संस्कृत शब्द ‘सनातन’ का अर्थ ‘अनंत’ या ‘सर्वकालिक’ है और ‘धर्म’ का अर्थ ‘कर्त्तव्य’ है। ‘सनातन धर्म’ का मतलब ‘सर्वकालिक ‘कर्त्तव्य’ काहा जा सकता है। सर्वोच्च स्वामी और उनका परलोकिक निवास दोनो सनातन, अनंत या सर्वकालिक है क्योंकि वह जीवित आत्माओं, एवं उस सर्वोच्च परमात्मा के एकत्रित संगठना है। मनुष्य के जीवन की परिपूर्णता का अर्थ ही जीवित आत्माएं का सनातन में निवास करना होता है।
श्री कृष्ण हम जैसे जीवात्मा के समक्ष बड़े दयालु हैं क्योंकि, हम उन्हीं के बच्चे हैं। इसी परमात्मा के कारण हम सब का जन्म हुआ है। श्री कृष्ण, भगवद गीता में कहते हैं “मैं ही सबका जनक हूं।” कर्म के अनुसार कई तरह के जीवात्माएं होती है और श्री कृष्ण ही उनके जनक है। समय-समय पर परमात्मा स्वयं अपने द्वारा रचित इस भौतिकवादी दुनिया में प्रकट होंगे और इन सभी पतित आत्माओं को सनातन शाश्वत गगन में वापस बुलाएंगे ताकि सनातन जीव अपने मूल शाश्वत पदों को उनके सहयोग से प्राप्त कर सके।
इन पतित आत्माओं को पुनः प्राप्त करने हेतु श्री कृष्ण स्वयं अवतरित होते हैं या अपने किसी गोपनीय दास को पुत्रों या अचार्य के रूप में भेजते है।

अगर हम इस दुनिया को पास से देखें तो हमें यह व्यतीत होता है कि, जीवित आत्मा एक दूसरे की सेवा में व्यस्त है। एक मित्र अपने दूसरे मित्र की सेवा कर रहा है, एक माता अपने पुत्र की सेवा कर रही है, एक पत्नी अपने पति की सेवा में मग्न है अथवा एक पति अपनी पत्नी की सेवा कर रहा है।
उसी प्रकार एक मंत्री चुनाव के समय जनता से अनेक वादे करता है और वही जनता उसे वोट देकर जिता देती है ताकि वह मंत्री, जनता की समस्या का समाधान कर सके। एक दुकानदार अपने ग्राहक की सेवा करता है। ऐसा कोई प्राणी नहीं है जिसने किसी और प्राणी की सेवा ना की हो। इसलिए हम इसका यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं की, “सेवा” ही हम ‌‌जीवात्माओं का साथी है और एक-दूसरे की सेवा करना ही जीवात्माओं का सनातन धर्म है।
वास्तव में हम सेवा में सर्वोच्च भगवान से संबंधित है। सर्वोच्च भगवान, सर्वोच्च भोक्ता है और हम जीव उनके सेवक है। हम जीवात्मा उन्हीं के आनंद के लिए बनी है और अगर हम इस सनातन आनंद में भाग ले तो हमें, यानी जीवात्मा को भी आनंद का लाभ होता है। हम उस सर्वोच्च भगवान के बिना आनंद का सुख नहीं भोग सकते। जैसे हमारे तन का कोई भाग अगर हमारे जठर (पेट) से सहयोग

