क्या मुगल और विदेशों से भारत आए मुस्लिम शासक, आक्रांता थे या राष्ट्रनिर्माता? हम ब्रितानी राज को किस श्रेणी में रखेंगे? अंग्रेज वह विदेशी हमलावर थे, जिन्होंने 200 से अधिक वर्षों तक भारत को लूटा, यहां की मूल सनातन संस्कृति को बौद्धिक रूप से विकृत किया और स्वदेश रवाना हो गए। इस्लामी आक्रांताओं का आचरण कुछ भिन्न था। प्रारंभ में तो इस्लामी आक्रमणकारी यहां की अकूत संपदा को लूटकर लौट गए, किंतु बाद में आने वालों ने देश पर ही कब्जा कर लिया। अर्थात्- लुटेरे ही घर के स्वामी हो गए और मूल गृहवासी उनके गुलाम। तब उन्होंने यहां की स्थानीय बहुलतावादी संस्कृति को नष्ट किया, साथ ही साथ इस भूखंड की अस्मिता और सामाजिक जीवन के मानबिंदुओं को भी रौंद डाला। उनके मजहबी उन्माद में हजारों मंदिर धूल-धूसरित हो गए, असंख्य निरपराधों को या तो तलवार के बल पर मतांतरित कर दिया या फिर मजहबी उत्पीड़न के बाद मौत के घाट उतार दिया गया।
ब्रितानी और इस्लामी दस्युओं में एक अंतर और भी है। जहां 1947 में अंग्रेज भारत को कंगाल बनाकर इसे अपने मानसपुत्रों के हाथों में सौंपकर चलते बने, तो इस्लामी आक्रांताओं के मजहबी वंशजों का भारत के एक तिहाई से अधिक भू-भाग (पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान) पर आज भी कब्जा है- जहां इस भूखंड की मूल संस्कृति, उसकी संतानों और सनातन जीवनमूल्य- लोकतंत्र, बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता के लिए कोई स्थान नहीं है। हाल ही में अफगानिस्तान से गिनती के बचे-कुचे हिंदू-सिखों का पलायन- उसी विषाक्त श्रृंखला का एक भाग है।
क्या इस्लामी आक्रांताओं और स्थानीय लोगों में संघर्ष केवल सत्ता और अहंकार के कारण था? क्या इस कलह का कोई सांस्कृतिक या फिर मजहबी आयाम नहीं था? दावा किया जाता है कि मुस्लिम शासकों के दरबारों में हिंदू, तो हिंदू-सिख सम्राटों के राजसभाओं में मुस्लिम सैनिक/कर्मचारी थे। इस तर्क को पुख्ता करने के लिए अकबर के प्रधान सेनापति मानसिंह-प्रथम, मुहम्मद आदिल शाह के मंत्री हेमचंद्र विक्रमादित्य उर्फ हेमू, तो महाराजा महाराणा प्रताप की सेना में हकीम खां सूरी और मराठाओं साम्राज्य में दौलत खान आदि मुस्लिमों का उदाहरण दिया जाता है।
यदि इस कुतर्क को भी आधार बनाए, तो अंग्रेजों के लिए लड़ने वाले सैनिक, उनके शासन में करने वाले कर्मचारी/अधिकारी और यहां तक वीर क्रांतिकारी भगत सिंह-राजगुरु-सुखदेव को फांसी पर लटकाने वाले कौन थे? सभी अधिकांश जन्म भारतीय थे। दूसरी ओर सिस्टर निवेदिता, एनी बेसंत, चार्ल्स फ्रीर एंड्रूज आदि यूरोपीय नागरिक भी भारतीय स्वतंत्रता के पक्षधर थे। क्या इस आधार पर कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता का संघर्ष स्वाभिमान और स्वाधीनता के लिए, अपितु केवल सत्ता हेतु था?
