स्वामी विवेकानंद ने जनवरी सन् 1900 में लास एंजिल्स, कैलिफोर्निया में यह भाषण दिया था। “मन की शक्तियां” नामक इस व्याख्यायान में स्वामी जी बताते हैं कि हमारे मन-मस्तिष्क में अथाह शक्तियाँ भरी पड़ी हैं और हम उनका बहुत छोटा-सा अंश ही उपयोग में लाते हैं। जब हम इन मन की शक्तियों को नहीं समझते हैं तो चमत्कार कहते हैं, लेकिन यह अपने आप में पूरा विज्ञान है। पढ़िए स्वामी विवेकानन्द का यह अनुपम लेख और जानिए मन की विराट शक्तियों को योग के विज्ञान की सहायता से कैसे जागृत किया जाए।
सम्पूर्ण जगत में सर्वदा से ही किसी अलौकिक शक्ति में विश्वास चलता आ रहा है। हममें से भी सभी ने अलौकिक घटनाओं के विषय में सुना होगा और बहुतों ने तो ऐसी चमत्कारपूर्ण अलौकिक घटनाओं का व्यक्तिगत रूप से अनुभव भी किया होगा। अपनी आँखों देखी कुछ ऐसी ही घटनाओं का वर्णन करता हुआ मैं इस विषय का प्रारम्भ करना चाहता हूँ।
एक बार मैंने एक व्यक्ति के विषय में सुना कि वह किसी के भी मन के गुप्त प्रश्नों का उत्तर तत्काल दे देता है। यही नहीं, मुझसे बताया गया कि वह भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को भी पहिले ही से बता देता है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ और कुछ साथियों को लेकर उस व्यक्ति के पास पहुँच गया। हम सभी ने अपने-अपने मन में अपने-अपने प्रश्न निश्चित कर लिये थे और भूल बचाने के लिये काग़ज़ पर लिख कर उन्हें अपनी जेबों में रख लिये थे। उस व्यक्ति ने ज्यों ही हममें से एक को देखा, हमारे सारे गुप्त प्रश्नों को दुहरा ही नहीं दिया वरन् उनके उत्तर भी दे दिये। तत्पश्चात् उसने काग़ज़ पर कुछ लिखा और उसे मोड़ कर उस पर मुझसे हस्ताक्षर करने को कहा। ऐसा करने के बाद उसके कथनानुसार मैंने उस काग़ज़ की पुड़िया को बिना देखे ही तब तक के लिये अपनी जेब में रख लिया जब तक वह स्वयं उसे दिखलाने के लिये न कहे। मेरे सब साथियों के साथ भी ऐसा ही किया गया। तत्पश्चात् भविष्य में घटने वाली कुछ घटनाओं पर प्रकाश डालते हुए उसने हमसे कहा कि हम किसी भी भाषा के किसी भी शब्द या वाक्य को अपने मन में सोच लें। वह संस्कृत बिल्कुल नहीं जानता ऐसा समझ कर मैंने संस्कृत भाषा के एक लम्बे वाक्य को मन में रख लिया। पर उसकी आज्ञानुसार जब मैंने जेब में से निकाल कर काग़ज़ के उस टुकड़े को देखा तो महान आश्चर्य हुआ कि वह संस्कृत का बड़ा वाक्य ज्यों का त्यों वहाँ लिखा हुआ है! एक घंटा पहिले उस कागज पर उस वाक्य को लिखते समय अपनी बात की पुष्टि के लिये उसने यह भी सूचित कर दिया था कि यह व्यक्ति इसी वाक्य को अपने मन में निश्चित करेगा और यह सत्य निकला। मेरे दूसरे साथी से भी जिनकी जेब में भी–जिनकी जेब में भी वैसा ही काग़ज़ का टुकड़ा रखा हुआ था–अपने मन में कोई वाक्य सोच लेने के लिये कहा गया। उन्होंने अरबी भाषा का एक वाक्य निश्चित किया जो कुरान से लिया गया था। पर वह अरबी वाक्य भी उनकी जेब में रखे हुये काग़ज़ के टुकड़े पर ज्यों का त्यों लिखा हुआ मिला। मेरे साथियों में से एक डाक्टर थे। उन्होंने जर्मन भाषा में लिखी गई एक वैद्यक की पुस्तक से एक वाक्य अपने मन में रख लिया, पर वह जर्मन भाषा का वाक्य भी उनकी जेब वाले कागज़ के टुकड़े पर लिखा हुआ मिला।
यह सोच कर कि शायद उसने पहिली बार मुझे किसी प्रकार धोखा दे दिया हो, कुछ दिन पश्चात फिर कुछ दूसरे साथियों को लेकर फिर मैं उस व्यक्ति के पास गया, पर इस बार भी वह अपने चमत्कार प्रदर्शन में आश्चर्य जनक रूप में सफल रहा।
एक बार जब मैं हैदराबाद में था, मुझसे कुछ लोगों ने एक ऐसे ब्राह्मण के विषय में चर्चा की जो इच्छित वस्तुओं को अज्ञात स्थान से अज्ञात रूप में मँगा दिया करते थे। ये महाशय एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे। उनसे मैंने अपना चमत्कार दिखाने की कहा। संयोगवश उन्हें एक दिन ज्वर हो आया। भारतवर्ष में साधारणत: यह विश्वास किया जाता है कि यदि कोई पवित्रात्मा किसी अस्वस्थ मनुष्य के सिर पर हाथ रख दे तो वह शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है। अतएव ब्राह्मण देवता मेरे पास आकर अपने सिर पर हाथ रखने का आग्रह करने लगे। मैंने स्वीकार लिया और उनसे अपना चमत्कार दिखलाने का वचन भी ले लिया। स्वस्थ होने के बाद अपना वचन पूरा करने के लिये एक दिन वे आ पहुँचे। केवल एक लंगोटी छोड़कर हम लोगों ने उनके पास के सब वस्त्र ले लिये। ठंड पड रही थी, इसलिये अपने पास का कम्बल मैंने उन्हें ओढ़ने के लिये दे दिया और एक कोने में बैठ जाने को कहा। पूरी ५० आँखें उनकी ओर बारीकी से देख रही थीं। मनोवांछित वस्तुओं के नाम काग़ज़ पर लिख देने के लिये जब उन्होंने कहा तब हम लोगों ने ऐसी ऐसी वस्तुओं के नाम लिख लिये जो उस प्रदेश में पैदा ही नहीं होती थीं–जैसे अंगूर के गुच्छे, नारंगियाँ आदि। काग़ज़ के टुकड़े दे दिये गये। थोड़ी ही देर में देखते क्या हैं कि शरीर पर लिपटे हुए उस कम्बल के अन्दर से सारी की सारी वस्तुएँ ढेर की ढेर निकलती चली आ रही हैं। उन निकली हुई वस्तुओं को यदि तौला जाता तो मेरा अंदाज़ था कि वे तौल में उस ब्राह्मण महोदय के शरीर के तौल से दूनी भारी तो अवश्य ही होतीं! उन फलों को खाने के लिये उन्होंने कहा, पर मायाजन्य अथवा कृत्रिम समझ कर खाने में हमें हिचकिचाहट होने लगी, परन्तु जब उन्होंने स्वयं खाना प्रारम्भ कर दिया तो हम लोगों ने भी खाया और देखा कि स्वाद में कोई अन्तर नहीं है।
अन्त में ताज़े गुलाबों का ढेर लगा कर उन्होंने अपना चमत्कार प्रदर्शन बन्द कर दिया। उस ढेर का प्रत्येक गुलाब सुन्दर और पूर्ण रूप से खिला हुआ था। उसकी पंखुड़ियाँ ताज़ी और कोमल थीं तथा उन पर प्रातःकालीन ओस की बूंदें पड़ी थीं। गुलाब के सुन्दर फूलों के इतने बड़े ढेर को देखकर हम लोग आश्चर्य करने लगे। पूछने पर उन सज्जन ने यही बतलाया कि यह सब हाथ की सफाई ही है। जो कुछ भी हो केवल हाथ की सफाई के बल पर यह सब कर दिखाना असम्भव ही मालूम पड़ा। इतनी मात्रा में इतनी वस्तुएँ भला कहाँ से लाई जा सकती हैं?
