस अधिकार से वंचित करती है तो वह समाज व्यवस्था तोड़ दी जानी चाहिए।
बाबासाहेब ने व्यक्ति स्वातंत्र्य और व्यक्ति विकास को अपना जीवन कार्य का केंद्रबिंदु माना। उनकी आंखों के सामने वंचित समाज था। जिसमें उन्होंने जन्म लिया और जिसमें भेदभाव को दमन को साक्षात स्वयं अनुभव किया।
हालांकि दलित मुक्ति संघर्ष से बाबासाहेब का नाम जुड़ गया। देश के करोड़ों लोगों ने उनको देवत्व प्रदान किया। यह भी एक विडंबना ही है कि उनके जैसे महान व्यक्तित्व को सीमित क्षेत्र में बांध दिया गया। उनका दलित मुक्ति का संघर्ष उनके व्यापक संघर्ष का केवल एक भाग था। जैसे स्वाधीनता संघर्ष के सत्याग्रह के पीछे महात्मा गांधी की भूमिका वैश्विक तत्वज्ञान की थी और इसी कारण उनके व्यक्तित्व के बारे में एक कुतूहल है। उसी तरह डॉक्टर अंबेडकर के संघर्ष की भूमिका भी वैश्विक भूमिका थी। दलित संघर्ष तो उसका एक अंश मात्र था।
यूरोपीय चिंतन में व्यक्ति स्वतंत्रता और बाबा साहेब के व्यक्ति स्वतंत्रता में मूलगामी अंतर है। यूरोपीय विचारक धर्म संकल्पना को व्यक्ति स्वतंत्रता में बाधक मानते हैं।किंतु डॉक्टर अंबेडकर ऐसा नहीं मानते हैं। यूरोपीय चिंतन की व्यक्ति स्वतंत्रता व्यक्ति को समाज से विमुख बना देती है। जबकि बाबासाहेब स्वतंत्रता और नैतिकता के बीच समन्वय चाहते हैं। जो कि बिना धर्म के संभव नहीं है। इसीलिए उन्होंने दलित आंदोलन को राजनैतिक आंदोलन न बनाकर धार्मिक आंदोलन बनाया। उन्होंने इसे बौद्ध धर्म से जोड़ा।
उनके अनुसार लोकतंत्र के चार स्तंभ है स्वतंत्रता, समता, बंधुता और न्याय। इन सब में सबसे महत्वपूर्ण देश में रहने वाले लोगों के बीच बंधुता का भाव है। जिस पर वे सबसे अधिक जोर देते दिखाई देते हैं। आज के समय में यह सब से प्रासंगिक विषय है कि समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों के प्रति सभी वर्गों के प्रति बंधुता का भाव विकसित किया जाए।
ऐसे बहुत सारे लोग होते हैं, जिन्हें अपने अधिकारों पर कुठाराघात तो नजर आता है, लेकिन रोजमर्रा की जद्दोजहद व बुनियादी आवश्यकताओं की उलझन में अधिकारों के लिए आवाज उठाने साहस नहीं जुटा पाते।
ऐसे असहाय वर्ग के लिए बाबासाहब एक अवतार बन कर आए थे। उस समय हिंदू समाज में अनेक कुरीतियां, छुआछूत और ऊंच-नीच की प्रथायें प्रचलन में थीं। जिसके लिए उन्होंने अथक संघर्ष किया। वे स्वयं दलित वर्ग से सम्बन्धित थे। छुआछूत के दंश को, समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता, जाति-व्यवस्था, शूद्रों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को उन्होंने अपने बाल्यकाल से देखा-जाना और भोगा था। उस भोगे हुए जीवन-यथार्थ से उन्हें सब प्रकार की सामाजिक असमानता के लिए आवाज उठाने की प्रेरणा मिली। उनका मानना था कि “छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।”
सन 1927 तक डॉ. अंबेडकर ने छुआछूत के विरूद्ध एक सक्रिय आंदोलन प्रारंभ किया। सार्वजनिक आंदोलन, सत्याग्रह और जुलूसों के माध्यम से पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिए खुलवाने का प्रयास किया।
उन्होंने भारतीय समाज व्यवस्था, जाति व्यवस्था, धर्म का, अर्थ-तंत्र, वंचित वर्ग के अधिकार, मजदूरों और कामगारों का हित, महिला-अधिकार, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं सरकारी सेवा में दलित वर्ग के स्वाभाविक प्रतिनिधितत्व के साथ ही शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान आदि मुद्दों पर सर्वाधिक तार्किक ढ़ंग से अपने निष्कर्षों को सबके सामने रखा। वे एक बहुपठित और बहुज्ञ व्यक्तित्व के स्वामी थे. उनका वैचारिक-पक्ष न्यायोचित एवं मानवीय था। उनका सम्पूर्ण जीवन और वैचारिक-भूमिका भारतीय समाज और चेतना में समरसता को स्थापित करने हेतु न्यायोचित परिवर्तन के लिए समर्पित रही। उन्होंने अपने श्रमसाध्य ज्ञानात्मक प्रयासों से यह पाया कि भारतीय समाज व्यवस्था में निहित संरचनाएं, जैसे, जाति-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, अस्पृश्यता, ऊंच-नीच, शोषण, अन्याय आदि बाद के दिनों में आये विभिन्न गतिरोधों एवं विकृतियों की उपज हैं न कि प्राचीन भारतीय समाज-व्यवस्था का मूल स्वभाव।
भारतीय समाज व्यवस्था, आर्थिक तंत्र, राजनैतिक प्रक्रियाओं एवं सभ्यता की उपलब्धियां तथा दुविधाओं के प्रति बाबा साहेब की समझ अतुलनीय रही है। अपनी इसी विशिष्ट प्रतिभाओं के चलते वे स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री बने। वह भारतीय संविधान के जनक एवं भारतीय गणराज्य के निर्माताओं में से एक थे। उनके भारतीय संविधान के अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें ‘भारतीय संविधान का पितामह’ कहा जाता है। सन् 1951 में उन्होंने ‘भारत के वित्तीय कमीशन’ की स्थापना की। डॉ. अम्बेडकर कहा करते थे, “हम शुरू से लेकर अंत तक भारतीय हैं और मैं चाहता हूँ कि भारत का प्रत्येक मनुष्य भारतीय बने, अंत तक भारतीय रहे और भारतीय के अलावा कुछ न बने।”
ऐसे युग निर्माता के 131वें जन्मदिवस पर हम सभी भारतीयों के लिए उनका संदेश “शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो” प्रेरणा के स्रोत बने। भारतीय संविधान में बहुमूल्य योगदान इस देश को एक नई दिशा देने वाले बाबा साहेब समता, स्वतंत्रता और समरसता के सौन्दर्य के स्वाभाविक प्रतीक पुरुष को कोटिशः वंदन।
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