इस दौर में जब मीडिया का नैतिक पतन अपनी सीमा के आखिरी पायदान तक पहुँच चुका है तब उसे देश और समाज के खिलाफ साजिशें करने के लिए सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिया जाए क्योकि वह मीडिया है? कोई समझाए कि कैसे सीमाओं की सुरक्षा करते हुए हजारों सैनिकों के बलिदान को उस मीडिया की सड़ चुकी स्याही से स्याह होने दिया जाए? व्यक्तिगत महत्वकांक्षा की अधीरता व विदेशी पुरस्कारों के लालच में कैसे उन्हें पर नंगा नाच करने के लिए छोड़ दिया जाए?मीडिया पर जितने चाहे अति राष्ट्रवाद का आरोप लग जाये मग़र सच ये है कि आज भी ज्यादातर मीडिया घरानों पर राष्ट्र के खिलाफ नंगा नाच करने वाले बामपंथियों का कब्जा है और ये कब्जा विचारधारा की वजह से नही बल्कि शुद्ध आर्थिक लाभ की वजह से है।
राष्ट्रवाद को मीडिया का एक बहुत बड़ा धड़ा बड़ी हेय दृष्टि से देखता है और उसके पीछे “पत्रकारिता की कोई शरहदें नही होती” टाइप की चाहे कितनी भी कहानियां गढ ली जाए लेकिन उसके मूल पर भी आर्थिक ताना बाना ही है। कभी सोच कर देखिए कि क्या आपके राष्ट्रवाद से दुनिया के किसी दूसरे मुल्क, संस्था या व्यक्ति का लाभ संभव है? तो उत्तर है नही! राष्ट्रवाद का मूल अर्थ ही है कि आप बस अपने राष्ट्र के हितों की सोच रहें है और उसी की रक्षा कर रहें है अतः ऐसी स्थिति में अतंर्राष्ट्रीय सपोर्ट फण्ड या पुरस्कार तो छोड़िए, आप खुद दुनिया के हितों के लिए खतरा बन जाते हैं।
अभी हाल ही में न्यूज़क्लिक पर चाइनीज फंडिंग के आरोप लगें है और ये आरोप ऐसे ही नही हैं। आप न्यूज़क्लिक की वेबसाइट में जाइये और इसमे प्रकाशित कंटेंट को देखिए कि वहाँ कैसे बीजिंग के हितों को प्रोमोट किया जा रहा है कैसे देश की वैक्सीन को धता बताकर बीजिंग के तारीफ में तराने गाये जा रहें हैं। कोरोना ने दुनिया भर में तबाही मचाई मग़र आपने क्या कभी किस देश की कब्रगाहों या शमशानों की तश्वीरें देखी हैं? मग़र भारत के शमशानों की तश्वीरें दुनिया के हर बड़े अखबार में मुख्य पृष्ठ में छापी गयी हैं। कहने को तो कहा जा सकता है कि इसमे बुराई क्या है, देश की नाकामी थी इसलिए उसे छापा गया मग़र खुद से सवाल भी करिये कि क्या ये नाकामी अकेले भारत की है? क्या दुनिया में कोरोना से मौतें नही हुई है? मौतें हुई हैं बिल्कुल हुई हैं और भारत से ज्यादा हुई है मगर सच ये है कि ये परसेप्शन का युद्ध है जो लगातार भारत के ही लोग भारत के खिलाफ लड़ रहे हैं। इन लड़ाकों में अकेले मीडिया के लोग नही हैं, इसमे तथाकथित समाजसेवी, स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष, एक्टिविस्ट, और बामपंथी समूहों का भी प्रभुत्व है। जब मैं बामपंथी कहता हूँ तो इसका मतलब विचारधारा नही अपितु देश के खिलाफ काम करने वाले गिरोहों से है। अब एक बार सोच कर देखिए क्या ये लोग सिर्फ सरकार की आलोचना करने के लिए भारत के हितों को नजरअंदाज कर रहे हैं या उसके पीछे कोई वजह हैं?
आज के दौर में जब मीडिया की स्वतंत्रता पर चिंता जताई जा रही है ऐसे समय मे क्या मीडिया के व्यवसायीकरण पर चिंता नही जताई जानी चाहिए? किसी मीडिया हाउस की पैरेंट कंपनी अखबार भी छाप रही और और वही रियलस्टेट, टेक्सटाइल, एनर्जी जैसे दूसरे सेक्टर्स में भी काम कर रही है। सोच कर देखिए कि ऐसी स्थिति में वह पत्रकारिता के साथ कितना न्याय कर सकती है? एक व्यवसाय तमाम तरह के सरकारी कायदे कानून में बंधा होता है, उसके सर पर जितनी जिम्मेदारी अपने लाभ को लेकर होती है उतनी ही जिम्मेदार स्टेट के कानून के पालन की भी होती है मगर नैतिक रूप से पतन मीडिया घराना अक्सर ऐसी स्थिति में मीडिया को अपने व्यवसाय की ढाल की तरह उपयोग करने लगता है। जब भारतीय कानूनों के तहत, टैक्स चोरी, मनी लॉन्ड्रिंग या दूसरे कारणों से सरकारी एजेंसियों उनसे कोई सवाल या कार्यवाही करती हैं तो ऐसे ही लोग द्वारा ‘मीडिया’ वाले सेक्शन को आगे करके “मैं स्वतंत्र हूँ, मैं दैनिक भास्कर हूँ” जैसी कर्णप्रिय पंक्तियों को बेचना शुरू कर दिया जाता है। वह लोगों को कभी नही बताते कि दरअसल उनपर कार्यवाही का कारण उनकी विचारधारा या सरकार की आलोचना नही बल्कि टैक्सचोरी या मनी लॉन्ड्रिंग है।
-राजेश आनंद
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