इस प्रकार की बहुत सी चीजें मैंने देखी हैं और आप भी यदि भारतवर्ष का पर्यटन करें तो भिन्न-भिन्न स्थानों में आपके सामने भी इस प्रकार की सैकड़ों चीजें आयेंगी। भारत ही नहीं, सभी देशों में इस प्रकार की घटनायें होती रहती हैं। इस देश में भी इस प्रकार की बहुत सी चमत्कारपूर्ण घटनायें देखने को मिलेंगी। यह ठीक है कि इन सबमें बहुत कुछ धोखेबाज़ी है, पर इस प्रकार की धोखेबाज़ी के पीछे कुछ वास्तविकता भी रहती है जिसके अनुकरण करने का प्रयत्न किया जाता है। आप को यह मानना ही पड़ेगा कि अनुकरण के लिये भी कुछ न कुछ वास्तविकता चाहिये। वास्तविकता के बिना अनुकरण सम्भव ही नहीं।
आज से सहस्रों वर्ष पूर्व अति प्राचीन काल में इस प्रकार के चमत्कार आज की अपेक्षा अधिक दिखाई पड़ते थे। मेरा अनुमान है कि जब किसी देश की आबादी घनी हो जाती है तब उसकी मानसिक शक्ति निर्बल पड़ जाती है; इसके विपरीत जब किसी देश की आबादी विरली रहती है तब मानसिक शक्ति अपेक्षाकृत बढ़ी चढ़ी रहती है। प्रत्येक वस्तु को सूक्ष्म विश्लेषक दृष्टि से विचार करने की जिज्ञासा रखने वाले हिन्दुओं ने इन चीजों को भी अपने हाथ में लिया और इस दिशा में अनुसंधान किया। इस प्रकार अनुसंधान करने का परिणाम यह हुआ कि वे कुछ आश्चर्यजनक परिणामों पर पहुँचे और उन्होंने इसका एक विज्ञान ही बना डाला। उन्हें ज्ञात हो गया कि ऐसे चमत्कारों में असाधारणत्व भले ही हो, पर वे सब स्वाभाविक ही हैं। उनमें अलौकिकता कहीं नहीं है। वे ही ठीक उसी तरह नियमों से बंधे हुए हैं जिस प्रकार संसार के और भौतिक दृश्य हैं। प्रकृति ने किसी व्यक्तिविशेष को इस प्रकार की चमत्कारपूर्ण शक्ति देकर पैदा नहीं किया है, वरन् इस प्रकार की शक्ति क्रमपूर्वक अध्ययन और अभ्यास से प्राप्त भी की जा सकती है। इस प्रकार के विज्ञान को वे राजयोग कहते हैं। सहस्रों की संख्या में भारतवर्ष में ऐसे लोग हैं जो इस विज्ञान का अध्ययन और अभ्यास करते हैं तथा सम्पूर्ण राष्ट्र के लिये यह दैनिक पूजा-पाठ का एक अंग ही बन गया है।
जिस निष्कर्ष पर वे पहुँचे हैं वह यह है कि यह सब असाधारण शक्तियाँ मनुष्य-मन में विद्यमान हैं। यह मन सृष्टि में अविच्छिन्न रूप से विद्यमान मन का एक अंग या अंश ही है। प्रत्येक मन एक दूसरे से निकटतम रूप में सम्बन्धित है और वह जहाँ कहीं भी रहे सम्पूर्ण विश्व से उसका घनिष्ट और प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।
आपने क्या कभी विचार-संचरण का दृश्य देखा है? एक स्थान पर बैठा हुआ मनुष्य जो कुछ सोचता है वह विचार ठीक उसी रूप में दूसरे स्थान पर बैठे हुए मनुष्य के मन में प्रकट हो जाता है। संयोगवश नहीं वरन् तैयारी के साथ एक व्यक्ति दूरपर बैठे हुए दूसरे व्यक्ति के पास संदेश भेजना चाहता है और वह व्यक्ति जानता है कि संदेश आ रहा है तथा वह उसे ठीक उसी रूप में प्राप्त भी कर लेता है। इस क्रिया में दूरी का कोई महत्व नहीं है। विचार अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है और किसी भी स्थान पर बैठे हुए दूसरे व्यक्ति के पास पहुँच जाता है। वह व्यक्ति उसे ठीक ठीक समझ भी लेता है। यदि मेरा मन आप के मन से सर्वथा भिन्न होता तो इस प्रकार के विचार-संचरण की क्रिया कैसे सम्भव थी? साधारण अवस्थाओं में मेरा विचार आप तक सीधे सीधे नहीं पहुँचता। पहिले वह आकाश-स्थित लहरों (Ethereal Vibrations) में घुल मिल जाता है और वे लहरें तुम्हारे मस्तिष्क में प्रवेश करती हैं, फिर वहाँ पहुँच कर वे तुम्हारे विचार का रूप ग्रहण करती हैं। यहाँ पर विचार आकाश में लय हो जाते हैं और वहाँ जाकर वे फिर अपने असली रूप में पुनः प्रकट हो जाते हैं। यह क्रिया चक्रवत् है, पर मानसिक विचार-संचरण वाली विधि में ऐसी कोई बात नहीं है, उसमें वह बिना रूप-परिवर्तन के ही सीधे सीधे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाता है।
इससे स्पष्ट मालूम पड़ता है कि मन अविच्छिन्न है। योगियों ने ऐसा ही कहा भी है। मन विश्वव्यापी (Universal) है। आप का मन, मेरा मन और दूसरों के छोटे छोटे मन सभी उस विश्वव्यापी अविच्छिन्न मन के अंग हैं। उनकी अवस्था महासागर में उठी हुई छोटी छोटी लहरों के समान ही है। और इसी अविच्छिन्नता के कारण हम एक दूसरों के पास विचारों को अबाधित रूप से भेज सकते हैं।
