ये सर्व विदित तथ्य है कि सर सैयद अंग्रेज़ो के वफादार थे, द्विराष्ट्र सिद्धान्त के जनक और समर्थक थे, उन्होंने कभी भी पूरे मुस्लिमो के लिए भी नही सोचा, बल्कि उन्हें सिर्फ अशराफ मुस्लिमो (मुस्लिम शासक वर्ग/मुस्लिम अभिजात्य वर्ग/सैयद, शेख, मुग़ल, पठान) की उन्नति की चिंता थी, वह सैयद, शेख, मुग़ल, पठान के अतिरिक्त अन्य मुस्लिम जातियों के लोगो को मुसलमान नही मानते थे। वह जातिगत ऊंच नीच के समर्थक थे, महिला शिक्षा के धुर-विरोधी थे|
न केवल सर सैयद वो प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने भारत के विभाजन के बीज डाले बल्कि मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति का मार्ग भी प्रशस्त किया।
सर सैयद जैसे सामंतवादी व्यक्ति का महिमा मंडन एक राष्ट्रवादी, देशभक्त, लोकतंत्र की आवाज़, हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक, इंसानियत के सच्चे अलंबरदार के रूप में किया गया है, जो बिल्कुल बेबुनियाद और झूठ पर आधारित है। मज़े की बात ये है कि यह सब बातें उनकी लिखी उसी किताब(असबाबे बगावतें हिन्द) के संदर्भ से साबित करने की चेष्टा किया गयी है जो उनके सामंतवादी, राष्ट्रविरोधी, हिन्दू-मुस्लिम एकता के विरोधी, जातीय ऊंच नीच एवं भेदभाव का प्रतिनिधि है
मैं केवल असबाबे बगावतें हिन्द पुस्तक जो सर सैयद द्वारा लिखित है, से कुछ उद्धरण प्रस्तुत कर बात को तार्किक और संक्षिप्त करने का प्रयास करूंगा।अशराफ वर्ग ने सर सैयद को लोकतंत्र की प्रथम आवाज़ साबित करने की दुःसाहस किया है जिसके जवाब में मैं असबाबे बगावतें हिन्द से एक उद्धरण प्रस्तुत करता हूँ जिससे ये बात साफ हो जाती है कि वो लोकतंत्र के नही बल्कि राजतंत्र के पैरोकार थे और राजा को ईश्वर की छाया समझकर पूज्य मानते थे। लिखते है कि…..
“सच है कि हक़ीक़ी बादशाहत( सच्चा राजपाठ) खुदा ताला का है जिसने सारी सृष्टि को पैदा किया, लेकिन अल्लाह ताला ने अपनी हक़ीक़ी बादशाहत के प्रतिरूप के तौर पर इस दुनिया में राजाओं को पैदा किया, ताकि उसके बंदे इस प्रतिरूप से अपने सच्चे बादशाह को पहचान कर उसका धन्यवाद ज्ञापित करें, इसलिए बड़े बड़े दार्शनिकों और बुद्धिजीवियों ने यह बात ठहराई है कि जैसा उस सच्चे बादशाह के गुण, दानशीलता, उदारता, कृपा है, उसी का नमूना इन सांसारिक राजाओं में भी होना चाहिए, यही कारण है कि बड़े बड़े बुद्धिजीवियों ने बादशाह को ज़िल-ले-इलाही (अल्लाह की छाया) बताया है।”
(पेज न० 47, सर सैयद अहमद खान, असबाबे बगावतें हिन्द, प्रकाशक मुस्तफा प्रेस लाहौर)
सर सैयद के हवाले से यह भी कहा जाता है कि वो एक राष्टवादी मुसलमान थे। इसकी भी सत्यता की जाँच कर लेते हैं, सर सैयद लिखते हैं….
“…अगर उन्ही दोनो क़ौमों की पलटन इस तरह बनती कि एक पलटन केवल हिन्दुओ की होती जिसमें कोई मुसलमान ना होता,और एक पलटन सिर्फ मुसलमानो की होती जिसमें कोई हिन्दू ना होता, तो ये आपस की एकता और भाईचारा होने ही नही पाती, और वही तफरका(भेदभाव,भेद) बना रहता, और मेरा विचार है कि शायद(सम्भवतः) मुसलमान पलटनों को नए कारतूस काटने में कोई आपत्ति ना होता।”
(पेज न० 52, सर सैयद अहमद खान, असबाबे बगावतें हिन्द, प्रकाशक मुस्तफा प्रेस लाहौर)
उपर्युक्त उद्धरण सर सैयद के हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक होने के झूठ का पर्दाफाश कर देता है।
अंग्रेज़ो को ये भरोसा दिलाने के लिए कि बगावत अशराफ मुसलमान ने नहीं बल्कि देसी पसमांदा छोटी जाति के मुसलामनों ने किया था, लिखते हैं….
“जुलाहों का तार तो बिल्कुल टूट गया था, जो बदज़ात(बुरी जाति वाले) सब से ज़्यादा इस हंगामे में गर्मजोश(उत्साहित) थे।”
(पेज न० 37, सर सैयद अहमद खान, असबाबे बगावतें हिन्द, प्रकाशक मुस्तफा प्रेस लाहौर)
ऊपर लिखी विवेचना से यह बात साबित होती है कि सर सैयद को धर्मनिरपेक्ष, राष्ट्रवादी, देशभक्त, लोकतंत्र की आवाज़, हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक और इंसानियत के हीरो के रूप में प्रस्तुत करना कोरी कल्पना पर आधारित है और अशराफ वर्ग सर सैयद को हीरो बनाकर उसके नाम का लाभ आज भी यथावत प्राप्त करना चाहता है।
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