विश्व के प्राचीनतम एवं विविधताओ वाले धर्म का प्रतिनिधित्व करने की महँती जिम्मेंदारी हिन्दुओं की बनती हैं।अनुयायियों की संख्या के हिसाब से यह पूरी दुनियाँ मे तीसरे नंबर पर हैं।हाल ही में हिन्दु धर्म को निशाना बनाते हुये प्रसारित किये गये कुछ नकारात्मक कार्यक्रमों के कारण नेटफिक्स को चौतरफा आलोचनाओं का सामना करना पड़ा हैं। हिन्दु धर्म को लेकर किये जाने वाले दुष्प्रचार की न तो यह पहली घटना हैं और न आखिरी । जनसंचार माध्यमों मे किये जा रहे इन मिथ्या प्रचारों का हम कैसे मुकाबला कर पायेंगें यह हमारी पीढ़ीयों के लिए एक चुनौती बन गया हैं।

दुनिया भर के धर्मो की धार्मिक प्रगति का इतिहास देखे तो उसमे ‘क्या स्वीकार करने लायक हैं और क्या नही’ के बीच का अन्तर बहुत ही स्पष्ट रुप से समझाया गया हैं । इसके साथ ही वास्तविकता यह भी हैं कि इनमे से कुछ ने ईश निदा के नाम पर एक व्यापक कथानक तैयार किया हुआ था और उसके अस्तित्व की हिफाजत के लिये कई शताब्दियो तक पादरियों और मौलवियों के समूह लगे रहे थे । आदि काल से ही यूरोप और मध्य एशिया के बहुत सारे खलीफाओं ने अपनी आय का अधिकांश हिस्सा इसी काम मे लगा रखा था।इसके इतर, हिंदू धर्म अपनी अतुलनीय ज्ञान मीमांसा और धर्म शास्त्र के प्रतीक स्वरूपों के साथ सबसे अलग  दिखाई देता है।यहूदी, ईसाई और इस्लाम के विपरीत हिंदू धर्म कहीं अधिक लचीला होने के साथ-साथ उसमे ईशनिंदा जैसा कोई सिद्धांत नहीं है।विभिन्न कालखंडो और विषम दर्शनो की छाया के बाद भी इसका लचीलापन बरकार रहा हैं। दुनिया के सभी छोरों की उग्रता और विषम परिस्थितियों के बाद भी यह अपनी जड़ो से हमेशा जुड़ा रहा हैं। हिन्दु धर्म की विकासवादी प्रकृति और खुली बनावट को भी इसके लचीलेपन का श्रेय दिया जा सकता है। इस महत्वपूर्ण तथ्य को भी ध्यान मे रखना होगा कि काफी लंबे समय तक अधिकांश हिंदू समाज ने उपनिवेशवाद और दासता का सामना किया था जिसने उसे दुसरे दर्शनों और परम्पराओं के साथ सामन्जस्य बिठाने के साथ-साथ दृढ़ बनने मे भी मदद की हो सकती हैं।

उपनिवेशवाद और नैतिकता के सार्वभौमीकरण के बाद, वर्तमान सहस्राब्दी में हिंदू धर्म को अलग ही किस्म की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पिछले हजार वर्षों के विपरीत आज अधिकांश हिंदू समाज अपनी तरह से सोचने और जीने के लिए स्वतंत्र है।हम पूरी दुनिया में घूमने और अपना व्यवसाय करने के लिए स्वतंत्र हैं। परंतु वर्तमान समय के सबसे शक्तिशाली माध्यम “जन संचार” (मास मीडिया) द्वारा हिन्दु धर्म की जा रही एक नये प्रकार की आलोचना, आक्षेप और भ्रामक प्रचार का हिंदू समाज को सामना करना पड़ रहा है।अन्य सभी बातों को यदि एक तरफ रख दिया जाये तो आज सबसे खतरनाक स्थिति यह बन रही हैं कि इन दुष्प्रचारो के चलते हिंदुओं की भावी पीढ़ी का अपने उद्गम स्रोत(हिन्दु धर्म ) से ही अलग हो जाने का खतरा बन गया हैं।

मुझे तीन तरह के आक्षेप,दुष्प्रचार,और भ्रम पैदा करने वाले दिखाई देते हैं जिनकी वजह से हिंदुओं में गुस्सा और संताप है।

1) हिंदू धर्म से घृणा करने वाले, यह किसी भी नाम वाले हो सकते हैं।
यह ऐसा समूह है जिनको आसानी से पहचाना और परिभाषित किया जा सकता हैं। ये हिंदू धर्म को घृणा से देखते हैं और हिंदुओं का तिरस्कार करते हैं। इनकी इस घृणा के कारणों मे धार्मिक,राजनीतिक, ऐतिहासिक और भू राजनैतिक या इनसे मिलते-जुलते कोई भी कारण हो सकते हैं।उनमें से कई उन धर्मों और विचारधाराओं का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो पिछले सहस्राब्दी के उपनिवेशवाद के कारण अस्तित्व मे आये थे। इनमे से बहुत से लोग उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो हिंदुओं को उपनिवेशवाद के उपरांत होने वाले प्रयोगों और आकांक्षाओं के चारे के रुप मे प्रयोग करते हैं।