अपने चारों ओर जो हो रहा है उसे आप अच्छी तरह देख रहे हैं। यह सम्पूर्ण विश्व प्रभावात्मक है। हमारी शक्ति का जो अंश हमारे शरीर के पोषण में व्यय होता है उसे छोड़ बाकी बची हुई सम्पूर्ण शक्ति दूसरों को प्रभावित करने में ही लगती है। हमारा शरीर, हमारे सद्गुण, हमारी बुद्धि और हमारी आध्यात्मिकता सभी निरन्तर दूसरों को प्रभावित करते रहते हैं और स्वयं प्रकाशित होते रहते हैं। यही क्रिया हमारे चारों ओर निरन्तर होती रहती है। एक ठोस उदाहरण लेकर हम इसे और स्पष्ट कर सकते हैं–एक व्यक्तिविशेष आप के पास आता है, वह विद्वान है, उसकी भाषा बड़ी मधुर है और पर्याप्त समय तक आप से वार्तालाप भी करता है, पर आपके ऊपर प्रभाव जमाने में वह सर्वथा असफल रहता है और वही एक दूसरा व्यक्ति आता है जो अपनी टूटी फूटी भाषा में कुछ ही शब्द बोल पाता है, फिर भी वह आप पर विशेष प्रभाव जमा जाता है। आपमें से बहुतों ने यह देखा है। अतएव यह स्पष्ट है कि केवल शब्दों से प्रभाव नहीं जमता। शब्द और विचार दोनों मिलकर किसी दूसरे पर प्रभाव जमाने के कार्य में केवल एक तिहाई अंश का काम देते हैं, बाकी दो तिहाई तो व्यक्ति का व्यक्तित्व ही काम देता है। व्यक्तित्व में ही वह आकर्षण-शक्ति है जो दूसरों पर प्रभाव जमाती है।
हम लोगों के घरों में भी मुखिया होते हैं पर सभी मुखिया कुटुम्बियों पर प्रभाव डालने में सफल नहीं होते। कुछ सफल होते हैं तो कुछ असफल। ऐसा क्यों? हम लोग अपनी असफलता के लिये दूसरों को दोषी ठहराते हैं। जब हमें असफलता मिलती है तो हम कह उठते हैं कि अमुक अमुक व्यक्ति हमारी असफलता के कारण हैं। असफलता में कई अपना दोष या अपनी कमज़ोरी स्वीकार करना नहीं चाहता। प्रत्येक व्यक्ति अपने को निर्दोष समझता है और किसी दूसरे व्यक्ति या वस्तु को अपनी असफलता का कारण बतलाता है। कभी कभी तो भाग्य के मत्थे सब दोष मढ़ कर छुट्टी ले ली जाती है। जब कुटुम्ब के मुखिया अपनी व्यवस्था में असफल हों तो उन्हें स्वयं अपने से ही प्रश्न पूछना चाहिये कि ऐसा क्यों होता है कि कोई तो अपनी व्यवस्था में सफल होता है और कोई नहीं? तब आप को ज्ञात होगा के इसका कारण है मनुष्य-विशेष, उसकी उपस्थिति, उसका व्यक्तित्व। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
मनुष्य-समाज के बड़े बड़े नेताओं को भी लें तो हमें सदा यही ज्ञात होगा कि उनकी सफलता का रहस्य उनका व्यक्तित्व ही था। भूतकालीन बड़े बड़े लेखकों और विचारकों को लें और देखें कि उन्होंने भी वास्तव में कितना सोचा है। उन सारे प्राचीन लेखों को देखें जिन्हें भूतकालीन मनुष्य-समाज के नेताओं ने हमें दे रखा है; उनकी प्रत्येक पुस्तक को सामने रख कर उसका मूल्य आँकें तो हमें पता लगेगा कि इस जगत में नये और मौलिक विचार बहुत ही कम हैं। उनकी पुस्तकों में दिये गये विचारों का अध्ययन करें तो वे लेखक हमारे लिये बहुत महान नहीं ज्ञात होते, पर हम यह भी जानते हैं कि वे अपने युग में महान थे। किस चीज़ ने उन्हें इतना महान बनाया था? उन्हें महान बनाने का श्रेय न उनके विचारों को है, न उनके ग्रन्थों को है और न उनके व्याख्यानों को ही, वह तो कुछ दूसरी ही वस्तु थी और चली गई–वह था उनका व्यक्तित्व। जैसा कि मैंने पहले ही बता दिया है कि दूसरों पर प्रभाव जमाने में मनुष्य का व्यक्तित्व दो तिहाई और उसकी बुद्धि तथा भाषा केवल एक तिहाई काम करते हैं। सच्चा मनुष्यत्व या उसका व्यक्तित्व ही वह वस्तु है जो हम पर प्रभाव डालती है। हमारे कर्म हमारे व्यक्तित्व के बाह्य आविष्कार मात्र हैं। प्रभावी व्यक्तित्व कर्म के रूप से प्रकट होगा ही–कारण के रहते हुए कार्य का आविर्भाव अवश्यम्भावी है।
हमारी सभी प्रकार की शिक्षाओं का उद्देश्य तो मनुष्य के इसी व्यक्तित्व का निर्माण होना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत हम केवल बाहर से पालिश करने का ही प्रयत्न करते हैं। यदि भीतर कुछ सार न हो तो बाहरी रंग चढ़ाने से क्या लाभ? शिक्षा का लक्ष्य अथवा उद्देश्य तो मनुष्य का विकास ही है। वह व्यक्ति, जो दूसरों को प्रभावित करता है या यों कहें कि जो दूसरों पर जादू कर देता है, शक्ति का भण्डार होता है। जब वह तैयार होता है तो जो चाहता है कर डालता है। उसका व्यक्तित्व जहाँ पहुँचता है वहीं कार्य होने लगता है।
