कश्मीरी पंडितों के बिना कश्मीरियत और जम्हूरियत दोनों अधूरी है।

शांति एवं स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास रखने वाले सभी लोगों के लिए यह बदलाव सुखद है कि जो जम्मू-कश्मीर कभी आतंकवादी घटनाओं एवं अलगाववादी गतिविधियों के कारण सुर्खियाँ बटोरता रहता था, वह आज सुधार, विकास एवं सुशासन की दृष्टि से लिए जाने वाले फैसलों के लिए जाना जाने लगा है। सरकार जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख में विकास की नित नवीन योजनाओं से लेकर त्वरित एवं ठोस निर्णयों तक लगातार सक्रिय, गतिशील एवं प्रभावी दिखाई दे रही है। नीतियों-निर्णयों की पंगुता एवं शिथिलता निष्प्रभावी क़ानून-व्यवस्था की पहली पहचान होती है। यह भी अच्छा है कि गृह मंत्री ने सदन में स्पष्ट किया है कि सरकार की मंशा जम्मू-कश्मीर को उपयुक्त एवं अनुकूल समय आने पर पूर्ण राज्य का दर्ज़ा देने की है। नीतिगत सक्रियता के साथ-साथ ऐसी साफ़ नीयत निश्चित ही स्थानीय नागरिकों का भरोसा जीतने में सहायक होगी। जिस प्रकार वहाँ आतंकवादी-अलगाववादी गतिविधियों पर विराम लगा है, पत्थरबाज़ी एवं आतंकवादियों के जनाज़े या जुमे की नमाज़ के दिन उमड़ने वाली भीड़ में कमी आई है और इन सबसे अधिक हालिया चुनावों में तमाम भीतरी और बाहरी दबावों एवं खौफ़ पैदा करने वाली धमकियों को दरकिनार करते हुए अधिकाधिक जन-भागीदारी देखने को मिली है, उससे यह कहना अनुचित नहीं होगा कि 5 अगस्त 2019 को लिए गए ऐतिहासिक फैसले का वहाँ के आम नागरिकों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है। वर्षों से सत्ता की मलाई खा रहे परिवारों और उनके रहमो-करम पर पल रहे चंद रसूखदारों की तमाम आशंकाएँ निर्मूल और निराधार सिद्ध हुईं हैं। बल्कि उनमें से कई जो प्रलय के भविष्यवक्ता-से बने बैठे थे, जो सत्ता में आने के बाद जम्मू-कश्मीर को मिले उन अस्थाई एवं विशेष प्रावधानों को पुनः बहाल करने का वादा और दावा कर रहे थे, उन्हें वहाँ की अवाम ने ही खारिज़ कर दिया। संसदीय-प्रणाली में चुनाव और उसके परिणाम ही जनमत की अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम होते हैं। और हालिया चुनाव के परिणामों से यह स्पष्ट है कि घाटी की अवाम केंद्र की नीयत-नीतियों से संतुष्ट एवं प्रसन्न है।

