⚔️⚔️ वीर जतरा उरांव⚔️⚔️

प्रकृति से लगाव और स्वाधीनता के रक्षा की व्याकुलता जनजातीय स्वभाव व संस्कार की मूल्य विशेषता रही है बिहार (वर्तमान झारखंड) के छोटानागपुर व संथाल परगना में रह रही जनजातियाँ भी इन्हीं को अपने स्वभावगत गुणों में समेटे हुए हैं। स्वाधीन रहने की छटपटाहट ने ही अनेक बार इन जनजातियों को अंग्रेजी शासन, मिशनरी एवं क्रूर सांमती व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह का शंखनाद फूंकने को बाध्य किया था। जिसमें अनेकों वीरों ने अपने-अपने हिस्से की आहुति डाली थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में छोटानागपुर के पठारों में वीर बिरसा मुंडा पूरी शक्ति के साथ अंग्रेजी सत्ता के विरोध एवं जनजातीय जीवन में सामंती कुतीरियों के नाजायज हस्तक्षेप को उखाड़ फेंकने के लिए सार्थक पहल कर रहे थे। लेकिन दुर्भाग्यवश 9 जून 1900  को रांची जेल में संदेहजनक परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद छोटानागपुर की घाटियों में जगह-जगह आन्दोलन समाप्त तो नहीं हुआ लेकिन थोड़ा शिथिल पड़ता जा रहा था।

अब अंग्रेजों के द्वारा जनजातियों का धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक शोषण उत्पीड़न पहले की भांति ही होने लगा। अंग्रेजों के इस व्यवहार से उराँव जन त्रस्त थे, वो अपने तरफ से विद्रोह भी करते थे लेकिन संगठित रूप से प्रयास नहीं होने के कारण वो असफल हो रहे थे। इसी बीच उराँव जनजातियों के बीच जतरा उराँव नामक एक नवयुवक उभरा। जिसने धार्मिक, सामाजिक पुर्नरचना का संकल्प लिए टाना भगत आन्दोलन का महामंत्र जन-जन तक पहुंचाया, यह युवक आगे चलकर जतरा भगत के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

आज की वीरगाथा है एक ऐसे ही वीर,”जतरा उरांव” की जिन्होंने अंग्रेज़ों के शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए आदिवासियों में नई चेतना जगाई। तो आइए संक्षेप में पढ़ते हैं टाना भगत आंदोलन के प्रणेता वीर जतरा उरांव के बारे में।

● कौन थे जतरा उरांव!

जतरा उरांव का जन्म तत्कालीन बिहार के गुमला जिलान्तर्गत विशुनपुर प्रखंड के चिंगरी (नवाटोली) में सितम्बर (आश्विन) महीने के अष्टमी तिथि का 1888 को माता लिबरी एवं पिता कोडल उराँव था के घर में हुआ था। जतरा उरांव का बचपन साधारण ढंग से बीता लेकिन छोटी उम्र से ही अपने हम उम्र के मित्रों से इनका स्वभाव अलग था। जब जतरा भगत बचपने से किशोरावस्था में पहुँचे तो उस समय उन्होंने स्कूल पढ़ाई के बजाय मति झाड़–फूंक (तंत्र – मंत्र) की विद्या सीखने के लिए निकट में हेसराग ग्राम आया जाया करते थे। कहते हैं कि इसी क्रम में एक दिन वह एक पेड़ पर पक्षी का अंडा उतारने के लिए चढ़े तो वह अंडा नीचे गिर कर फूट गया। जिसमें भ्रूण दिखायी दिया जिसको देखकर जतरा के मन में आया यह तो जीवहत्या है उस दिन से उन्होंने जीव हत्या न करने का संकल्प लिया। इसी प्रकार सन 1914 ई. के अप्रैल माह में एक दिन जब जतरा मति सीखने के क्रम में गुरदा कोना पोस्टर से स्नान करने गये वहीं स्नान के कर्म में उन्हें आत्मज्ञान हुआ जैसे तमसा नदी के तट पर श्री वाल्मिकी का स्वर फूटा और संस्कृत भाषा का जन्म हुआ। उसी  तरह जतरा भगत के मुंह से जो उद्घोष हुआ वह आगे चलकर टाना पंथ के नाम से जाना गया।

● समाज सुधारक जतरा उरांव

बिरसा मुंडा के राह पर चलते हुए जतरा उराँव ने भी वैष्णव विचाराचारा के तहत समाज सुधार कर आदिवासियों को कुरीतियों से बचाया। साथ ही मिशनरी के बदनीयत को कुचलते हुए अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष का बिगुल बजाया। युवा जतरा ने लोगों के बीच मांस न खाने, मदिरा पान न करने, पशु बलि रोकने, परोपकारी बनने, यज्ञोपवीत धारण करने, पूजा पाठ करने, भूत प्रेत के अस्तित्व न माने, आँगन में तुलसी चौरा स्थापित करने, गौ सेवा करने, जीव हत्या न करने, सभी से प्रेम करने का उपदेश देना शुरू किया। धीरे-धीरे उराँव जनजातियों ने उनकी बात सरलता से माननी शुरू कर दी और देखते ही देखते उनके समर्थकों की अच्छी संख्या हो गई जो उन्हें देव तुल्य समझते थे। इसके बाद जतरा उरांव लोगों के बीच जतरा भगत के नाम से प्रख्यात हो गए। उनके पंथ का नाम टाना पड़ा और उन्हें मानने वाले लोग टाना भगत कहलाये।मूलत: टाना मंत्र अहिंसा और असहयोग का ही था जो आगे चलकर स्वतंत्रता आंदोलन में परिवर्तित हुआ।