हम जानते हैं कि यद्यपि वास्तविकता यही है पर कोई भी भौतिक विधि-नियम इसकी व्याख्या अथवा मीमांसा नहीं कर सकता। रसायन शास्त्र अथवा भौतिक शास्त्र के ज्ञान से हम इसे कैसे समझा सकते हैं? आक्सिजन, हाइड्रोजन और कार्बन किस मात्रा में मिलकर ऐसा परिणाम उपस्थित कर सकते हैं? कितने परमाणु और किस दशा में एकत्रित होकर ऐसा कार्य कर सकते हैं? कितने जीव-कोष (Cells) इस रहस्यमय व्यक्तित्व को समझाने में समर्थ हो सकते हैं? फिर भी हम देखते हैं कि यह सत्य है। यही नहीं, वही (व्यक्तित्व ही) सच्चा मनुष्य है; वही चलता फिरता है और काम करता है; प्रभाव जमाता है; अपने साथियों, अपने सम्पर्क में आने वालों को चलाता है और कालकवलित भी हो जाता है; उसकी प्रतिभा, उसके ग्रंथ और उसके कार्य ही उसके चिह्नस्वरूप रह जाते हैं। इन सबके विषय में गम्भीरता से सोचें। धर्मोपदेशकों और बड़े बड़े दार्शनिकों की तुलना करें। दार्शनिकों ने बड़े बड़े ग्रन्थ लिखे पर उन्होंने शायद ही किसी व्यक्ति के अन्तर-प्रदेश पर प्रभाव जमाया हो। इसके विपरीत धर्मोपदेशकों ने अपने सामने अपने जीवन-काल में ही कितने ही देशों को झुका दिया! यह अन्तर केवल उसी व्यक्तित्व का है। उस दार्शनिक का व्यक्तित्व निर्बल और उस धर्मोपदेशक का व्यक्तित्व महान है। पहिले में हम बुद्धि के दर्शन करते हैं और दूसरे में स्वयं जीवन का स्पर्श करते हैं। एक में यह केवल रासायनिक क्रिया है जहाँ बहुत से रासायनिक पदार्थ एक जगह रख दिये जाते हैं और जो नियमानुसार धीरे धीरे एक दूसरे से मिलकर विशेष परिस्थिति में जल उठते हैं, प्रकाश पैदा कर देते हैं और कभी कभी असफल भी रह जाते हैं। पर दूसरे में एक प्रकार की ऐसी ज्योति पैदा हो जाती है जिसका प्रकाश शीघ्र फैलकर औरों को प्रकाशित कर देता है।
योग का विज्ञान इस बात का दावा करता है कि उसने उन विधियों का पता लगा लिया है जिनसे व्यक्तित्व आकर्षक बनता है और कोई भी व्यक्ति उन नियमों का पालन कर अपने व्यक्तित्व को शक्तिसम्पन्न बना सकता है। व्यक्तित्व की यह शक्तिसम्पन्नता सभी प्रकार के शिक्षण का रहस्य है और व्यवहार जगत की एक प्रधान वस्तु है। इसका उपयोग सबके लिये है–यह सब पर लागू होता है। गृहस्थ, निर्धन, धनिक, व्यापारी तथा अध्यात्मवादी सभी के लिये व्यक्तित्व को शक्तिसम्पन्न बनाना बहुत बड़ी चीज है। भौतिक विधि-नियमों के पीछे कुछ ऐसे भी विधि-नियम हैं जो बड़े ही सूक्ष्म हैं और जिन्हें हम अच्छी तरह जानते भी हैं। कहने का तात्पर्य यह कि भौतिक जगत, मानसिक जगत अथवा आध्यात्मिक जगत ऐसी कोई भिन्न भिन्न वस्तु नहीं हैं वरन् सब एक हैं। इन सब की स्थिति गावदुमाकार है–स्थूल, उससे सूक्ष्म (सूक्ष्मतर) और सबसे सूक्ष्म (सूक्ष्मतम)। यही सबसे सूक्ष्म आत्मा है और सबसे स्थूल भाग शरीर है। यह अन्तर्जगत में जैसा, वैसा ही बहिर्जगत में भी है। हमारे सामने की सम्पूर्ण सृष्टि स्थूल रूप है। यही स्थूल सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम होकर ईश्वर की संज्ञा प्राप्त कर लेता है।
हम यह भी जानते हैं कि सब से अधिक शक्ति उस सूक्ष्म में ही सन्निहित है न कि स्थूल में। एक व्यक्ति भारी बोझ उठाता है, परिणाम स्वरूप उसकी मांसपेशियाँ बाहर निकल आती हैं और उसके सम्पूर्ण शरीर पर परिश्रम-जन्य चिन्ह दिखलाई पड़ते हैं। हम सोचते हैं कि उसकी मांसपेशियों में शक्ति है, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। शक्ति तो उन बारीक बारीक स्नायुओं में है जो मांसपेशियों तक पहुँच कर उन्हें शक्तिसम्पन्न बनाती हैं। इनमें से यदि कोई स्नायु अथवा ज्ञान-तन्तु कट जाय और उसका सम्बन्ध मांसपेशियों से छूट जाय तो वे मांसपेशियाँ कार्य करने में सर्वथा अयोग्य बन जाती हैं। ये सूक्ष्म स्नायु अपनी शक्ति किसी दूसरी सूक्ष्मतर वस्तु से लाते हैं और वह किसी और सूक्ष्मतर से जिसे हम विचार कह सकते हैं तथा वह भी अपने से सूक्ष्मतर से। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूक्ष्म ही शक्ति का आधार है। यह ज़रूर है कि हम स्थूल की क्रिया को ही देख पाते हैं। और सूक्ष्म के कार्य हमारी भौतिक आँखों से परे की वस्तु रहते हैं। जब स्थूल में कम्पन पैदा होता है तो हम उसे देख पाते हैं और इसीलिये हम उसे ही क्रिया शक्ति-सम्पन्न मानने लगते हैं, परन्तु सम्पूर्ण शक्ति सूक्ष्म में ही है। उस सूक्ष्म पदार्थ की क्रिया हम नहीं देख पाते इसका कारण शायद यही है कि उस क्रिया की गति अत्यन्त तीव्र और सूक्ष्म है। परन्तु यदि कोई विज्ञान या वैज्ञानिक अनुसंधान उन सूक्ष्म तत्वों को हमारी पहुँच के अन्दर लादे जो स्थूल में उत्पन्न होने वाली क्रिया के वास्तविक कारण हैं तो स्थूल की यह क्रिया हमारी इच्छानुगामिनी बन सकती है। झील के पानी की निचली सतह से जो बुलबुला सूक्ष्म रूप में ऊपर उठता है उसे हम तब तक नहीं देख पाते जब तक कि वह पानी की ऊपरी सतह पर आकर अपना स्थूल आकार नहीं ग्रहण कर लेता, ठीक उसी तरह हम विचारों को भी