6 दिसंबर 1992 की वो शुभ तारीख … जिसने बदल कर रख दिया इतिहास, हर धुरी बदल गयी यानी उस दिन हर तरफ जय श्री राम के नारों के अलावा कुछ नजर नही आ रहा था। चारों तरफ धूल ही धूल थी ओर धूल में भक्ति का सरोबार चरम पर था । किन्तु यहां कोई आंधी नहीं चल रही थी, लेकिन यह शुभ कार्य किसी आंधी से कम भी नहीं था। अपार जनसैलाब था । इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि भीड़ हजारों में थी या लाखों में। हां, एक बात जो उस पूरी भीड़ में थी, वह था-जोश और जुनून। इसमें रत्तीभर भी कमी नहीं थी। ऐसा लग रहा था-जैसे वहां मौजूद हर व्यक्ति अपने आप में एक नेता था। ‘जय श्रीराम’, ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’, ‘एक धक्का और दो. जैसे गगनभेदी नारों के आगे आकाश की ऊंचाई भी कम पड़ती दिख रही थी, 6 दिसंबर के भोर का अरुणोदय, लाखों युवाओं को तरुनोदय दे रहा था। अरुणोदय के दौरान फूट रही सूर्य की किरणें किसी नवोदित सन्देश को समेटे थीं, जिसकी जानकारी सिर्फ सूर्य भगवान को ही थी ।

सब यह क्यो हो रहा था ,ओर कहा हो रहा था ,क्योंकि जुल्मो ओर आक्रांताओं के विरोध की लड़ाई थी, प्रभु भगवान श्री राम के अस्तित्व की लड़ाई थी ,.

