इंदिरा की भयानक गलतियों की सजा आज तक भुगत रहा हैं देश। कश्मीर तो दूर, पाकिस्तान में कैद भारत के सैनिकों तक को नहीं छुड़ाया इंदिरा गांधी ने

16 दिसंबर की हल्की धूप वाली दोपहर को पाकिस्तानी सेना के उसी अधिकारी नियाज़ी ने अपनी कमान के 95 हजार सैनिकों समेत भारतीय सेना की पूर्वी कमान के प्रमुख ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया था। यह संयोग था कि बचपन के दो दोस्त अरोड़ा व नियाज़ी बड़ी विचित्र हालात में आमने-सामने थे। जबकि हकीकतन नियाज़ी उस पाकिस्तान के तानाशाह सैनिक शासन में ज़ोन बी के मार्शल ला प्रशासक थे, जिसकी जिद व अहंकार ने भारत पर यह युद्ध थोपा था। जिस फौज़ी शासन ने धाक्कड़ शाही अंदाज से हुसैनीवाला में रिट्रीट के मौके पर भी टैंकों से हमला कर कायरता का प्रमाण दिया था। उसी शासन के 95 हजार सैनिकों ने जब हथियार फेंके थे तब उनकी नमोशी का यह आलम था कि बड़े अधिकारियों ने अपने हथियारों के अलावा अपनी छाती व कंधों पर लगे बैज व मैडल तक उतार कर ढेर कर दिए थे। जो भाषा पाकिस्तान के सैनिकों के आत्मसमर्पण को समय लिखी गई, जिस पर ले. जनरल अरोड़ा व नियाज़ी के हस्ताक्षर हुए उस ऐतिहासिक दस्तावेज को पाकिस्तान के शासक को जरुर पढऩा चाहिए।

‘पाकिस्तान की पूर्वी कमान इस बात पर सहमत है कि समस्त पाकिस्तान की सशस्त्र सेनाएं (जिनमें जल, थल, वायु व अर्द्ध सैनिक बल भी शामिल हैं) भारत एवं बांग्ला देश सेना के प्रमुख ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण कर दे…… ले. जनरल अरोड़ा का फैसला अंतिम होगा….. समर्पण का अर्थ समर्पण ही है जिसकी और कोई व्याख्या नहीं की जा सकती।’

भारत ऐसे में फ्रंटफुट पर था। लोगों को ऐसा लग रहा था कि पाकिस्‍तान पर अब पीओके के मुद्दे पर दबाव बनाया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बुधवार को कश्मीर मुद्दे पर बुलाए गए संयुक्त सत्र के दौरान दावा पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने दावा किया कि जुल्फिकार अली भुट्टो ने बड़ी समझदारी के साथ इंदिरा गांधी से भारतीय सेना द्वारा कब्‍जाई सारी जमीन और पाक बंदी कैदियों को छुड़वा लिया था। ऐसा ही कुछ जम्‍मू-कश्‍मीर के मौजूदा हालत को लेकर पाकिस्‍तान को करना चाहिए। बता दें कि आसिफ अली जरदारी, जुल्फिकार अली भुट्टो के दामाद हैं।

भारत मैदान में जीती हुई लड़ाई को समझौते के टेबल पर आ कर हार गया। उस दौरान भारत द्वारा दिखाई गई दरियादिली का दर्द आज तक देश को सहना पड़ रहा है। 

16 दिसम्बर 1971 को भारतीय फौज ने पाकिस्तान पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी और पाकिस्तान के 96,000 से ज्यादा सैनिक युद्धबंदी बना लिए गए थे लेकिन इस जंग के बाद जब दोनों देशों के मध्य 2 जुलाई 1972 को शिमला समझौता हुआ तो इस समझौते में दोनों तरफ बंदी बनाए गए सैनिकों को छोडऩे की सहमति बनी। इसके अलावा इस समझौते के दौरान ही यह तय हुआ कि दोनों देश जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा का सम्मान करेंगे और नियंत्रण रेखा पर कोई सैन्य कार्रवाई नहीं करेगा। 

इसी समझौते के दौरान तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने नियंत्रण रेखा को ही वास्तविक सीमा रेखा मैंने की जुबानी सहमति भी दी। भारत ने भुट्टो की मीठी बातों में आ कर पाकिस्तान के सारे युद्धबंदी रिहा कर दिए जबकि पाकिस्तान ने भारत के सिर्फ 617 युद्धबंदियों को रिहा किया और 54 युद्धबंदियों में से कई आज तक पाकिस्तान की जेलों में हैं। 

भारत 1971 के बाद इस मामले को कई बार पाकिस्तान के समक्ष उठा चुका है लेकिन आज तक इसका सार्थक नतीजा नहीं निकल सका है। भारत ने यदि उस समय 96,000 पाक सैनिकों के बदले में दबाव बनाने की कूटनीति की होती तो पाकिस्तान को अपनी शर्तों पर झुकाया जा सकता था और इससे दक्षिण एशिया में स्थायी शांति की स्थापना हो सकती थी लेकिन शिमला समझौता मैदान में जीत के बाद टेबल पर की एक बड़ी चूक साबित हुआ।     

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