पूर्वी पाकिस्तान के खुलना, बरिशाल, फरीदपुर और जैसोर जनपदों से आने वाले हिन्दू बंगाली शरणार्थियों (Hindu Bengali Refugees) ने आखिर तक अपने देश में ही बसे रहने की कोशिश की। हालात सुधर जायेंगे, हिन्दू-मुसलमान दंगे रुक जायेंगे, इस उम्मीद में लाखों बंगाली 1947 से 1964 तक पूर्वी पाकिस्तान में अपने-अपने गाँव में संघर्ष करते रहे। जिन्दगी से जूझते रहे। मुसलमानों और पाकिस्तानी सरकार का अत्याचार सहन करते रहे और मरते-खपते रहे। बावजूद इसके ज्यादातर लोगों ने अपनी माटी (जमीन) नहीं छोड़ी। 1964 में हज़रतबल (कश्मीर) काण्ड के बाद हालात बेकाबू हो गये। साम्प्रदायिकता की चिंगारी ने पूर्वी पाकिस्तान को जलाकर रख दिया। जितने लोग 1947 से 1963 तक शरणार्थी बनकर भारत नहीं आये थे, उससे चार गुना ज्यादा लोग 1964 से 1971 तक रिफ्यूजी बने।इस अवधि में आने वाले शरणार्थियों को डेढ़ दशक तक पुनर्वास नहीं मिला। पहले आये लोगों के मुताबिक न तो जमीन मिली और न ही सम्मान।बंगाली शरणार्थी खुद दाउट (अलाटी) विदाउट (भूमिहीन) की खेमेबंदी में बँट गये। एक जगह से, समान परेशानी लेकर अपनी मातृभूमि छोड़ने वाले बंगाली शरणार्थी भारत में आकर दो फाड़ हो गये। एक-दूसरे को हीनता से देखने लगे। आलम यह है कि दोनों खेमों में बँटे बंगाली शरणार्थियों के बीच का तनाव और मनभेद आज तक दूर नहीं हो पाया है।25 मार्च, 1971 को बांग्ला देश की आजादी के बाद भी हजारों बंगाली शरणार्थी छुप-छुपा कर, बॉर्डर पर कँटीले तारों के नीचे से भारत में आते रहे। उन्होंने देश के तमाम राज्यों में अपने परिचितों को खोजकर रहने का ढिया बना लिया। वोटर भी बन गये और राशन कार्ड भी पा गये। लेकिन सरकारी नजरिये से ये सभी घुसपैठिया ही माने जाते रहे हैं। अलबत्ता सरकारी कार्यवाही तो नहीं हुई, लेकिन इनके साथ सभी बंगाली शरणार्थी शक के दायरे में बने हुए हैं और अनिश्चितता का जीवन जी रहे हैं।1940 में बरूई पारा की नराईल तहसील के लोहागाडा थाना के अन्तर्गत ग्राम – बरुईपुर में अधीर विश्वास के घर पर अरविंद विश्वास का जन्म हुआ था। परिवार सामाजिक आन्दोलन से जुड़ा था। अरविंद के पिता जी अधीर विश्वास मतुआ संत थे। परिवार पूर्वी पाकिस्तान छोड़ने को कतई तैयार नहीं था। लेकिन 1964 की घटना के बाद अधीर विश्वास अपनी पत्नी और तीन बेटे के साथ भारत आ गये, लेकिन शेष परिवार वहीं रहा। यहाँ भारत आकर अधीर विश्वास किसी तरह राशन कार्ड, वोटर कार्ड तो पा गए। लेकिन कंटीली तार के नीचे से छुप छुपा कर आने की वजह से घुसपैठि की संज्ञा पा गए। लेकिन वास्तविकता ये है कि हिन्दू अपने ही देश में घुसपैठि / शरणार्थी इत्यादि बन कर रह गए।

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