उनकी सूक्ष्मता के कारण उस समय तक नहीं देख पाते जब तक कि वे बहुत विकसित नहीं हो जाते अथवा कार्य का रूप नहीं धारण कर लेते। हम निरन्तर इस बात की शिकायत करते रहते हैं कि विचार अथवा कार्य हमारे अनुशासन में नहीं रहते, परन्तु ऐसा हम कर ही कैसे सकते हैं? यदि हम सूक्ष्म को अपनी पकड़ में ले लें, यदि हम विचारों के मूल रूप को अपनी शक्ति की सीमा में पकड़ लायें तभी यह सम्भव है कि हम सम्पूर्ण को अपने अनुशासन की परिधि में खींच सकेंगे। अब यदि ऐसा कोई ढंग हो जिससे हम उन सूक्ष्म शक्तियों अथवा सूक्ष्म मूल कारणों की सूक्ष्म परीक्षा कर सकें, शोध कर सकें अथवा समझ सकें और अन्त में उन्हें ठीक ठीक पकड़ सकेंगे तभी यह सम्भव है कि हम अपने को अपनी इच्छानुसार चला सकें। वह मनुष्य जिसने अपने मन पर अधिकार कर लिया है दूसरों के मन पर भी अधिकार कर सकेगा। यही कारण है कि पवित्रता और नीतिमत्ता सर्वदा से ही धर्म के उद्देश्य रहते चले आये हैं। नीतिमान तथा पवित्रात्मा ही अपने ऊपर अधिकार रखता है। सभी मन एक उसी विराट मन के अंग हैं। जो व्यक्ति मिट्टी के एक साधारण से डले को ठीक ठीक पहचानता है वही सृष्टि की सम्पूर्ण मिट्टी के रहस्य को जान सकता है। जो अपने मन की ठीक ठीक समझता है और उस पर अधिकार रखता है वह विश्व के सभी मनों के वास्तविक रूप को समझता है और उन पर अपना अधिकार रखता है।
यदि हम इन सूक्ष्म शक्तियों पर अधिकार कर लें तो बहुत सी शारीरिक व्याधियों से छुटकारा पा सकते हैं, बहुत सी चिन्ताओं से पिण्ड छूट सकता है और बहुत सी असफलताओं को सफलता में परिवर्तित कर सकते हैं। यह तो उपयोगिता की बात हुई पर इसके अतिरिक्त कुछ और भी है जो इससे अधिक महत्वपूर्ण है।
अब मैं आप से एक सिद्धान्त की बात कहूँगा जिसके विषय में तर्क नहीं करूंगा वरन् आप के समक्ष सीधे सादे ढंग से उसके परिणाम को रख दूँगा। प्रत्येक मनुष्य अपनी बाल्यावस्था में ठीक उन्हीं स्थितियों से गुजरता है जिनसे होकर सम्पूर्ण मानवजाति आगे बढ़ी है। अन्तर केवल इतना ही है कि इस क्रिया में मानव जाति ने सहस्रों वर्ष लगाये हैं और बालक कुछ ही वर्षों में सब स्थितियों को पार कर लेता है। बालक पहिले प्राचीन जंगली मानव की दशा में रहता है और सुन्दर सी तितली को अपने पैरों के नीचे कुचल देता है। बालक पहिले ठीक उसी रूप में रहता है जिस रूप में उसके असंस्कृत पूर्व पुरुष प्राचीन काल में रहते थे। जैसे जैसे वह बढ़ता है उसे भिन्न भिन्न स्थितियों को पार करता हुआ ही अपनी जाति की विकास-दशा को प्राप्त करता है। अन्तर केवल इतना ही रहता है कि वह शीघ्रता करता है।
अब आप सारी मानव-जाति को अथवा पशु, मानव तथा छोटे छोटे सभी जीवों को एक साथ ले लें तो आप को ज्ञात होगा कि सब का एक ही उद्देश्य है जिसकी ओर सभी दौड़ते चले जा रहे हैं, इसे हम “पूर्णता” कहें तो ठीक होगा। कुछ व्यक्ति–स्त्री या पुरुष पैदा होते हैं जो मानव के पूर्ण विकास के पूर्व-निदर्शक होते हैं। बार बार जन्म लेकर धीरे धीरे उस पूर्णता की और पहुँचने के बजाय वे अपने जीवन के चन्द वर्षों में ही मानो उस तक दौड़ जाते हैं। और हम जानते हैं कि हम भी उन सभी स्थितियों की क्रियाओं को पूर्ण करने में शीघ्रता कर सकते हैं पर यह तभी सम्भव है जब हम अपने प्रति सच्चे हों। संस्कृति और सभ्यता से अपरिचित कुछ व्यक्ति यदि एक द्वीप पर रख दिये जायें और उन्हें भोजन, वस्त्र और रहने की जगह का आवश्यक प्रबन्ध कर दिया जाय तो वे धीरे धीरे बढ़कर संस्कृति के उच्च उच्च स्तरों पर पहुँचते रहेंगे। हम यह भी जानते हैं कि इस विकास की क्रिया में शीघ्रता भी की जा सकती है यदि उन्हें अतिरिक्त सहायक वस्तुएँ प्रदान की जायें। हम वृक्ष की बाढ़ में भी सहायता करते हैं। क्या ऐसा नहीं होता? यदि इन वृक्षों को प्रकृति पर छोड़ दिया जाता तो भी वे विकसित हुये होते, पर हाँ, समय अवश्य अधिक लगता। हमारी सहायता से वे कम समय में ही अपनी बाढ़ की पूर्णता को प्राप्त कर लेते हैं। हम लोग स्वयं भी निरन्तर ऐसा ही करते जा रहे हैं और कृत्रिम उपायों द्वारा वस्तुओं के बढ़ाव या विकास में शीघ्रता कर रहे हैं। यदि यह ठीक है तो हम मानव के विकास में क्यों शीघ्रता नहीं कर सकते? मानव-मात्र को एक साथ एक स्तर पर लेकर हम ऐसा कर सकते हैं। दूसरे देशों में उपदेशक क्यों भेजे जाते हैं? इसीलिये कि उनकी सहायता से हम सम्पूर्ण मानव जाति के विकास में शीघ्रता कर सकें। अब प्रश्न उठता है कि क्या हम व्यक्ति (व्यष्टि) के विकास में शीघ्रता नहीं कर सकते? कर सकते