कर्मठ, डर मत।
तु भागी है कर्म के पथ पर, फिर क्यों मुझसे आशा रखती?
तु भागी है कर्म के पथ पर, फिर क्यों मुझसे आशा रखती?
एक दिन यूं अचानक भाग्य मुझसे आ टकराया
कुछ न बो ला वह मगर, पास आ हौले से मुस्काया ,
मैं झुंझलाई उस पर सहसा, फिर गुस्से से बतियाई,
जो ना दोगे मुझको कुछ, फिर क्यों मिलने हो आये?
सिसक रही थी मैं जब, उसने सर पे मेरे हाथ फिराया,
दुख से बोझिल मैं, क्या बोलूं मुझे यह बात समझ ना आई।
मै भी रूठी बड़ी हुँ तुझसे बहन, फिर भी मिलने हुँ आया ,
जग माने है मुझको व्यापक, फिर तू क्यों मुझे मान न पाई?
तु भागी है कर्म के पथ पर, फिर क्यों मुझसे आशा रखती?
कर्म के गुण तुम हो गाती, न करती हो मेरी भक्ति,
तुम लेती हो कठिन मार्ग पर चलने का है बीड़ा,
फिर क्यों कोस रही हो मुझको जब हो रही है पीड़ा?
सुनकर उसके बात मैं बढ़ने लगी जब आगे,
वह भी बढ़ा कुुछ दूर फिर मुड़ गया कुछ दूर जाके।
जिनको मिलता हुँ मैं जाकर खुद से, वह होते मेरे दास,
जो लड़कर है मुझसे जीते, उनके हाथों में करता वास।
तु भी लड़कर जीत ले मुझको, मैं भी चाहता हूँ यह,
तु मेरी बन जाएगी स्वामिनी यह तू भी कर निश्चय।
तब तक मेरे इस व्यवहार का मत करना कोई क्षोभ,
जो चलते हैं कर्म के मार्ग पर उनको में देता हुँ दूरभोग ।
तू भी चल ले कुछ दूर और लड़कर मेरे साथ,
इस बार जो हारा मैं तो मानुंगी तेरी हर बात।
सुनकर उसके इस बात को मैं बढने लगी आगे,
भाग्य भागे उनके पीछे जो कर्म से जोड़े है धागे।
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