2) उदारवादी हिंदू

यह समूह सबसे अधिक जटिल है और यह कहना गलत नहीं होगा कि इस तरह के हिंदुओं की संख्या सबसे अधिक है।पिछले दो दशकों में, अब तक जितने भी मामले सामने आए हैं, उनमें से सबसे अधिक इसी समूह से है। इस श्रेणी की व्याख्या करने के लिए मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। कुछ भारतीय व्यापारियों ने (सभी हिंदु मान्यताओ को मनाने वाले) एक साथ मिल कर लास वेगास में एक बार खोला और अपनी असीम श्रद्धा भक्ति दिखाते हुये उन्होने महंगी स्कॉच और वोदका की बोतलों के बीच भगवान गणेश और देवी लक्ष्मी की प्रतिमाओं को एक चौकी पर रखा दिया। देवताओं के प्रति अपनी भक्ति दिखाने का यह उनका तरीका हो सकता हैं मगर उनकी इस अभिव्यक्ति के तरीके ने अनेको हिन्दुओं की भावनाओ को ठेस पहुँचाई और नाहक ही नाराज कर दिया। उन हिन्दुओं का मानना था कि क्या वे शराब की बोतलों के अलावा, देवताओ को किसी दुसरे सही स्थान पर नही रखा सकते थे।

3) यह वह लोग हैं जिन्हें कुछ पता नहीं है।

यह वह समूह है जो हिंदू समाज  से ही आता है और अपनी अज्ञानता के कारण पीडित है। परंपराओं की विविधता, मूर्ति पूजा की बहुतायत, सत्तामूलक अनुक्रम, या फिर जिनका पालन पोषण धर्मनिरपेक्ष वातावरण में हुआ हो जो कि हमारी आधुनिक भारतीय शिक्षा पद्धति की पहचान भी है। परिणाम स्वरूप, जब कोई अपनी रचनात्मक स्वतंत्रता का उपयोग करते हुये हिंदू परंपराओं, देवी-देवताओं, ज्ञान दर्शन के मूल को जाने बिना कोई व्यंग्यात्मक चित्र प्रस्तुत करता है, तब समाज के उस हिस्से में जो परंपरागत तरीके से अपना जीवन बिता रहा हैं,उसकी भावनाओं में उग्र उबाल आता है। जो कि कभी-कभी सही भी है।

हमारे लिए चुनौतियां –

प्राय:जब विवाद दूसरे या तीसरे समूह द्वारा पैदा किया जाता है तब हिंदू समाज के लिए उन परिस्थिति से निबटना अच्छा खासा मुश्किल हो जाता है। जैसा कि जानबूझकर एयरोस्मिथ के एल्बम के कवर पर भगवान विष्णु की बदली हुई तस्वीर को लगाया गया था इस मामले में यह देखने मे आया कि एक तरफ जहाँ इसे भारत में हिंदुओं द्वारा ईश्वर के अपमान के तौर पर लिया गया वही अमेरिका और यूरोप में हिंदू समाज इसे ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करने के तरीके के रुप मे लिया। ऐसा ही स्थित तब भी पैदा हो जाती है एक हिंदू संगठन या समाज हिंदू प्रतीक चिन्ह को किसी खास तरह से प्रस्तुत करता है तो दूसरा हिंदू संगठन इसे अपमान के तौर पर लेता है। इस तरह के विरोधाभास हिंदू समाज के उस संकल्प को कमजोर कर देते है, जो भ्रामक विचारों का एकीकृत प्रतिवाद करने की कोशिश कर रहा होता है।
यह सब बाते पहले समूह के लोगो को हिंदुओं की परंपराओं और प्रतीकों का निरंतर अपमान, घृणा और तिरस्कार करने का मौका देता रहता है।

हमारी जिम्मेंदारी

हिंदू नेतृत्व को तीनों समूहों में बीच एक बेहतरीन तालमेल सुनिश्चित करते हुये यह मूल्यांकन करना होगा कि तीनों में से किस समूह ने भ्रामक प्रचार या अपशब्द कहा हैं। इसके साथ ही हमे सार्वभौमिक रुप से मीडिया को हिन्दू धर्म के बारे में सटीक तथ्यात्मक जानकारियां देनी होंगी। उन्हें हमारे हिन्दु धर्म के गुरुओं,मनीषियों, ज्ञानियों, साधुओं द्वारा दिये गये ज्ञान से परचित करना होगा। हिंदू धर्म के उन जानकारों को प्रोत्साहित करना होगा जिनको ज्ञान एवं अनुभव परंपराओं और मान्यताओं के अनुसरण एवं अभ्यास करने से मिला हैं ना कि अभिजात्य वर्ग के पुस्तकालयों में रखी हुई पुस्तकों की विषयवस्तु की वजह से।हिंदू धर्म से जुड़े हुये विषयों वाली फिल्मो और टेलीविजन के कार्यक्रमों की समीक्षा उन हिन्दुओं द्वारा होनी चाहिए जो मर्मज्ञ हो तथा उस विषय के धार्मिक और ऐतिहासिक पहलूओं पर विशेष पकड़ रखते हो। उनकी समीक्षाओं के बाद ही कार्यक्रम का प्रसारण किया जाना चाहिए। 

अच्छा तो यह होगा कि हम आदि काल की उस परंपरा को पुन: जीवित करे जहां, बुद्धिजीवी प्रवचन या बातचीत द्वारा हमारे अंदर द्वंदात्मक चेतना को जगाया करते थे।तब जब सारी मानवता उस लकड़ी की खोज रही थी जिससे एक लौकिक संदूक बनाया जा सके ।
    

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