इसलिए सनातन धर्म किसी भी सांप्रदायिक प्रक्रिया का वर्णन नहीं करता। सनातन धर्म सभी जीवात्माओं का अपने सनातन सर्वोच्च स्वामी के प्रति एक सर्वकालिक कार्य बन जाता है।
अंग्रेजी शब्द ‘रिलीजन’, सनातन धर्म से थोड़ा अलग है। ‘रिलीजन’ या ‘मजहब’ हमें आस्था का संदेश देते हैं और आस्था या विश्वास बदल सकता है। अगर एक मनुष्य किसी प्रक्रिया को अपनी मान्यता देता है, पर कल वही मनुष्य उसी प्रक्रिया पर अपनी असहमति भी घोषित कर सकता है। पर सनातन धर्म एक ऐसी प्रक्रिया है जो बिल्कुल बदल नहीं सकती।
उदाहरण के लिए पानी से तरलता नहीं ली जा सकती है ना ही आग से गर्मी ली जा सकती है। उसी प्रकार सनातन जीवात्मा की सनातन प्रक्रिया, जीवात्मा से दूर नहीं की जा सकती। सनातन धर्म के साथ शाश्वत रूप से अभिन्न है। सनातन धर्म का ना ही कोई आरंभ है और ना ही कोई अंत।
जिसका कोई आरंभ ना ही कोई अंत हो वह सांप्रदायिक नहीं हो सकता क्योंकि वह किसी सीमा से बंधा नहीं है, वह आज़ाद है। पर जो लोग किसी सांप्रदायिक आस्था से संबंधित है, वह सनातन धर्म को गलत ही समझेंगे और उसे सांप्रदायिक बताएंगे। पर अगर इस विषय को गहराई से नापा जाए तो, आधुनिक विज्ञान के माध्यम से इस विषय पर सोच-विचार करना संभव है। सनातन धर्म एक व्यवसाय है; सिर्फ दुनिया के लोगों की नहीं, बल्कि ब्रह्माण्ड के सभी जीवों की।
मनुष्य के इतिहास में गैर-सनातन धार्मिक संस्थाओं का आरंभ मिल जाता है, पर सनातन धर्म के इतिहास में आरंभ का वर्णन नहीं है, क्योंकि वह सभी जीवात्मा में सनातन रूप से समाया हुआ है।
भागवद गीता में कहा गया है कि , जीवात्मा का ना जन्म है और ना ही मृत्यु है, वह सनातन और अविनाशी है। और वह अपने भौतिक शरीर के विनाश के बाद भी जीवित रहता है और यही सनातन सत्य है।
सनातन धर्म के विषय के संदर्भ में हमें मजहब या रिलीजन के विषय को संस्कृत मूल शब्द से समझने का प्रयास करना चाहिए।
धर्म के विषय के संदर्भ में हम यह कह सकते हैं कि जो एक विशिष्ट चीज़ में सतत विद्यमान रहे।
हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि, गर्मी और रोशनी आग से उत्पन्न होती है। गर्मी और रोशनी के बिना आग व्यर्थ है। इसी तरह हमें जीवन के आवश्यक अंश को खोजना चाहिए, एक ऐसा अंश जो सतत उसका साथी हो। यही साथी उसकी सनातन खूबी बन जाती है। जब ‘सनातन गोस्वामी जी’ ने ‘श्री चैतन्य महाप्रभु जी’ से जीवित प्राणी की संवैधानिक स्थिति के बारे में पूछा तब उनका उत्तर था,” यह भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व की सेवा का प्रतिपादन है।”
अगर हम इस दुनिया को पास से देखें तो हमें यह व्यतीत होता है कि, जीवित आत्मा एक दूसरे की सेवा में व्यस्त है। एक मित्र अपने दूसरे मित्र की सेवा कर रहा है, एक माता अपने पुत्र की सेवा कर रही है, एक पत्नी अपने पति की सेवा में मग्न है अथवा एक पति अपनी पत्नी की सेवा कर रहा है।
उसी प्रकार एक मंत्री चुनाव के समय जनता से अनेक वादे करता है और वही जनता उसे वोट देकर जिता देती है ताकि वह मंत्री, जनता की समस्या का समाधान कर सके। एक दुकानदार अपने ग्राहक की सेवा करता है। ऐसा कोई प्राणी नहीं है जिसने किसी और प्राणी की सेवा ना की हो। इसलिए हम इसका यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं की, “सेवा” ही हम ‌‌जीवात्माओं का साथी है और एक-दूसरे की सेवा करना ही जीवात्माओं का सनातन धर्म है।
वास्तव में हम सेवा में सर्वोच्च भगवान से संबंधित है। सर्वोच्च भगवान, सर्वोच्च भोक्ता है और हम जीव उनके सेवक है। हम जीवात्मा उन्हीं के आनंद के लिए बनी है और अगर हम इस सनातन आनंद में भाग ले तो हमें, यानी जीवात्मा को भी आनंद का लाभ होता है। हम उस सर्वोच्च भगवान के बिना आनंद का सुख नहीं भोग सकते। जैसे हमारे तन का कोई भाग अगर हमारे जठर (पेट) से सहयोग

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