मैकाले की शिक्षा ने भारतीयों को ज्ञान जितना भी दिया हो पर अपने गौरवशाली अतीत पर नफरत करना जरूर सिखा दिया है। इसी शिक्षा ने सेक्युलरिज्म का अर्थ धर्मनिरपेक्षता के बदले अल्पसंख्यक तुष्टिकरण या अधिक स्पष्ट रूप से मुस्लिम तुष्टिकरण बना दिया । जो हिंदू कभी एकादशी का व्रत नहीं रखते वे भी पांच वक्त के नमाजी मुसलमानों के साथ इफ्तार में दस्तरखान शेयर करने जरूर पहुंच जाते हैं भले उनका रोजा शेयर न करें। इसमें ज्यादा बुराई भी नहीं । एक धार्मिक व्यक्ति को हीं किसी अन्य धर्म का सम्मान करना आता है। पर भांड गिरी तब दिखती है जब इफ्तार में शामिल होने पहुंचे हिंदू भाई लोग सिर पर मुसलमानी टोपी और कंधे पर चार खाने वाला गमछा रखकर इफ्तार में शामिल होते हैं। मेरे भी कई मित्र मुसलमान है और कई बार मैंने सेवइयां खाई है परंतु सेवइयां खाने के लिए कुर्ता पायजामा और सर पर टोपी रखने की जरूरत महसूस नहीं हुई। मेरे कई मुसलमान मित्र स्कूल के दिनों में सरस्वती पूजा में पूर्ण श्रद्धा से शरीक होते थे परंतु कभी भी उन्होंने चंदन टीका करके हिंदू होने का ढोंग नहीं किया और ना उन्हें करना चाहिए था। और इस सब की वजह यह थी कि वह हमारे मित्र हैं राजनेता नहीं। उनका हिंदू त्योहारों में शामिल होना मित्रता की निशानी थी और हमारा ईद में जाना दोस्ती का तकाजा परंतु ना हमें अपने पहनावे से मुसलमान दिखना होता था और ना उन्हें हिंदू।
आप हीं सोचिए कि अगर शिवरात्रि में आपका कोई मुसलमान मित्र जटा बढ़ाकर और त्रिपुंड धारण करके आप की पूजा में पहुंच जाएं तो क्या उसकी उपस्थिति एक मसखरे से ज्यादा होगी?
अगर यह परंपरा मान ली जाए और किसी दिगंबर जैन ऋषि के जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने दिगंबर होकर ही पहुंचना हो तो…., इसे मूर्खता नहीं तो और क्या कहेंगे!
ईद आने वाली है और ईद से पहले हिंदू मुस्लिम एकता की नुमाइश करना फर्जी सेकुलर राजनेताओं का वार्षिक कर्मकांड बन चुका है क्योंकि उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का अर्थ मुस्लिम तुष्टीकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अगर नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के शासनकाल को छोड़ दिया जाए तो सनातन के प्रतीक चिह्नों के साथ कोई भी राजनेता दिखना नहीं चाहता था। प्रयाग में गंगा स्नान करते हुए जवाहरलाल नेहरू के फोटो को कई बुद्धिजीवी फर्जी घोषित कर चुके हैं।
अगर उस वक्त फोटोशॉप होता तो अब तक उन तस्वीरों को फोटोशॉप्ड बता दिया गया होता।
लखनऊ से बाजपेई का जीतना भी भाजपा के सेकुलर मुखौटा हीं था।
दरअसल इफ्तार हिंदू नेताओं के लिए मुस्लिम वोटरों में अपनी पैठ का लैक्टोमीटर है जिसका इस्तेमाल नेता लोग करते रहते हैं। मैं ने आज तक किसी बड़े मुस्लिम नेता के इफ्तार को सुर्खियां बटोरते नहीं देखा जैसे कोई भी हिरणी मृगनयनी नहीं कहलाती।
भारत के अल्पसंख्यकों के सिर्फ दो दुश्मन हैं पहला ओबैसी जैसे कट्टर समर्थक जो 30- 40 करोड़ की आबादी को अल्पसंख्यक घोषित करने में गर्व महसूस करते हैं और दूसरे वे सेकुलर भांड, जो इफ्तार की रोटी के साथ वोट भी निगलने पहुंच जाते हैं।
खैर यह आलेख व्यंग्यात्मक निराशावादिता की तरफ जा रहा है। इसलिए इफ्तार को मुद्दा बनाते हुए एक शेर अर्ज़ है ।
इलाही अब तो इफ्तारी करा दे,
मेरी आंखों का रोजा चल रहा है।।
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