हैं, उत्तर यही होगा। क्या हम उस शीघ्रता की सीमा भी निर्धारित कर सकते हैं? नहीं, हम यह ठीक ठीक नहीं बता सकते कि मनुष्य अपने इस जीवन में कहाँ तक आगे बढ़ सकता है। आपके पास ऐसा कोई कारण नहीं है कि आप यह कह सकें कि अमुक मनुष्य इतना ही कर सकता है, इससे आगे नहीं जा सकता। परिस्थितियाँ, आश्चर्य जनक रूप से उसके विकास की क्रिया में शीघ्रता कर सकती हैं। फिर पूर्णता तक पहुँचने की क्रिया की गति के लिये क्या कोई सीमा निर्धारित की जा सकती है? अतएव इससे क्या निष्कर्ष निकलता है? यही न, कि अपना जाति या वर्ग के ढ़ंग का “पूर्ण मनुष्य” जो लाखों वर्षों में विकसित होते होते बनता, आज ही बन सकता है! बड़े बड़े योगी यही कहते हैं कि बड़े बड़े अवतार या ईश्वर-दूत ऐसे ही व्यक्ति होते हैं जो अपने इसी जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति विश्व इतिहास के सब युगों में और सब समय हमारे सामने आते रहे हैं। थोड़े ही दिन की बात है कि एक ऐसे व्यक्ति विद्यमान थे जिन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति के विकास को अपने इसी जीवन में प्राप्त कर लिया था। विकास की यह क्षिप्र गति भी नियमों से बँधी हुई है। यदि हम इन नियमों का पता लगायें और इनके रहस्यों को समझ लें तथा इनका प्रयोग भी अपनी आवश्यकताओं के लिये करें तो इसका परिणाम हमारा विकास होगा। हम अपने विकास अथवा प्रगति में शीघ्रता कर इसी जीवन में पूर्णता की प्राप्ति कर लेंगे। हमारे जीवन का यह महत्वपूर्ण उच्च अंश है और मन तथा मन की शक्तियों के अध्ययन के विज्ञान का वास्तविक लक्ष्य यह “पूर्णता” ही है। धन या अन्य किसी द्रव्य से दूसरों की सहायता करना और उन्हें अपने दैनिक जीवन को निर्विघ्न ले चलने के लिये शिक्षा देना तो केवल ऊपरी वस्तु है।
इस विज्ञान का उपयोग मनुष्य को पूर्ण बनाने की क्रिया में विशेष सहयोग देने का है, न कि इस बात में कि उसे छोड़ दिया जाय और वह अपने विकास की इस अन्तिम मंज़िल तक पहुँचने में युग बिता दे और उसकी अवस्था ठीक वैसी ही बन जाय जैसी भौतिक शक्तियों के हाथ में पड़े हुए साधारण खिलौने की होती है अथवा लकड़ी के उस छोटे से टुकड़े की होती है जो महासागर में लहरों के बीच इधर से उधर उद्देश्यहीन भटकता फिरता है। यह विज्ञान आपको शक्तिसम्पन्न देखना चाहता है ताकि अपने विकास की क्रिया को पूर्ण करने का कार्य आप प्रकृति पर न छोड़ कर अपने हाथ में ले लें और उसे इसी जीवन में प्राप्त कर लें। यह एक महान और महत्वपूर्ण विचार है।
ज्ञान, शक्ति और आनन्द की दृष्टि से मानव उन्नति करता जा रहा है। मानवजाति के रूप में हम निरन्तर आगे बढ़ते जा रहे हैं। यह सत्य है–बिलकुल सत्य, पर क्या यह व्यष्टि की दृष्टि से भी सत्य है? कुछ सीमा तक तो सत्य है ही, पर फिर प्रश्न उठता है कि इसकी निश्चित सीमा कहाँ पर है? मैं तो अपनी इन आँखों से केवल कुछ गज की ही दूरी की चीजें देख पाता हूँ, पर एक ऐसा भी आदमी है जो आँखें मूँदकर दूसरे कमरे में रखे हुए पदार्थों को भी देख सकता है। तुम कहो कि इस बात पर तुम्हारा विश्वास नहीं होता तो शायद तीन सप्ताह में ही वह व्यक्ति तुम्हें भी ऐसा बना दे कि तुम भी वैसा ही करने लगो। यह विद्या तो किसी को भी सिखलाई जा सकती है। कुछ व्यक्ति तो पाँच मिनट में ही ऐसे बनाये जा सकते हैं कि वे दूसरे के मन की बातें जान जायें। यह क्रिया तो प्रदर्शित भी की जा सकती है।
यदि यह सब सच है तो व्यष्टि के ज्ञान अथवा विकास की सीमा कहाँ निश्चित की जाय? यदि कोई व्यक्ति इस कमरे के कोने में बैठे हुए एक दूसरे व्यक्ति के मन की बातों को जान सकता है तो क्यों नहीं वह दूसरे कमरे में बैठे हुए व्यक्ति के मन की बात जान सकता है? यही नहीं, कहीं दूर किसी भी जगह बैठे हुए व्यक्ति के मन की बात भी क्यों नहीं जान सकता? इसका उत्तर हम नकारात्मक रूप में नहीं दे सकते! हममें इतना साहस भी नहीं कि कह दें कि यह सम्भव नहीं है। हम तो केवल इतना ही कह सकते हैं है कि हम नहीं जानते यह कैसे सम्पन्न होता है। भौतिक विज्ञान को जानने वाले वैज्ञानिकों को इस बात का कोई अधिकार नहीं है कि वे कह दें कि यह सब सम्भव नहीं है। वे तो यही कह सकते हैं कि वे इस विषय में कुछ नहीं जानते। विज्ञान जगत की घटनाओं पर विचार करता है, उन्हें एकत्रित करता है, कुछ साधारण नियम बनाता है, और फिर अन्तिम सिद्धान्त को निकाल कर सत्य को सामने रखता है। परन्तु यदि हम घटित होने वाली घटना को ही न मानें तो भला विज्ञान कार्य ही कैसे कर सकता है?
