– लेखकः हेमंतकुमार गजानन पाध्या।
विवाह या लग्न मानव जीवनकी एक धार्मिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और वंशीय परंपरा और व्यवस्था हैं । भारतीय तत्वज्ञान और शास्त्रोंके अनुसार विवाह या लग्नको पुरुष या नर और स्त्री या नारीके दो आत्माओंका आध्यात्मिक मिलन या संयोजन माना गया हैं । इसलिये उसे नर और नारी याने शिव और शक्तिके शुभ मंगल, पावन और पवित्र बंधन एवं मिलनकी परिभाषा दी जाती हैं । लग्न या विवाह पुरुष या नर और स्त्री या नारी के सामाजिक और आध्यात्मिक मिलन की प्रक्रिया हैं, जिसमें पुष्ट वय के स्त्री और पुरुष अग्नि-देवता की उपस्थिति में मृत्यु पर्यंत एक साथ सहयोगी बनने की और अपने सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यो का पालन करके धर्म, कुल और समाजके प्रति अपना दायित्व निभानेकी प्रतिज्ञा लेते हैं। हमारे आर्य, सनातन या वैदिक धर्म के अनुसार विवाह और उसके पर्यंत प्रजोत्पत्ति को हर पूरूष और स्त्री का धर्म-ऋण और पितृ-ऋण माना जाता हैं। जो हर व्यक्ति अपने वंशकी वृद्धि करके, अपने कुटुम्ब, मानव समाज, राष्ट्र और धर्मे की उन्नति में अपना योगदान समर्पित करना होता हैं। हमारे आर्य-धर्म के अनुसार विवाह या लग्न को भौतिक और जातीय उपभोग का साधन नहीं माना जाता, उसे एक परमेश्वर सृजित पावन पवित्र और पूण्यदायी धार्मिक और नैसर्गिक व्यवस्था का आधार-स्तंभ माना जाता हैं। इसीलिये तो नवविवाहित युगल को ‘प्रभुता में पैर रखे’ ऐसा कहा जाता हैं। आर्य या हिन्दु धर्मके तत्वज्ञानके अनुसार विवाह या लग्न कोई कायदाकीय दस्तावेज या व्यवसायक एवं भौतिक खरीदी नहीं हैं , दो आत्माओं का धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मिलन हैं। लक्ष्मी और नारायण का दिव्य मिलन हैं!
हमारे धर्म, संकृति और सामाजिक नियमों और प्रणाली के अनुसार हमारे समाज में अपने पुत्र और पुत्री के विवाह या लग्नके लिए सुयोग्य कन्या या वर निश्चित करने का निर्णय माता पिता और संबंधी जन, वर-वधु की सहमति से करते हैं। जिसका ब्रह्म विवाह के नाम से हमारे शास्त्रो में उल्लेख किया गया हैं। पश्चिम में ये ब्रह्मविवाह को ‘अरेंज्ड मैरिज’ के नाम से जाना जाता हैं। हमारे शास्त्रों के मतानुसार विवाह या लग्न को उनकी परिस्थिति के अनुसार और उनकी गुणवत्तानुसार आठ प्रकार के बताए गये हैं। इसमें प्रेमविवाह का भी स्थान है। प्रेम-विवाह एक पश्चिमी संस्कृति से हैं, ये कहना अत्यंत अनुचित है, क्योंकी हमारे शास्त्रों में गांधर्व विवाह या प्रेम लग्न के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। मगर उस समय प्रेम की परिभाषा में आध्यात्मिकता सर्वोपरि रहती थी, इसमें वासना और उपभोग को कोई स्थान नहीं था। इसलिये प्राचीन काल में समाज में प्रेम-लग्न की संख्या अति कम थी। इसी कारण हिन्दू समाज में ब्रह्म-विवाह या ‘अरेंज्ड मैरिज का स्थान सर्वोपरि रहा है।
पाश्चात्य संस्कृति और भौतिकताके रंगे में रंगे हुए युग में भारत के कई पढे लिखे नवयुवक और युवतियां ब्रह्मविवाह के बारे में बिना सोचे समझे, स्वतंत्रता के नाम पर विरोध और आक्रोश प्रकट करते रहे है। ब्रह्म-लग्न को पिछड़ी, पौराणीक और प्राचीन व्यवस्था बता कर उसकी मजाक और हंसी भी करते हैं। वेशभूषा और देखने में आर्य, हिंदु या भारतीय लगते नवयुवा ये भूल जाते हैं, की हमारी संस्कृति और धर्म में और पश्चिमी संस्कृति और धर्म से प्रेम की परिभाषा और अर्थ भिन्न हैं। पश्चिम में प्रेम ही वासना है, और वासना ही प्रेम हैं। किंतु हमारे लिए प्रेम प्रभुता और ऐश्वर्य हैं। यध्यपि ये कलयुग में या होलीवुड, बोलीवुड, टोलीवुड के युग मे जहां देखो वहां इस प्रेम पर आकर्षण का ही सिलसिला बन गया हैं। सच्चा प्रेम है कहां?