जी हाँ हम बात कर रहे हैं 06 दिसम्बर 1992 अयोध्या की घटना की। वही अयोध्या, जिसे राम की जन्म स्थली कहा जाता है। वही राम, जिसे ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ भी कहा जाता है। और वही राम, जिनके राज में कभी किसी के साथ अन्याय नहीं हुआ। इसलिए ‘रामराज्य’ को किसी भी शासक के लिए कसौटी माना जाता है। हां बात इन्हीं राम और उनकी अयोध्या की हो रही है। इतिहास को बदलनेवाली यह घटना अयोध्या में 6 दिसंबर, 1992 को घटने जा रही थी ,ओर आने वाले समय मे भव्य राम मंदिर की नींव रखने जा रहा थी । इसका अंदाजा शायद बहुतों को नहीं रहा होगा। लेकिन कुछ बड़ा होने जा रहा था, ऐसा वहां के माहौल को देखकर समझा जा सकता था। सुबह तीन-साढ़े तीन बजे से ही सरयू में डुबकियों का शोर गूंजने लगा था , कंपकंपाते होंठ से सिर्फ रामधुन और जय श्रीराम के नारे लग रहे थे। अरुणोदय की किरणें जैसे-जैसे सूर्योदय की ओर जा रही थीं, वैसे-वैसे लोगों के पग रामलला के दर्शन की ओर बढ़ रहे थे।. तभी वहां मौजूद कार सेवकों के साथ लोगों की बड़ी संख्या  बाबरी ढांचे के अंदर तक चली गयी थी किंतु 6 दिसंबर की कहानी पहले ही रामभक्तों के द्वारा लिखी जा चुकी थी ,वेसे तो बात करे गुस्सा तो 1990 से ही लगातार था किंतु शुरुआत बहुत पहले की थी एक ऐसा राष्ट्र जो विगत 800 वर्षों से निरन्तर आक्रमण पर आक्रमण झेलता रहा। उसके धार्मिक केन्द्रों को ध्वस्त कर दिया गया। सांस्कृतिक जीवन मूल्यों को नष्ट-भ्रष्ट करने की कोशिश की गई। राष्ट्र के स्वाभिमान का मान मर्दन करने के लिए आस्था केन्द्रों पर प्रहार हुए थे ,भगवान श्रीराम के जन्मस्थान पर बने मन्दिर को बाबर के सेनापति मीरबाकी ने 1528 में तोड़कर ढांचा खड़ा कर दिया। हिन्दू समाज तब से लेकर आज तक अनेक लड़ाईयां लड़ चुका था  चार लाख से अधिक लोग बलिदान हो चुके हैं लेकिन उस स्थान पर क्षण मात्र के लिए भी हिन्दू समाज ने अपना दावा नहीं छोड़ा। यह मात्र मन्दिर मस्जिद का विवाद नहीं था । यह राष्ट्र की अस्मिता का प्रश्न था ,मजहबी पूजा स्थल के रूप में इस्लाम के लिए उस स्थान का कोई महत्व नहीं है और न ही मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य अंग है, लेकिन भारत व हिन्दू समाज के लिए श्रीराम के जन्म स्थान का क्या महत्व है, यह भारतीय संस्कृति को जानने वाला कोई सामान्य व्यक्ति भी बता सकता है। इसलिए वो घड़ी 6 दिसंबर आई थी ,बाकी 6 दिसम्बर की कहानी 1990 से लिखी जा चुकी थी बाकी उस दिन से पहले 30 नवम्बर को ही कारसेवकों का आना प्रारम्भ हो गया था 3 दिसम्बर तक अयोध्या में सिर्फ रामभक्तों का जमावड़ा देखने को मिल रहा था, 4 दिसंबर को अयोध्या के राष्ट्रीय राजमार्ग कारसेवकों के सिवा कुछ और नहीं दिख रहा था। एक तरफ जहां देशभर से कारसेवक आ रहे थे, वहीं सर्वाधिक कारसेवक उत्तर प्रदेश से आ रहे थे। राष्ट्रीय राजमार्ग थम-सा गया था। गले में भगवा पट्टी और माथे पर भगवा साफा बांधे हजारों लोग पंक्तिबद्ध कतार में दिख रहे थे। हनुमानगढ़ी, कनक भवन, वाल्मिकी मंदिर, छोटी छावनी से लेकर सैंकड़ों मंदिरों में भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। वैसे तो 6 दिसंबर 1992 के दिन की शुरूआत साल के बाकी दिनों की तरह सामान्य ही थी, लेकिन भगवान राम की जन्मस्थली पर मंदिर निर्माण के लिए सांकेतिक नींव रखने के इरादे से अयोध्या पहुंचे हजारों लोगों ने का उलास चरम पर था पूरी धार्मिक नगरी अयोध्या राम का नारो से गूंज रही थी 6 दिसंबर के सूर्योदय के गर्भ में सच में इतिहास छुपा था जिसकी जानकारी दोपहर 11-12 बजे के बीच दुनिया को पता चल गयी। सुबह के 10 बजते ही विहिप के अध्यक्ष और जन्मभूमि आन्दोलन के प्रणेता अशोक सिंहल मंच पर थे उपस्थित कारसेवकों को अपील कर रहे थे जैसे ही घड़ी की सूई ने 11 बजने का इशारा किया अचानक हजारों कारसेवक बाबरी ढाँचे के परकोटे की ओर कूद पड़े। श्री सिंहल जी माइक से आग्रह करते रहे, लेकिन रामभक्तों के मन में प्रज्ज्वलित राम ज्वार बाबरी ढाँचे पर फूट पड़ा देखते-देखते कुछ रामभक्तों ने ढांचे के गुम्बदों पर चढ़ कर भगवा ध्वज फहरा दिया और जय श्रीराम के नारे लगाने लगे। कंटीली तारों से लहू लुहान रामभक्त बाबरी ढांचे को ध्वस्त करने पर उतारू हो गए। यह देख कुछ लोग शान्त थे, लेकिन अधिकांश लोग रोमांचित ओर खुश थे वहां जो घट रहा था वह अविस्मरणीय, अद्भुत और अकल्पनीय था। रोकने वाले कार सेवकों को रोकते रहे, पर कारसेवक ढांचे को तोड़ते रहे। साधु-संत, बूढ़े-जवान सब उस घट रहे इतिहास का साक्षी बनना चाह रहे थे। पुलिस भीड़ को तितर-बितर कर रही थी। इस बीच पता चला कि मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने प्रशासन को सख्त निर्देश दिए थे कि चाहे जो मजबूरी हो, लेकिन कार सेवकों पर गोली नहीं चलेगी यह राम भक्ति से बढ़कर कुछ बड़ा नही था यहाँ तो यह भी दिख रहा था कि कई पुलिस वाले भी जय श्री राम के नारे लगा रहे थे। 11:25 बजे पहला गुम्बद टूटने लगा। वह कौन-सी अदृश्य शक्ति थी, वह कौन-सा अदृश्य साहस था जो  ढाँचे को तोड़ रहा था इसे कोई नहीं देख पा रहा था । डेढ़ से दो घंटे में पूरा ढांचा धूल-धूसरित हो गया। तत्काल पूरे उप्र में कर्फ्यू लगा दिया गया। इसी बीच पुजारियों ने रामलला को गुलाबी चादरों में लपेटकर उन्हें उचित स्थान पर स्थापित कर दिया। ढांचा तोड़ते समय अनेक लोग घायल हुए, कई लोगों की मृत्यु भी हुई लेकिन कारसेवक अपने काम से डिगे नहीं। क्या इस ऐतिहासिक क्षण की कल्पना , जिसमें कार सेवकों ने बाबरी नामक ढांचे को कुछ ही घंटे के भीतर ध्वस्त कर दिया और इस घटनाक्रम में कई कारसेवक शहीद भी हो गए? वास्तव में, यह कई सौ वर्षों के अन्याय से उपजे गुस्से का प्रकटीकरण था। इसमें 1990 का वह कालखंड भी शामिल है, जब तत्कालीन मुलायम सरकार के निर्देश पर कारसेवकों पर गोलियां चला दी गई थीं, जिसमें कई निहत्थे रामभक्तों की मौत हो गई थी।

शाम होते होते कल्याण सिंह जी ने अपना मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया

आज के समय मे राम मंदिर भव्य निर्माण कार्य शुरू हो गया है यह क्या आज कल्पना कर सकते है क्या 6 दिसम्बर 1992 के बिना यह सब कैसे सम्भव था ,अयोध्या में भूमिपूजन होने के साथ राम मंदिर पुनर्निर्माण कार्य का शुभारंभ हो गया। प्रस्तावित राम मंदिर पत्थर और सीमेंट का एक भवन न होकर भारत की सनातन बहुलतावादी संस्कृति की पुनस्र्थापना का प्रतीक है- जिसे सैंकड़ों वर्षों से विदेशी आक्रांता नष्ट करने का असफल प्रयास कर रहे थे ।

– पवन सारस्वत मुकलावा

कृषि एंव स्वंतत्र लेखक

सदस्य लेखक मरुभूमि राइटर्स फोरम

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