मनुष्य कितनी शक्ति प्राप्त कर सकता है इसकी कोई सीमा नहीं। भारतीय प्रकृति की यही विशेषता है कि यदि वह किसी की ओर आकर्षित होती है तो उसमें तल्लीन हो जाती है, खो जाती है और दूसरी बातों को भूल जाती है या उनकी ओर से उपेक्षावृत्ति ग्रहण कर लेती है। आप जानते हैं कि कितने प्रकार के विज्ञान ने भारत में जन्म लिया है। गणित ने वहाँ जन्म लिया। संस्कृत अंकों के आधार पर आप आज भी १, २, ३ आदि अंकों से लेकर शून्य तक गिनते हैं। बीजगणित भी वहीं प्रारम्भ हुआ और पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का पता भी भारतीयों को न्यूटन से हज़ारों वर्ष पहिले ही मिल चुका था।
आप भारतीयों के प्रकृति की इस विशेषता को जानते हैं। भारतीय इतिहास में एक ऐसा युग आया था जब भारतीय ऋषियों ने मनुष्य और उसके मन के अध्ययन में अपने को खो दिया था। यह विद्या उनके लिये आकर्षक भी इसीलिये थी कि मनुष्य अपने लक्ष्य की प्राप्ति इस मार्ग से चल कर बहुत आसानी से कर सकता था। मनुष्य का मन सब कुछ कर सकता है, इस विचार से भारतीय मस्तिष्क इतना प्रभावित हुआ कि मन की शक्तियों का अध्ययन उसके लिये एक मात्र महत्वपूर्ण विषय बन गया। इस अध्ययन को उसने अपना लक्ष्य बना लिया। जादू, मंत्र-तंत्र तथा अन्यान्य सिद्धियाँ उनके लिये कोई असाधारण बात न थी। यह भी इतनी सरलता से सिखलाया जाता था जितना कि उसके पूर्व भौतिक शास्त्र। इस प्रकार के विश्वास ने भारतीयों के मन पर इतना प्रभाव डाला कि उनके मन से भौतिक विज्ञानों के अध्ययन की इच्छा मर सी गई। केवल यही वस्तु उनकी दृष्टि के सामने रह गई। योगियों के भिन्न भिन्न सम्प्रदाय अनेक प्रकार के प्रयोग करने लगे। कुछ लोगों ने प्रकाश का अध्ययन और प्रयोग प्रारम्भ किया और देखने लगे कि भिन्न भिन्न प्रकार के रंगों की रोशनी शरीर पर किस प्रकार परिवर्तन लाती है। उन्होंने कुछ विशेष रंग के वस्त्र पहन लिये, उसी रंगीन वातावरण में रहने लगे और वैसा ही रंगीन भोजन भी करने लगे। सभी प्रकार के प्रयोग इसी प्रकार प्रारम्भ हुए। कुछ ने ध्वनि पर प्रयोग करना प्रारम्भ किया। कान बन्द कर और फिर खोलकर उन्होंने अनुभव किया कि इसकी क्रिया में किस प्रकार का परिवर्तन होता है। कुछ लोगों ने प्राण-शक्ति पर प्रयोग करना शुरू किया। इस प्रकार भिन्न भिन्न प्रकार के प्रयोग होने लगे।
इन सबके पीछे मुख्य विचार यही था कि मूल स्थान पर कैसे पहुँचा जाय, सूक्ष्म को कैसे जाना जाय और उस पर कैसे प्रभाव स्थापित किया जाय? कुछ साधकों ने तो इस दिशा में काफी चमत्कार दिखाया। कुछ लोग तो हवा में तैरने या इसके बीच से होकर आकाश में इधर से उधर जाने की दिशा में प्रयत्न कर रहे थे। मैं आपको एक कहानी सुनाऊँगा जो मैंने एक पाश्चात्य विद्वान से सुनी थी। उन्हें भी लंका के गवर्नर ने बताया था जिन्होंने स्वयं इस चमत्कारपूर्ण क्रिया को देखा था। एक लड़की सामने लाई गई और उसे पतली पतली लकड़ियाँ आड़ी तिरछी कर बनाई गई एक तिपाई पर पैर के ऊपर पैर रख कर बैठा दिया गया। जब वह ठीक ठीक बैठ गई तो जादूगर ने एक के बाद एक करके उस तिपाई की लकड़ियों का निकालना प्रारम्भ किया और जब सारी लकड़ियाँ निकाल ली गईं तो देखा गया कि लड़की हवा में तैर रही है! गवर्नर महोदय ने सोचा कि इसमें कुछ चालाकी है और उन्होंने अपनी तलवार निकाल कर बड़े जोरों से लड़की के नीचे की खाली जगह में चला दी, पर वह स्थान सचमुच ही खाली था और लड़की हवा में ही बैठी हुई थी! अब आप सोचें कि यह क्या था? यह जादू नहीं था और न कोई असाधारण बात ही थी। यही तो विशेषता है। भारत का रहने वाला कोई भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि ऐसी चीजें नहीं हो सकतीं। भारतीय के लिये यह वास्तविक है; सत्य है। अपने शत्रुओं से युद्ध करते समय आप जानते हैं एक हिन्दू प्रायः क्या सोचेगा? वह कहेगा कि क्या है? –हमारा एक योगी कहीं से आ जायगा और शत्रुओं की सारी सेना को मार भगायेगा। हिन्दू जाति का यह चरम विश्वास है। हाथ या तलवार में क्या शक्ति है? शक्ति तो केवल आत्मा में है।