जातीय आकर्षण कभी सच्चा प्रेम हो नहीं हो सकता। जातीय आकर्षण को प्रेम का नाम देने वाले अज्ञानी और बुद्धिहीन ही हो सकते हैं। आजकल भारत में भी पश्चिम के देशों की संस्कृति के अंध अनुकरण से लडका लडकी लग्न पहले ‘बोय-फ्रेन्ड’ या ‘गर्ल-फ्रेन्ड’के साथ अकेले रहने की चाह, एक फैशन बनती जा रही है। यह भारतीय संस्कृति के नाम पर महान कलंक है। आधुनिक पश्चिमी विचार धारा वाले एसे नव युवा और युवती प्रेम के नाम पर और विवाह के पहले एक दुसरे से अच्छी तरह जान पहचान बनाने के नाम पर बहाना बनाते है पर वो ये भूल जाते हैं, की पांच-सात साल साथ में रहनेके बाद, विवाह करने वाले पश्चिमी प्रेमी युगलों के लग्न एक या दो साल में ही ‘डिवोर्स’ लेकर समाप्त हो जाते हैं! पश्चिमी ढंग से ज़ीवन जीने और अवैध्य प्रेम-लग्न की हिमायत करने वाले ये भूल जाते हैं, की माता-पिता और संबंधिओं की सहमती, आज्ञानुसार और आशिर्वाद से किया हुआ लग्न, महत्तम सफल और मंगलमय होता हैं। हमें सच्चे और सुयोग्य प्यार करनेवालों के प्रेमलग्न करने पर कोई विरोध या आपत्ति नहीं होनी चाहिये क्युंकी हमारे धर्म में भी प्रेमलग्न का स्थान स्विकार्य है, जो आध्यात्म प्रेम पर निर्भरित हो, वासना-मय बोलिवुड या पश्चिमी होलीवुड वाला प्रेम न हो। हमारे धर्म संस्कृति और परंपरा को बिना जाने सोचे समझे आलोचना और गाली देनेवालों को कभी क्षमा भी करना नहीं चाहिये। बोलीवुड वाले प्रेमलग्नों को सर्वोत्तम मानकर उनकी प्रशंसा और प्रचार के ढ़िढौरा पीटने वाले और माता-पिताकी ईच्छा और आशिर्वाद से होते‘अरेंज्ड मेरेज’की उपेक्षा और विरोध करने वाले नव युवाकौ और लोगों को ये समझ लेना चाहिये, की हाल के प्रेमलग्नों में ‘डिवोर्स’ की संख्या तुलनात्मक रुप से ब्रह्मविवाह या ‘अरेंज्ड मेरेज’से कई प्रतिशत अधिक हैं।
मानव जीवन में लग्न या विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कार है। हमारे धर्म की मान्यता के अनुसार विवाह एक ऐसा मिलन और संबंध है, जो केवल नवदंपति स्त्री पुरुष के जन्मांतर का ही नहीं, दोनो के परिवार का भी अटूट और चिरंजीवी मिलन और संबंध हैं। हमारे धर्म में गृह्यशास्त्र के अनुसार नवदंपति का मूलधर्म धर्मसेवा, प्रजोत्पत्ति, कुटुम्बसेवा, समाजसेवा, प्राणीसेवा, जनसेवा और राष्ट्रसेवा, धर्मपालन, कर्तव्यपालन, दान पूजा पाठ, प्रभुसेवा, पितृसेवा और मौक्ष प्राप्तिका होता है। इन दायित्व की पूर्तीके लिए जीवन में पुरुष या स्त्री को सुयोग्य पात्र की आवश्यकता होती हैं। विवाह समय जो “कुर्यात सदा मंगलम” के श्लोक पढे जाते हैं, उनके पीछे यही सदभावना रहती है, हर विवाह संबंधं सदा सर्वदा मंगलमय और आनंदमय हो।