13 फरवरी, 2021 को लोकसभा से जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक के पारित होने से अधिकारियों की कमी से जूझ रहे इस प्रदेश को राहत मिलेगी, सरकार की विकास संबंधी तमाम योजनाओं को धरातल पर उतारने वाले अधिकारी सुलभ एवं उपलब्ध होंगें, उन विकास-कार्यों को तीव्र गति मिलेगी, एक मज़बूत-सहयोगी-शृंखलाबद्ध-प्रभावी-परिणामदायी तंत्र विकसित होगा, जिम्मेदारी और जवाबदेही सुनिश्चित की जा सकेगी। इतना ही नहीं स्थानीय अधिकारी जो चाहकर भी विगत सात दशकों में बने भ्रष्टचार के सहायक-उत्प्रेरक व्यूह-तंत्र को भेद पाने में स्वयं को अक्षम-असमर्थ पा रहे थे, अब वे भी दबावमुक्त महसूस करेंगें। चंद परिवारों, अलगाववादी नेताओं की धौंस अब उन पर नहीं चलेगी। और अगस्त 2019 तक मिली विशेष प्रावधानों-रियायतों का लाभ उठाकर जो अधिकारी जोड़-तोड़, पैरवी-पहुँच के बल पर वर्षों मलाईदार विभागों और सुगम-संसाधनयुक्त जगहों पर बने रहने के माहिर ‘खिलाड़ी’ थे, उन्हें भी अब अपने इर्द-गिर्द प्रयासपूर्वक खड़े किए गए मज़बूत सुविधा-चक्रों से निकलकर नई जगह, नए प्रदेश में जाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। अब चंद रसूखदार और परिवार उनका बेजा इस्तेमाल नहीं कर सकेंगें। इस विधेयक के पारित होने के बाद अब इस केंद्र शासित राज्य में देश के सारे नियम-क़ानून मान्य होंगें। एक देश, एक प्रधान, एक निशान के ध्येय को भाजपा ने पहले ही साध लिया था। अब एक विधान की बहुप्रतीक्षित संकल्पना भी साकार हो गई। इस नए विधेयक के अनुसार मौजूदा जम्मू-कश्मीर कैडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय वन सेवा के अधिकारियों को अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मिज़ोरम और सभी केंद्र शासित प्रदेशों में कामकाज के लिए अदल-बदल किया जा सकता है। यह विधेयक किसी-न-किसी स्तर पर विविधता में एकता की हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की अनुभूति, साझेदारी और भावना को बल प्रदान करेगा। यह सांप्रदायिक सद्भावना को भी बढ़ावा देगा। वहाँ के अधिकारी देश के अन्य राज्यों और अन्य राज्यों से आने वाले अधिकारी जम्मू-कश्मीर की रीति-नीति-परंपरा-मान्यता से प्रत्यक्षतया परिचित होंगें। क़ानून-व्यवस्था के प्रभावी क्रियान्वयन के साथ-साथ यह कला, भाषा, संगीत, साहित्य, लोकरीतियों, स्थानीय परंपराओं के आदान-प्रदान का मार्ग भी प्रशस्त करेगा।

विगत 17 मास की अल्पावधि में ही सरकार द्वारा किए गए प्रयासों और संपन्न कराए गए चुनावों को देखते हुए इस विधेयक को लेकर विपक्षी दलों की कतिपय प्रतिकूल टिप्पणियाँ महज़ औपचारिकता या केवल विरोध के लिए विरोध की राजनीति का हालिया चलन है। क्या सर्वोच्च न्यायालय में किसी मुद्दे-मामले के विचाराधीन रहने पर विधायिका, कार्यपालिका और उसके अंतर्गत आने वाली सरकारी मशीनरी को निष्क्रिय हो जाना चाहिए, विकास के कार्यों को बिलकुल ठप्प कर देना चाहिए, लोक-कल्याण की तमाम योजनाओं एवं सुविधा-सहूलियतों को पूर्णतया स्थगित कर देना चाहिए? विचाराधीन का अभिप्राय स्थगन या निरस्तीकरण तो नहीं? सरकार प्रदेश के विकास को लेकर कितनी गंभीर, प्रतिबद्ध एवं कृत संकल्पित है, यह गृहमंत्री श्री अमित शाह द्वारा सदन में प्रस्तुत किए गए तथ्यों एवं आँकड़ों से स्पष्ट है! उसे फिर से गिनाना-दुहराना कागज़ पर स्याही फैलाना होगा। परंतु जो नेता और दल निहित स्वार्थों के कारण ‘5 अगस्त 2019 को लिए गए फैसले को प्रदेश पर आक्रमण’ जैसी संज्ञा दे रहे हैं, लोकतंत्र का तकाज़ा है कि ऐसी अलगाववादी भाषा बोलने वाले नेताओं और दलों से भी चंद सवाल पूछे जाएँ। ऐसे सभी दलों और नेताओं को कश्मीरी पंडितों के सामूहिक उत्पीड़न-विस्थापन पर भी अपना मत और दृष्टिकोण स्पष्ट करना चाहिए। उन्हें घाटी में विगत सात दशकों से पंचायतीराज व्यवस्था नहीं लागू करने पर भी प्रदेशवासियों को स्पष्टीकरण देना चाहिए। उन्हें विभाजन की त्रासदी के बाद हजारों-लाखों की संख्या में पाकिस्तान से घाटी में आए हिंदू शरणार्थियों, पंजाब से आकर बसे वंचितों-दलितों, स्वच्छता कर्मियों आदि को मतदान के अधिकार से वंचित करने पर भी स्पष्टीकरण देना चाहिए और उन्हें उन तमाम वंचितों-पीड़ितों-उपेक्षितों को व्यवस्था के अंतर्गत मिलने वाले आरक्षण का लाभ नहीं देने का भी मुल्क को हिसाब देना चाहिए। उन्हें याद रखना होगा कि बात निकलेगी तो फिर दूर तक जाएगी।