ब्रितानियों का प्रारंभिक लक्ष्य साम्राज्य का विस्तार और भारतीय संपदा को लूटना था। किंतु 1813 में अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में विवादित अनुच्छेद जोड़कर ब्रितानी पादरियों और ईसाई मिशनरियों द्वारा भारतीयों के मतांतरण में सभी प्रकार की आवश्यक मदद देने की जिम्मेदारी भी ले ली। ऐसे ही अपने शासन को शाश्वत बनाने हेतु अंग्रेजों ने कुटिल “बांटो-राज करों” नीति अपनाई और तथ्य-इतिहास को विकृत करके समाज को बांटने का काम किया। इस चिंतन से स्वतंत्र भारत का एक वर्ग आज भी जकड़ा हुआ है।
इस्लामी आक्रांताओं द्वारा भारत पर हमले के पीछे कई मजहबी प्रेरणाएं थी। वर्ष 712 में जब अरब आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला करके राजा-दाहिर को परास्त किया, तब उसने गैर-मुस्लिमों को “जिम्मी/धिम्मी” घोषित किया था, जिन्हें शरीयत अनुरूप जीवित रहने हेतु कर (ज़जिया) देना होता था। इसे कालांतर में कई इस्लामी आक्रांताओं ने लागू किया।
महमूद गजनी ने 11वीं शताब्दी में भारत पर आक्रमण किया। 17 वर्ष की आयु में गजनी ने खलीफा का पद संभाला था, तब उसने प्रत्येकवर्ष भारत आकर मंदिरों-मूर्तियों को खंडित और स्थानीय लोगों को तलवार के बल पर इस्लामी विस्तार करने की शपथ ली थी। अपने 32 वर्ष के शासनकाल में हर साल भारत आने की मजहबी प्रतिज्ञा वह पूरी नहीं कर सका, परंतु उसने एक दर्जन से अधिक बार भारत पर हमले किए और यहां स्थित मान-बिंदुओं (प्राचीन सोमनाथ मंदिर सहित) को ध्वस्त किया।
विदेशी मोहम्मद गौरी के भारत आक्रमण पश्चात स्थापित दिल्ली सल्तनत (1206-1555) के बाद क्रूर बाबर ने मुगल साम्राज्य (1526-1857) की नींव रखी। जब बाबर का सामना मेवाड़ शासक राणा सांगा के शौर्य और उनके विशाल सैन्यबल से हुआ, तब उसने अपनी दुर्बल सेना को “काफिर” हिंदुओं से “इस्लाम की रक्षा” हेतु जिहाद के लिए प्रेरित किया था। स्पष्ट है कि बाबर ने घोषित रूप से एक काफिर देश में इस्लाम परचम लहराने हेतु युद्ध किया, जिसके बाद उसने मुगल साम्राज्य की स्थापना की थी।
मैसूर में टीपू सुल्तान का राज (1782-99) भी गजनी, बाबर, औरंगजेब के शासन जैसा क्रूर था। इसका मूर्त रूप टीपू की वह तलवार है, जिसके हत्थे पर लिखा है- “अविश्वासियों (काफिर) के विनाश के लिए मेरी विजयी तलवार बिजली की तरह चमक रही है।” अपने इसी घोषित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु जिन विदेशी शक्तियों से सहायता मांगी थी, उसमें अफगानिस्तान के तत्कालीन इस्लामी शासक ज़मन शाह दुर्रानी भी शामिल था।
इस मजहबी श्रृंखला में अकबर, जहांगीर और शाहजहां का भी नाम आता है। वर्ष 1556 में मुगलों से लड़ते हुए जब वीर हेमू आंख में तीर लगने से बुरी तरह घायल हो गए थे, तब 14 वर्षीय अकबर ने अपने उस्ताद बैरम खां के कहने पर तलवार से लगभग मृत हो चुके हेमू का गला काटकर “गाजी” (काफिर को मारने वाला) की पदवी पाई थी। मेवाड़ को अपने अधीन करने हेतु अकबर ने हजारों गैर-सैनिक हिंदुओं के संहार का निर्देश दिया था, क्योंकि वे सभी “काफिर” थे। इसी तरह बकौल “तुज़्क-ए-जहांगीर”, कांगड़ा स्थित ज्वालामुखी मंदिर के परिसर में जहांगीर ने गाय को जिबह किया था, तो पुष्कर में भगवान विष्णु के अवतार वराह के मंदिर को ध्वस्त कर दिया। पांचवे सिख गुरु अर्जुन देवजी को जहांगीर के निर्देश पर ही मौत के घाट उतारा गया था। इसी तरह बादशाहनामा (शाहजहां कालक्रम का वृतांत) में शाहजहां के निर्देश पर बनारस स्थित दर्जनों मंदिरों को ध्वस्त करने का उल्लेख है। इस रोमहर्षक वृतांत का स्रोत क्या है? यह सब रक्तरंजित हृदयविदारक विवरण मुस्लिम बादशाहों द्वारा स्वयं या फिर उनके दरबारियों द्वारा लिखे गए है।
भारत के उत्तरी हिस्से में अधिकांश प्राचीन मंदिरों के भवन मात्र 200-250 वर्ष पुराने है। इसका कारण यह है कि इस्लामी आक्रांताओं ने भारत की सांस्कृतिक वास्तुकला को ध्वस्त करके उसके अवशेषों से ही पराजितों को अपमानित करने और उनपर अपना नियंत्रण रखने हेतु कई इस्लामी ढांचों का निर्माण किया था। इसका बड़ा प्रमाण राजधानी दिल्ली स्थित कुतुब मीनार परिसर है, यहां ध्वस्त मंदिर के अवशेष और दर्जनों स्तंभों-छतों पर देवी-देवताओं की खंडित मूर्तियां आज भी प्रत्यक्ष हैं। अंग्रेज इनसे थोड़े भिन्न थे। उन्होंने मुस्लिम हमलावरों की भांति भारत में स्थानीय भवनों को नहीं तोड़ा, किंतु अपने औपनिवेशिक प्रभाव को छोड़ने हेतु कई भव्य भवनों का निर्माण किया था। क्या उपरोक्त पृष्ठभूमि में ब्रितानी और इस्लामी आक्रांताओं को अलग-अलग चश्मे से देखना उचित होगा?
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
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