इसी मंगलमय होने की कामना से अपने वंश की गरिमा और गौरव बढाने के लिए प्रत्येक माता-पिता अपने पुत्र या पुत्री के विवाह के लिए सुयोग्य और सुपात्र व्यक्ति की झंखना और तलाश करते हैं। हमारे समाज में विवाह के लिए योग्य पात्र नियुक्त करने का दायित्व माता-पिता का रहता हैं, क्योंकि उनकी सामाजिक विचार समझ सोच ज्ञान और जीवन अनुभव पुत्र या पुत्री से अधिक होता हैं, जो अपने संतान का और अपने वंश और कुटुंब का सदा हित ही चाहता हैं। हर माता पिता अपने पुत्र या पुत्रीके लिए कन्या या वर की पसंदगी में सामने वाली व्यक्ति और उनके कुटुंब के संस्कार, चारीत्र्य, प्रतिभा, प्रणाली, अनुवांशिक रोग, आर्थिक, सामाजीक, धार्मिक परिस्थिति और समाज में उनके स्थान को महात्ता देते और तलाश करके ही अपने संतान की अनुममति से बात को आगे बढाते हैं। वे अपनी संतान के दांपत्य जीवन को सुखमय और आनंदमय देखना चाहते हैं। हमारे ऋषि महर्षियौ ने विवाह विषय पर गहन ज्ञान देने के आशय से मार्गदर्शिका के स्वरुप में नियमों के मापदंड के ग्रंथों का निर्माण किया जो गृह्यशास्त्र, मनुस्मृति जैसे ग्रंथों के रुपमें प्रचलित हैं। सामाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र और विज्ञान पर आधारीत नियमों और सुचनाएं आज हजारों वर्षों के बाद भी तथ्यपूर्ण, व्यवहारिक, वास्तविक और सत्य प्रमाणित र हुई हैं।
उदाहरण अनुसार हमारे धर्म में लोहीकी सगाई और सगोत्र विवाह याने सगे या पित्राय भाई बहनों मे और एक ही गोत्र के स्त्री और पुरुष के विवाह पर प्रतिबंध घोषित किया हैं। आज के अनुवांशिक विज्ञान [जेनेटिक साईन्स] ने ये बात प्रमाणित भी की है, हमारे ऋषि महर्षियों के सगोत्र और लहु-संबंधी के लग्न विरोध की बात सही बताई हैं, क्युंकि सगोत्र और लहु संबंधीयों के विवाह से पैदा होती संतानों में और उनके भविष्य-वंश में हानीकारक अनुवांशिक रोगो [जेनेटीक डिसिज] और अनुवांशीक अपंगता [जेनेटीक म्युटेशन] उदभवीत होते हैं। जो भविष्य की पीढ़ी को शारिरिक और मानसिक अपंगता और सर्वनानाश की और ले जाती हैं। इन्ही कारणों से ईजीप्त के ‘फेरो’ वंश और युरोप में ओस्ट्रीया के शक्तिशाली राजकुटुम्ब ‘हाउस ओफ ह्सबर्ग’ राजवी वंश का सर्वनाश हुआ था। वैज्ञानिकों का मानना हैं कि, मुस्लीमों मे जो मांमा चाचा फोई मौसी के भाई बहनों में शादी करने की प्रथा हैं, यह उनके अस्तित्व को भी भविष्य में अनुवांशीक रोगो से [जेनेटीक डिसिझ] उनका सर्वनाश करेगी। हमारे ऋषिओं और हाल वैज्ञानिको के मंतव्य से हमारे समाज को और माता पिताओं को अपने संतानों का विवाह सगोत्र में न हो,यह ध्यान रखना चाहिए।
हाल अंतरज्ञाति विवाह एक चर्चास्पद प्रश्न बन गया हैं। हमारे शास्त्रो ने अंतरज्ञाति विवाह को खास परिस्थितिओं में स्विकारा है, मगर उसे प्रोत्सहित न करते समाज को अपनी अपनी ज्ञाति में या वर्ण में विवाह करने का उपदेश दिया हैं। उनके पीछे भी महत्वपूर्ण कारण हैं । सामाज की द्रष्टी से देखे तो हर संबंध, हमारे आचार, विचार, रहनी करनी आदत, आहार, व्यवहार, संस्कार, रीत रिवाज, बातचीत, सोच विचार र्में कुछ समानता पर ही निर्भर होती हैं। हमारे समाज में उन विषयों में भिन्न भिन्न वर्णों की अपनी अपनी भिन्नता और विशेषता हैं। इन विभिन्नता और विरुद्धता से सामाजिक और व्यवहारिक सुसंगम या सुमेल करना अत्यंत कठिन, और अत्यंत संघर्ष मय भी हो सकता हैं। विवाहोपरांत ज्ञाति में ही विवाहित स्त्री पुरुष पर ज्ञाति