क्या है सेंगोल? जानें भारत के `राजदंड` का महत्व और इतिहास

भारत में राजदंड का इतिहास काफी पुराना है। सबसे पहले इसका उपयोग 322 से 185 ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य द्वारा किया गया था। उन्होंने इसे अपने विशाल साम्राज्य पर अधिकार दर्शाने के लिए उपयोग किया था। इसके बाद 320 से लेकर 550 ईस्वी तक गुप्त साम्राज्य, 907 से 1310 ईस्वी तक चोल साम्राज्य और 1336 से 1646 ईस्वी तक विजयनगर साम्राज्य ने सेंगोल का इस्तेमाल किया।

1526 से 1857 तक आखिरी बार इस राजदंड का मुगल बादशाहों द्वारा इस्तेमाल किया गया। इतना ही नहीं 1600 से 1858 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी इसे भारत पर अपना अधिकार दिखाने के लिए इस्तेमाल किया था।
इस राजदंड का नाम सेंगोल संस्कृत के शब्द संकु से बना है जिसका अर्थ शंख होता है। शंख हिंदू धर्म की सबसे पवित्र वस्तु है और इसका इस्तेमाल संप्रभुता के प्रतीक के तौर पर किया जाता है और आज भी कोई शुभ काम होने पर इसका इस्तेमाल होता है। इस तरह भारतीय सम्राट की शक्ति और अधिकार के प्रतीक इस चिन्ह को सेंगोल नाम दिया गया। यह सोने चांदी से बना होता है और राजा महाराजाओं के समय से कीमती पत्थरों से सजाया जाता था। सम्राट औपचारिक अवसरों पर अपने अधिकारों को दर्शाने के लिए इसका इस्तेमाल किया करते थे।सेंगोल से जुड़ी जो जानकारी मिलती है उसके मुताबिक ये चोल साम्राज्य से जुड़ा हुआ है। बताया जाता है कि यह जिसे भी प्राप्त होता है उससे न्यायपूर्ण और निष्पक्ष शासन करने की उम्मीद की जाती है। चोल शासन के दौरान राजाओं के राज्य अभिषेक और अन्य समारोह में इसका विशेष महत्व माना जाता था। इसे अधिकार का एक पवित्र प्रतीक माना जाता था जिसे एक राजा दूसरे राजा को सत्ता हस्तांतरण के दौरान सौंपता था। वैसे भी चोल राजवंश वास्तुकला, कला, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण में अपने योगदान के लिए पहचाना जाता है।

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