(newspremi dot com, रविवार, २४ जनवरी २०२१)

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तुलना में पंडित जवाहरलाल नेहरू उम्र में आठ वर्ष बड़े थे. नेहरू का बचपन इलाहाबाद में बीता. सुभाष उडीसा के कटक शहर में पले बढ़े. दोनों के पिता अच्छे खासे सुखी थे. मोतीलाल नेहरू तो बड़े धनवान थे. जानकीनाथ बोस भी लॉयर थे. प्रैक्टिस अच्छी चल रही थी. जानकीनाथ के घर में टेनिस कोर्ट या स्वीमिंग पूल नहीं था लेकिन उनके यहां धन का अभाव नहीं था. पढ़ाई का महत्व दोनों परिवारों में था.

नेहरू को संस्कृत पढ़ाने के लिए गंगानाथ झा नाम के विद्वान आया करते थे लेकिन देवभाषा उनकी विद्या में फली नहीं. इसके बजाय विदेशियों की संगत में नेहरू अंग्रेजी साहित्य में रम गए. सुभाषबाबू को रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद में रस आने लगा. उनके बारे में सबकुछ पढ डाला. सुभाषबाबू अन्य मित्रों के साथ विद्यार्थियों का ग्रुप बनाकर उन महापुरुषों के विचारों के बारे में चर्चा किया करते. नेहरू-सुभाष की मानसिकता किशोरावस्था से ही अलग अलग दिशा में जाने लगी.

नेहरू १९०५ में विदेश पढ़ने गए. कुल ७ साल इंग्लैंड में रहे. १९१२ में लौटे. इस दौरान `मुझमें पूर्व और पश्चिम के संस्कारों का मेल कुछ अजीब तरह से हुआ और मैं न यहां का रहा, न वहां का’, ऐसा स्वयं नेहरू ने लिखा है.

सुभाष चंद्र अक्टूबर १९१९ को विलायत गए और १९२१ में लौट आए. तकरीबन डेढ साल में ही. सुभाषबाबू ने वहां जाकर इंडियन सिविल सर्विसेस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया. आईसीएस बनने के बाद अंग्रेजी सरकार की सेवा करके सारी जिंदगी सुख समृद्धि में बिताने का मौका था. लेकिन सात ही महीने में मनोमंथन के बाद उन्होंने बडे भाई शरद चंद्र बोस (जो नेहरू की ही उम्र के थे) को लिखा. `हर सरकारी कर्मचारी, चाहे वह मामूली, चपरासी हो या फिर गवर्नर की तरह लाटसाहब हो, आखिरकार तो वह भारत में ब्रिटिश सरकार की जड़ें गहराई तक ले जाने में ही मदद कर रहा होता है.’

नेहरू को भारत आने के बाद अपनी चाल चलन से बाहर आने में वर्षों लग गए. नेहरू जब १९१२ में विलायत से लौटे तब २३ साल के थे. सुभाष १९२१ में लौटे तब २५ के थे. नेहरू ठीक चार साल बाद १९१६ में गांधीजी से प्रत्यक्ष मिले और उसके चार साल बाद १९२० में प्रतापगढ़ तथा जौनपुर के किसानों के संघर्ष से जुडे.

सुभाषबाबू १९२१ में लंदन से मुंबई लौटने के बाद उसी दिन दोपहर को गांधीजी से मिलने मुंबई के गिरगांव इलाके में लबर्नम रोड पर `मणिभवन’ में गए. सुभाष ने गांधीजी और उनके अनुयायियों को खादी के वस्त्रों में देखा. स्वयं विदेशी पोशाक में थे. उन्होंने अपने इस पहनावे के लिए गांधीजी से क्षमा मांगी और गांधीजी ने मुस्कुराकर सुभाष को कंफर्टेबल फील कराया. लेकिन इससे पहले वे गांधीजी का माइंडसेट जानना चाहते थे. चर्चा के दौरान सुभाष ने गांधीजी से तीन मुद्दों पर स्पष्टीकरण मांगा. एक तो, वे जानना चाहते थे कि आंदोलन के अंत में जनता किस तरह से असहयोग आंदोलन में जुडकर सरकार के विरूद्ध ना-कर (कर नहीं भरने) की लड़ाई में जुडेगी? दूसरी बात, असहयोग की लडाई के कारण और कर नहीं भरने से ब्रिटिश सरकार पर किस तरह से यह देश छोडकर जाने और भारतीयों को स्वतंत्र करने का दबाव पडने वाला है? और तीसरी बात सुभाषबाबू यह जानना चाहते थे कि एक वर्ष में ही स्वराज मिल जाएगा, ऐसा वचन गांधीजी किस आधार पर दे रहे थे?