सच यही है कि सात दशकों में किए गए उनके गुनाहों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी और अंतहीन है और केंद्र सरकार की विगत 17 मास की उपलब्धियाँ सुनहरे कल की उम्मीद जगाने वाली, विकास की बयार को समाज के सभी तबकों और दुर्गम इलाकों तक पहुँचाने वाली हैं। यह अकारण नहीं है कि बीसवीं सदी के सबसे बड़े पलायन और विस्थापन के शिकार कश्मीरी पंडितों के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों की आज चहुँ ओर प्रशंसा हो रही है। यह सचमुच हतप्रभ करने वाला विषय है कि रोहिंगयाओं, बांग्लादेशी घुसपैठियों तक की पैरवी में आए दिन वक्तव्य ज़ारी करने वाले बयानवीर और उनके कथित उत्पीड़न की पीड़ा में आँसू बहाने वाले तथाकथित मानवाधिकारवादी कश्मीरी पंडितों के सामूहिक पलायन- विस्थापन-उत्पीड़न पर एकदम मौन साध जाते हैं। यहूदियों पर अत्याचार करने वालों को पूरी दुनिया आज तक कठघरे में खड़ा करती है। करना भी चाहिए, पर क्या यह दुहरापन नहीं कि देश-दुनिया के तमाम धर्मनिरपेक्षतावादी गिरोह और संस्थाएँ कश्मीरी पंडितों पर मुँह सिले रहती हैं। क्या उनका पलायन-विस्थापन-उत्पीड़न क़ानून के राज और संविधान की सर्वोच्चता पर लगा अनुत्तरित प्रश्नचिह्न नहीं है? ये क्षद्म धर्मनिरपेक्षतावादी बुद्धिजीवी जिस बहुलतावादी सामाजिक ढाँचे का कोरस में गुणगान करते रहते हैं, क्या इनका पलायन-विस्थापन-उत्पीड़न उसे तहस-नहस नहीं करता? क्या यह सभ्य एवं आधुनिक समाज के माथे पर लगा सबसे बड़ा कलंक नहीं है ? कल्पना कीजिए यदि नब्बे के दशक में घाटी में यह विधेयक लागू रहता तो ऐसा सामूहिक पलायन-विस्थापन-उत्पीड़न संभव था? इसमें कोई दो राय नहीं कि यह विधेयक ऐसे कलंकित अध्यायों की पुनरावृत्ति पर अंकुश लगाएगा। यह विस्थापित कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास में तो सहायक होगा ही, घाटी में उनकी गिनी-चुनी-बची संख्या को भी ढाँढ़स, दिलासा और संबल भी प्रदान करेगा। लोकतंत्र में असली फ़ैसले जनता की अदालत में ही तय होते हैं। कश्मीरी अवाम ने विगत 17 महीनों में जिस शांति, सद्भाव, सहयोग, समझदारी, परिपक्वता एवं लोकतांत्रिक भागीदारी का परिचय दिया है, दरअसल उसे ही भारत के लोकप्रिय एवं यशस्वी प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटलबिहारी बाजपेयी ने कश्मीरियत, जम्हूरियत, इंसानियत का नाम दिया था और यह निर्विवाद एवं अटल-सत्य है कि कश्मीरी पंडितों एवं ग़ैर मज़हबी लोगों को साथ लिए बिना वह कश्मीरियत-जम्हूरियत-इंसानियत आधी-अधूरी है।

प्रणय कुमार
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