का और सगे संबंधीओं का हंमेशा प्रभाव और दबाव रहता है, और कोई संघर्ष या अनबनी के प्रसंग पर नासमझी की उल्झन सुलझाना सरल और सुगम होता हैं, क्युं की ज्ञाति में दोनो पक्ष कहीं न कहीं जुडे होते है। एक ही ज्ञाति के होने से अपनी प्रतिभा और प्रतिष्ठा का भी हर व्यक्ति को खयाल रखना पडता हैं। विवाह केवल एक पुरुष और स्त्री का मिलन नहीं है, पर दो परिवारोंका भी मिलन होने से उनमें महत्तम साम्याता होना अत्यंत आवश्यक है। जो एक ही ज्ञाति के दो व्यक्तिओ में विवाह करने से प्राप्य होना ज्यादा संभवित हैं और ये ज्ञाति विवाह प्रथा हर ज्ञाति या वर्ण को अपनी गौरवशाली पहचान, अपनापन और आत्मसन्मान प्रदान करती हैं। जहां तक संभव हो तहां तक हर ब्रह्म युवक और युवतिओं को उन लिखित विधानों को ध्यान में रखकर अपने ब्रह्मत्व, ब्रह्मतेज और ब्रह्मगौरव की रक्षाके लिए ब्राह्म-समाज, ब्रह्म-ज्ञाति या ब्रह्म-वर्ण में ही अपना विवाह करने की आकांक्षा और अभिलाषा होनी चाहीये, और माता पिताओं को अपने पुत्रों और पुत्रीओं को अपने ब्रह्म-समाज में ही वर या वधु की पसंदगी करने के लिए प्रोत्सहित और प्रयास करनां चाहिये । पश्चिम के देशो में भी प्राचीन काल में धंधाकीय समुदाय के अनुसार ही लग्न की धार्मिक विधी से करनेकी प्रथा प्रचलित थी। जबसे पश्चिम में धंधाकीय जाती लग्न की प्रथा और धार्मिक लग्नप्रथा लुप्त होने लगी तब से पश्चिमी समाज में ‘डिवोर्स’की संख्या का प्रमाण अत्यंत ही बढता गया हैं। भारत में बढते तलाक या ‘डिवोर्स’ के किस्सों का भी मूलभूत कारण अतंरज्ञाति लग्न की बढती संख्या ही, शायद जिम्मेवार हो सकती है।
हमारें ऋषि, मुनि और महर्षिओं ने अपने धर्मज्ञान, सामाजिक और व्यवहारिक ज्ञान एवं विज्ञान के ज्ञान और अनुभूति के आधार पर हमारे समाज में विवाह के संबंध में हजारों सालों पहले महत्वपूर्ण सिद्धांतो की रचना की थी। जो आज के अर्वाचिन युग में भी नवयुग समाजशास्त्री और विज्ञान के विद्वानों को, कई पौराणीक सिद्धांतो के सत्य और तथ्यका स्वीकार करना पडा हैं। फिर भी हम लोग अपने शास्त्रो का अध्ययन किये बिना ही उन नियमों और सुचनाओं का विरोध या खंडन किया करते हैं। हर भारतीय हिंदुओं को जीवन में सुख शांति और परमानंद प्राप्त करना है, तो अपने धर्म, शास्त्रों, प्रणालीओं, संस्कारों, परंपरांओ और रीत रिवाजों का सन्मान करके सत्य का आविष्कार करते गौरवता से हमें उसे अपनाना होगा। अपने भावि दांपत्य-जीवन में ‘कुर्यात सदा मंगलम’की भावना की पूर्ती कामना हो तो माता पिता की सुसंगत और योग्य बातें और सीख समज को अपनानां होगा और उनका आदर और सन्मान करना होगा। विवाहीत जीवन में सदा आनंद मंगल प्राप्त करना हो तो हर युवा पुत्र और पुत्रीओं को अपने माता पिता की आज्ञा और आशिर्वाद के अनुसार सुयोग्य और मन पसंद पात्र को पसंद करके और उसे अपनाकर इस जीवन में दांपत्यजीवन का आनंद पाकर कौटुंबिक और धार्मिक दायित्व को निर्विघ्न परिपूर्ण कर सकते हें।
कुर्यात सदा मंगलम्।
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