गांधीजी के पहले सवाल के जवाब से सुभाष पूरी तरह से संतुष्ट हो गए लेकिन शेष दो सवालों के जवाब सुभाष के गले नहीं उतरे. गांधीजी से मिलने के बाद खुद `हताश हुए, परेशान हो गए’ ऐसा सुभाष ने लिखा है. इसके विपरीत गांधीजी से पहली ही मुलाकात में नेहरू अत्यंत प्रभावित हुए थे.

गांधीजी की सलाह पर सुभाषबाबू कलकत्ता जाकर देशबंधु चित्तरंजन दास से मिले. सुभाष ने कैंब्रिज की कालावधि में उनके साथ पत्र व्यवहार तो किया ही था. देशबंधु से मिलकर सुभाष उत्साह में आ गए. गांधीजी से मिलने के बाद हतोत्साहित होने के बावजूद सुभाष गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस के कामकाज में आकंठ डूब गए.

१७ नवंबर १९२१ को प्रिंस ऑफ वेल्स का मुंबई में आगमन हुआ. भारत में उनके आगमन के विरोध में देश भर में प्रदर्शन हुआ, हडताल हुई. उस दिन कलकत्ता का सारा जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया और कलकत्ता में संपूर्ण बंद कराने का सारा श्रेय सुभाषचंद्र बोस को जाता था. उनकी अगुवाई में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने कलकत्ता बंद करने की जिम्मेदारी संभाली थी. इसके विपरीत सरकार ने तमाम देशप्रेमी संगठनों' पर प्रतिबंध लगा दिया जिसे चुनौती देने का फैसला कांग्रेस ने किया. लेकिन देशबंधु चित्तरंजन दास की रणनीति अलग थी. वे मानते थे कि सरकार के साथ इस समय खुल्लमखुल्ला लडना बाढ में तैरने के बराबर है. सरकार का विरोध आरंभ में छद्म तरीके से करना चाहिए. आरंभ में पांच पांच कार्यकर्ताओं को वेश बदलकर खादी के कपड़े बेचने के लिए बाहर छोडना चाहिए. फिर यदि सरकार ऐसे छोटे समूहों के खिलाफ कदम उठाती है तो लोगों को लगेगा कि सरकार सामान्य लोगों को परेशान कर रही है, उन पर अत्याचार कर रही है, उन्हें अपना काम नहीं करने दे रही. जब ऐसा होगा तभी कांग्रेस के ध्वज तले रैली निकालनी चाहिए. चित्तरंजन दास की योजना के अनुसार उनकी पत्नी बसंती देवी स्वयंसेवकों के पहले समूह में जुडीं. सरकार ने वही किया जो चित्तरंजन दास ने सोचा था. बसंती देवी को गिरफ्तार किया गया. लोगों का गुस्सा भडक उठा. सुभाषबाबू ने लिखा है:वह समाचार जंगल की आग की तरह शहर में फैला गया और बच्चे-बूढे, गरीब-अमीर हर कोई स्वयंसेवक बनने के लिए दौडभाग करने लगा. सरकार सचेत हो गई. उन्होंने सारे शहर को सशस्त्र छावनी में बदल दिया.’

जनता की इस क्रोध की आग ने ब्रिटिश पुलिस को भी जला दिया. कई कान्स्टेबलों ने अगले दिन इस्तीफा देने की शपथ ली. सरकार को मध्यरात्रि को ही बसंती देवी को मुक्त कर देना पडा. स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी देना शुरू किया. जेलें भर गई. छावनी के कैदखानों में भी जगह नहीं बची. आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार ने देशबंधु चित्तरंजन दास और उनके निकट के साथियों को पकड लिया जिसमें सुभाषबाबू थे. १० दिसंबर १९२१ की शाम को सुभाषचंद्र बोस जेल में गए. ब्रिटिश राज में ऐसे अन्य दस कारावासों को उन्हें भुगतना था.

संयोग देखिए. बाद में सुभाषबाबू के कट्टर विरोधी साबित हुए जवाहरलाल भी १९२१ में ही पहली बार जेल गए और वह भी दिसंबर में ही. पांच दिसंबर को.

(क्रमश:)

आज का विचार

इतिहास में कभी बातचीत या मंत्रणाओं से कोई परिवर्तन आया ही नहीं है.

— सुभाष चंद्र बोस

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