अभिज्ञान शाकुंतलम् में एक दृश्य आता है जब कुमार भरत को दो सेविकाएं एक खिलौना पक्षी दिखा कर कहती है कि ” शकुन्तलावर्ण्यम् पश्य” जिसका अर्थ है शकुंत अर्थात पक्षी का लावण्य देखो परंतु वह शिशु भरत इस वाक्य में यह समझता है कि उसे शकुंतला – वर्ण्य देखने के लिए कहा गया है और वह कहता है “कहाँ है मेरी माँ?” और इस प्रकार वहां खड़े दुष्यंत को यह पता चलता है कि इस बालक की मां का नाम शकुंतला है।
मेरे आज के इस आलेख के विमर्श का केंद्र है सिलेक्टेड नेगेटिव। यह कमाल का हथियार है इससे आप विरोधियों के तूणीर से अपने काम के बाण चुन सकते है तात्पर्य यह की जिसकी चोली भिगोनी है उसी से पिचकारी भी उधार ले लेनी है। इस्लाम और उसके पूर्ववर्ती ईसाइयत और यहूदी संप्रदाय की कमियों की तरफ इशारा करने से भी बुद्धिजीवी और धर्म निरपेक्ष धड़ा गुरेज करता है क्योंकि शार्ली एब्दो और न्यूजीलैंड की घटनाएँ उन्हें बौद्धिक हैंगओवर में जाने से रोकती है । बौद्ध मत की निंदा न होने के पीछे कई एशियाई देशों में उसका राजधर्म होना है जबकि जैन और पारसियों का अर्थ तंत्र उन्हें मजबूर कर देता है। सिखों के कमर में बंधी कटार कई बदतमीज जुबान को इनटोलरेंट होने से रोकती है परंतु सनातन धर्म गरीब की लुगाई और सब की भौजाई होती है इसलिए उसकी दो घटनायें आजकल बुद्धिजीवियों की रडार पर है।
उनमें पहला है होली में होलिका को जलाने का विरोध और दूसरा दशहरे में रावण के जलाने का विरोध। दोनों के पीछे तर्क है कि किसी स्त्री को जलाने को नैतिक नहीं बताया कहा जा सकता है और दूसरी ओर रावण को ऐसे भाई के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जो अपनी बहन के सम्मान की रक्षा के लिए राम से भिड़ जाता है।
चलिए पहले होलिका की बात करते हैं तो होलिका को स्त्री मानना बुद्धिजीवियों का सिलेक्टेड नैरेटिव है। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका एक राक्षसी थी जिसे आग में ना जलने का वरदान था या उसके पास कोई एक ऐसी चादर थी जिसे ओढ़ने पर उसे जलने का डर नहीं होता था। कहा जाता है कि अपने भाई की सहमति से वह प्रहलाद को लेकर जलती हुई आग में बैठ गई परंतु संयोग से होलिका जल गई और प्रहलाद की रक्षा हुई। इस पूरे प्रकरण में कहीं भी होलिका को जबरन जलाने की बात नहीं आई है। अब कोई खुद ही आग में कूद जाए और वह भी उस समय के शासक की बहन हो तो उसे कौन रोके। पर बुद्धिजीवियों ने पूरी कथा से होलिका के षडयन्त्र को दरकिनार कर मात्र उसके स्त्री होने को भुनाया है। कम से कम पूरी कहानी तो पढ़ लें ये बुद्धिजीवी लोग!
यह होलिका दहन प्राचीन समाज में श्रमिक वर्ग के लिए एक आयोजन था जिसमें वे लोग आग जलाते थे प्रकरण होलिका का ही था पर उस घटना की याद में जलाते थे होलिका नामक स्त्री को नहीं और इसमें समाज का संभ्रांत वर्ग लगभग कोई इंटरेस्ट नहीं लेते लेता था परन्तु अब व्यापारी वर्ग ने इसका व्यवसायीकरण करके इस उत्सव को घर घर तक फुँचाने में सफलता पा ली है। ये परम्परा कभी नहीं रही है।
परंतु आजकल एक बौद्धिक विचारधारा इस पर काम कर रही है कि सनातन धर्म की सूची में एक नारी होलिका को जलाने की प्रथा है और यह बात उनके सिलेक्टेड नैरेटिव से मैच भी करती है क्योंकि यह कुछ हद तक तक सती प्रथा वाले के कुप्रचार से जुड़ जाती है।
दूसरा सिलेक्टेड नैरेटिव है रावण जलाने का और रावण की अच्छाई दिखाने का जिसने १ साल तक सीता को अपने कब्जे में रखने के बाद भी उनका शोषण नहीं किया और यह भी उसने अपनी बहन से किए गए बर्ताव के प्रतिक्रिया में किया। अब वीरों वाली प्रतिक्रिया तो यह होती कि रावण राम को खुली चुनौती देता और वीरोचित रूप से लड़कर या तो राम को मार देता या खुद मर जाता। अब राम के मरने के बाद अगर सीता को विवाह का ऑफर देता तो शायद यह वीरोचित कार्य कहलाता परंतु स्त्री हरण का सारा प्रपंच रच कर स्त्री को चुराकर कैसा भी पुरुषोचित उदारता दिखाई जाए वह रावण की वीरता को साबित नहीं कर सकता। यह बुद्धिजीवी इस घटना में भी उस खास नैरेटिव को गायब कर देते हैं जिसमें नलकूबर ने रावण को शाप दिया था कि यदि उसने किसी स्त्री को बलात् शीलहरण किया तो उसकी मृत्यु हो जाएगी तो यदि रावण ने सीता के साथ यौन दुर्व्यवहार नहीं किया तो उसके पीछे मरने का डर था कोई पुरुषोचित औदार्य नहीं था।
यही परंपरा मैंने केंद्रीय शिक्षा संस्थान दिल्ली विश्वविद्यालय में भी देखा जिसमें उपनिषद के वाक्य को स्वागत गान की तरह प्रयोग तो किया जाता है परंतु जहां-जहां देवताओं ,धर्म ,पुण्य ,पाप, स्वर्ग या नरक का जिक्र है उन वाक्यों को हटा दिया गया है।
इसी सेलेक्टेड नैरेटिव ने सनातन को पंचिंग बैग बनाने के लिये धर्मनिरपेक्षता रूपी बाक्सिंग ग्लब्स का हमेशा उपयोग किया गया है जब्कि आप यह मान लीजिये कि अगर कोई विचारधारा भारत में धर्मनिरपेक्षता की बात करता है तो यकीन मानिये कि वह मात्र अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की बात कर रहा है क्योंकि भारत एक धर्मसापेक्ष देश है और सापेक्षता का सिद्धान्त कहता है कि मात्र प्रकाश का वेग हीं निरपेक्ष है।
सारे बुद्धिजीवियों को मोदी से चिढ़ इसी वास्ते तो है कि सभी राजनीतिक दलों को कलेक्टेड नैरेटिव सुनना पड़ रहा है और बहुसंख्यक तुष्टिकरण की बात भी सोचनी पड़ रही है।
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