हैं जल रहे लोग सब, जल रही हैं खिड़कियाँ

मैं आस-पास देखता, जो देखा सारा लिख दिया

कहानियाँ, सब अपनी-अपनी लिख रहे

मैं सच कह रहा हूँ, पर झूठ ही है बिक रहा

ये क़त्ल कर रहे है, मांगते इंसाफ क्यों

बिछाते ये लाशें, कुकर्म इनके माफ़ क्यों

काले करके घर, दागदार ये साफ क्यों

बिछाते ये लाशें, कुकर्म इनके माफ क्यों

ये नोचें होठों को, बोलें लब करें आज़ाद हम

ये मनाते जश्न जब मृत्यु का सबको होता ग़म

सत्य की बात कहें, बातों में इनके सत्य कम

खिलखिला के हस्ते, जब आँखे सबकी होती नम

ये झूठे लोग, बनते रक्षक समाज के

वास्तव में ढोंगी, न काम के न काज के

स्वाभिमान को ये रूह से निचोड़ लें

फिर बात करते करने की तुम को आजाद ये

रोग ये समाज में न जाने क्या इलाज़ है

ये बाँट के समाज बोलें एकता पे नाज़ है

ये गा रहे हैं झूठ गान पाखंड की आवाज में

ये बाँट के समाज बोले एकता पे नाज़ है

मैंने ठान लिया है अब चुप न रहूँगा

शिवभक्ति करूँ मैं सत्य कहूँगा

शुरुआत करी है अब ना रुकूँगा

आतंक के आगे अब न झुकूँगा

ढपली नही अब शंख बजेगा

डमरू की ताल तांडव चलेगा

शरीर का कण-कण  कहेगा

पापी मिटेंगे और धर्म बढ़ेगा ।।

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