● स्वतंत्रता आन्दोलन में जतरा उरांव का सहयोग

जतरा भगत का प्रवचन सुनने के लिए दूर दराज से उराँव जनजाति के लोग आने लगे। लेकिन अब उनके प्रवचन में अंग्रेज़ी सेना के खिलाफ लोगों को एकजुट करने की कला सिखाई जाती। वो चाहते थे आदिवासी समुदाय आपसी मतभेद को भुलाकर अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ विरोध का स्वर बुलंद करें। विरोध के शुरुआत में टाना भगतों ने अंग्रेजों को मालगुजारी, चौकीदार टैक्स देना बंद कर दिया। इसके बाद वो मिशनरी द्वारा चलाए जा रहे धर्म परिवर्तन का खुलकर विरोध करने लगे। उन्होंने लाठी डंडे से चोट तो नहीं किया लेकिन अपने साहस के दम पर मिशनरियों को खदेड़ देते। देखते ही देखते जतरा उरांव ब्रिटिश सरकार के आंखों की किरकिरी बन गए, सरकार टाना आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव से बैचैन हो उठी। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने 1916 के प्रारंभ में जतरा भगत पर नियोजित ढंग से उत्तेजक विचारों के प्रचार का अभियोग लगाकर उनके साथ उनके अनेकों अनुयायियों को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद कोर्ट द्वारा उनको वर्ष भर की कड़ी सजा देते हुए जेल में बंद कर खूब प्रताड़ित किया। इस प्रताड़ना का उनके शरीर पर विपरीत प्रभाव हुआ, फलस्वरूप जेल से बाहर आने के 2-3 माह बाद ही 28 वर्षीय जतरा भगत का देहावासन हो गया। जतरा उरांव की असमय मृत्यु से टाना भगत समुदाय बहुत दुःखी था। साथ ही उन गैर आदिवासी लोगों को भी बड़ा दुःख हुआ जो जतरा उरांव में बिरसा मुंडा की छवि देख रहे थे। लेकिन जतरा भगत के नहीं रहने पर उनके समर्थकों ने अंग्रेजों से संघर्ष का दायित्व संभाला।

टाना भगत आंदोलन को ठप नहीं होने दिया बल्कि यह आंदोलन जो धार्मिक, सांस्कृतिक रूप में था कालान्तर में बिहार के जनजातीय क्षेत्र में प्रखर एवं आदर्श जनान्दोलन साबित हुआ। टाना भगत अंग्रेजी शासन का शांतिपूर्ण एवं अहिंसक तरीके से विरोध करते रहे यथा जमीन की मालगुजारी नहीं देना तथा अंग्रेजों से जनजातीय क्षेत्र को छोड़कर चले जाने को कहना शामिल रहा। सन 1917 तक जतरा भगत से प्रेरित टाना भगत अहिंसक तरीके का आन्दोलन पाने ढंग से चलाते रहे। इतिहासकार के.पी.मुंडा लिखते हैं कि जतरा भगत के शहीद होने बाद आंदोलन कुछ समय के लिए रुक गया था, लेकिन ये वो समय था जब जतरा भगत के सन्देश को उनके अनुयायियों ने जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया। लोग जुड़ते गए और इसी कड़ी में 12 फरवरी 1921 को कूडु में लगभग 8000 टाना भगत ने एकत्रित होकर सभा किया। अब उनका अहिंसक, धार्मिक, सामाजिक,सांस्कृतिक एवं स्वतंत्रता आन्दोलन परवान चढ़ने लगा था। वो खुलकर अंग्रेज़ सरकार के विरोध में उतर आए थे। उस समय अंग्रेज पुलिस सुपरिन्टेन्डन्ट ने अपनी रिपोर्ट में इनके आन्दोलन पर तत्काल रोक लगाने पर बल दिया था। 19 मार्च 1921 को अंग्रेज उपायुक्त ने छोटानागपुर के आयुक्त को अपनी रिपोर्ट में लिया कि टाना भगत आन्दोलन और गाँधी का आन्दोलन के मिल जाने से समस्याएँ बढ़ती जा रही है इसे जल्द से जल्द रोकने की आवश्यकता है।

भारत के स्वंतत्रता आंदोलन में जतरा उरांव के टाना भगत बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। चाहे 1927 में साइमन कमीशन का विरोध करना हो, या फिर 1942 में ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ के नारे को बुलंद करने का कार्य। टाना भगत कभी भी पीछे नहीं हटे।

टिप्पणी : भारतवर्ष के स्वतंत्रता आंदोलन में जनजातीय समुदाय का अविस्मरणीय सहयोग रहा है। लेकिन दुर्भाग्य से इनके बारे में ज्यादा लिखा नहीं गया है। यही कारण है कि जतरा उरांव एवं उनके अनुयायियों के नाम सुनकर, माथे पर अनजान होने का बल पड़ने लगता है। जबकि स्वाधीन रहने की छटपटाहट ने ही अनेक बार इन जनजातियों को अंग्रेजी शासन, मिशनरियों एवं सामंती व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह का शंखनाद फूंकने को बाध्य किया था। साथ ही जब हम असल इतिहास पढ़ते हैं तो हमें मालूम पड़ता है कि मिशनरियों ने कैसे गरीब आदिवासियों को डरा धमकाकर उन्हें धर्म विरक्त किया है। और यही सब आज भी चल रहा है, जिसमें कुछ लोभी लोग उनका साथ देते हैं।

हम नमन करते हैं वीर जतरा उरांव को जिन्होंने अपने अल्प जीवन में बहुत कुछ कर दिखाया। लोगों को जागरूक कर संगठित करने का जो कार्य उन्होंने किया, वो बड़े से बड़े महारथियों के लिए असंभव था।

जय हिन्द

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