गजल लिखने वाले शायरों में मुनव्वर राना का एक अपना अलग मुकाम है जिसमें उन्होंने महबूबा के बदले मां को ग़ज़ल का केंद्र बनाया। जैसे दुष्यंत कुमार हिंदी में ग़ज़ल लिखने वालों के लिए आदर्श है उसी तरह अगर महबूबा के पल्लू से हटकर कोई गजल लिखना चाहेगा तो उसे जरूर मुनव्वर राना की शागिर्दी में जाना चाहिए या उनकी नकल नकल करनी पड़ेगी। परंतु आजकल मुनव्वर साहब तालिवान की बदतमीज़ियों को जायज करार देने के अपनी कोशिश में उसकी तुलना महर्षि बाल्मीकि से कर गए और इसका खामियाजा उन्हें फौरन भुगतना पड़ा क्योंकि इस मामले में पीएल भारती ने 21 अगस्त को हजरतगंज कोतवाली में राना के खिलाफ FIR दर्ज कराई थी। वाल्मीकि समाज और सामाजिक सरोकार फाउंडेशन संस्था के नेता भारती का आरोप है कि राना ने देश के करोड़ों दलितों को ठेस पहुंचाई है। उनका अपमान किया है। हिंदुओं की आस्था को भी चोट पहुंचाई है। अंबेडकर महासभा के महामंत्री अमरनाथ प्रजापति ने भी मुनव्वर के खिलाफ शिकायत दर्ज कराते हुए कार्रवाई की मांग की थी।


राना ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा था, ‘महर्षि वाल्मीकि न केवल पवित्र ग्रंथ रामायण के रचनाकार हैं, बल्कि वाल्मीकि एक लेखक भी थे। तालिबानी भी दस साल बाद वाल्मीकि होंगे। हिन्दू धर्म में तो किसी को भी भगवान कह देते हैं।’ राना के इस बयान के बाद जब उन पर FIR दर्ज हुई थी तो गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्होंने कोर्ट की शरण ली थी। हाईकोर्ट की डबल बेंच ने गिरफ्तारी न करने और मुकदमे में राहत देने वाली उनकी दोनों मांगों को ठुकरा दिया है।

शायद मुनव्वर साहब का महर्षि वाल्मीकि के अपमान का इरादा ना हो परंतु कहा गया है कि किस्मत खराब हो तो ऊंट पर बैठे को कुत्ता काट लेता है और वही हाल मुनव्वर साहब का हुआ। पीजीआई के हास्पीटल का बेड भले हीं थोड़ी राहत दे दे पर शायद न्याय व्यवस्था उनके प्रति अभी असहिष्णु हीं रहेगी। दरअसल अल्पसंख्यक समाज को सनातन की शान्ति में कायरता का आभास होने लगा था और वे अनुसूचित जाति और दलितों – अछूतों को तथाकथित मनुवादी मृगमरीचिका दिखाकर अपनी अस्मिता से दूर कर रहे थे। मकबूल फ़िदा हुसैन की सरस्वती नाम की डूडलिंग पर उपजे बवाल को वामपन्थी सनातनियों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी से जोड़ कर थोड़ा कुन्द कर दिया पर वाल्मीकि के प्रति इनके अव्यवस्थित बयान ने इन्हें न्याय व्यवस्था के ऊँट पर कुत्ते के साथ बैठा दिया।
अपनी शायरी में दुकाँ के ऊपर माँ को अपने हिस्से में लेने की चाहत का आडम्बर रचने वाला शायर आज ज़मीन और दूकाँ के बँटवारे में आज माँ को भूला और भारत माँ को तो कब का भुला बैठे थे ये शेर लिख कर कि –

किसी का क़द बढ़ा देना किसी के क़द को कम कहना
हमें आता नहीं ना-मोहतरम को मोहतरम कहना
चलो मिलते हैं मिल-जुल कर वतन पर जान देते हैं
बहुत आसान है कमरे में बन्देमातरम कहना।

क्या ये शर्मिन्दगी का मुद्दा नहीं है कि जिसने कभी लिखा था कि ” मेरे हिस्से में माँ आई ” उसे वन्दे मातरम् से चिढ़ है। इस दुनियाँ के सभी प्राणी ब्स उर्दू या फ़ारसी जुबान में अम्मा, अम्मी , अम्मी जान या माँ माँ पुकारें और जैसे हीं आपने किसी और जुबान में माँ की इबादत की , कोई बोल उठेगा कि ” बहुत आसान है कमरे में वन्दे मातरम् कहना ” । गज़ब की कल्चरल दोगलई है!

ये किस्मत हीं है कि हज़रत साहेब के कार्टून बनाने वाले का सर कलम करने के फ़तवे की हिमायत करने वाला आज इस कायनात के पहले अज़ीम शायर की तुलना एक आतंकवादी संगठन से करने के गुनाह की सज़ा पाने या फ़ौरी गिरफ़्तारी के डर से अस्पताल की बेड पर लेटा है।


अच्छा है , सहिष्णुओं के क्रोध से डर ज़रूरी है। और इतना डर अच्छा है।

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