यदि यह सत्य है तो विद्वानों के लिये काफी आकर्षण है कि वे इस दिशा में पूर्ण प्रयत्न करें। परन्तु जैसा कि किसी भी विज्ञान लिये किसी विशेष तथ्य की उपलब्धि अत्यन्त कठिन होती है वैसे ही इस विज्ञान के विषय में भी कठिनाइयाँ हैं–दूसरे विज्ञानों से भी अधिक कठिनाइयाँ हैं। फिर भी बहुत से लोग समझते हैं कि ये शक्तियाँ आसानी से प्राप्त की जा सकती हैं। अपनी भाग्य या स्थिति को बनाने में कितना समय लगाता है? आप सोचें कि इंजीनियरिंग के विद्युत-विभाग के विज्ञान को समझने में कितने वर्ष लगाने होते हैं? फिर आपको ज्ञात होगा कि इस दिशा में कुछ ज्ञान प्राप्त करने के लिये बचा हुआ सम्पूर्ण जीवन लगा देना होगा।
इसके अतिरिक्त अधिकांश विज्ञानों का विषय जड़ वस्तुएँ ही हैं जो एक स्थान पर जिस दशा में रखी जायें वहीं पड़ी रहती हैं। आप कुर्सी का विश्लेषण कर सकते है क्योंकि वह हवा में नहीं उड़ती। परन्तु यह विज्ञान मन से सम्बन्धित है जो सर्वदा इधर से उधर होता रहता है। जब आप इसका अध्ययन करना चाहेंगे, सम्भव है वह उस समय कहीं दूसरी जगह चला जाय और आप की पकड़ में न आ सके। एक क्षण मन एक स्थिति में है, दूसरे ही क्षण उसकी स्थिति भिन्न हो जाती है। यह सर्वदा बदलता रहता है। इस परिवर्तनशील मन का अध्ययन करना है, उसे समझना है, पकड़ में लाना है और उस पर अधिकार स्थापित करना है। आप स्वयं सोचें कि यह विज्ञान कितना अधिक कठिन है! इसके लिये विशेष कठिन साधना की आवश्यकता है। लोग मुझसे कहते हैं कि मैं उन्हें व्यावहारिक प्रयोग क्यों नहीं सिखाता। पर यह हँसी खेल नहीं हैं। यहाँ मंच पर खड़ा खड़ा मैं आपसे बातें करूँ और आप घर जाकर उसका कोई लाभ न पायें और न मुझे ही कोई लाभ हो। फिर आप कहें ये सब बेकार बातें हैं, फजूल गप्प हैं। पर यह बेकार इसीलिये है कि आप इसे बेकार बनाना चाहते हैं। मैं इस विज्ञान के विषय में बहुत कम जानता हूँ पर जो कुछ भी जानता हूँ उसके लिये मुझे जीवन के तीस पूरे वर्ष लगा देने पड़े हैं और उसके बाद छः वर्षों से मैं जो थोड़ा सा जान पाया हूँ उसके विषय में लोगों को बताता चला आ रहा हूँ। इसका ज्ञान प्राप्त करने में मुझे तीस वर्ष लगे और वह भी विशेष परिश्रम और कठिन साधना के साथ। कभी कभी मैं २०-२० घण्टे साधना करता था। कभी कभी रात में केवल एक घण्टा सोता था और कभी तो वह भी नहीं। रातभर उसी में लगा रहता था। कभी कभी मैं ऐसी जगहों पर रहता था जहाँ मुश्किल से कोई ध्वनि सुनाई पड़ती थी। कभी कभी मुझे कंदराओं और गुफाओं में भी रहना होता था। इतनी साधना के बाद भी मैं इस विज्ञान का थोड़ा अंश जान सका हूँ, कुछ भी नहीं जान सका हूँ यदि यह कहूँ तो भी गलत नहीं है। मैं तो इस विज्ञान के बाह्य स्वरूप का केवल एक छोरभर छू सका हूँ, पर मैं इतना समझ सकता हूँ कि यह सत्य हैं, विशाल है और चमत्कारपूर्ण है।
अब यदि आपमें से कोई इस विज्ञान का अध्ययन करना चाहता है तो उसे उस दृढ़ निश्चय के साथ इसे प्रारम्भ करना चाहिये जिसे लेकर वह अपने जीवन के इतर व्यापारों में लगता है, अथवा यों कहें कि उससे भी अधिक दृढ़ निश्चय के साथ इस ओर प्रवृत्त होना चाहिये।
व्यापार में सफलता प्राप्त करने के लिये कितनी लगन की आवश्यकता होती है! कितना परिश्रम करना होता है! पिता, माता या बच्चा मर जाता है फिर भी व्यापार बन्द नहीं हो सकता! यही नहीं, यदि दिल बैठ रहा हो तो भी अपने व्यापार की जगह जाना पड़ता है–वह भी उस दशा में जब एक एक घंटा काम करना भी जहर मालूम पड़ता है। यह है व्यापार! और हम कहते हैं यही ठीक है, यही उचित है। यह विज्ञान दूसरे व्यापारों से कहीं अधिक प्रयेागात्मक है। व्यापार में बहुत से लोग सफल हो सकते हैं, परन्तु इसमें बहुत ही कम लोग; क्योंकि यहाँ पर मुख्यत: अध्येता के मानसिक गठन पर ही सब कुछ अवलंबित रहता है। व्यापार में जैसे प्रत्येक व्यक्ति करोड़पति, अरबपति नहीं बन पाता, पर प्रत्येक कुछ न कुछ कमा लेता है वैसे ही इस विज्ञान की भी अवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ साधना के बाद एक प्रकाश की झलक पा सकता है जिससे उसे विश्वास हो जाय के यह सत्य है, और अवश्य ही कुछ ऐसे विशिष्ट व्यक्ति हो गये हैं जिन्होंने इसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया है।
इस विज्ञान की यह रूप-रेखा है। यह विज्ञान अपने ही रूप में प्रकाशित है और अपना अलग अस्तित्व रख कर किसी भी दूसरे विज्ञान को तुलना के लिये ललकारता है। इस विज्ञान के क्षेत्र में दूसरे विज्ञानों की अपेक्षा अधिक मिथ्याभाषी हुए हैं, जादूगर हुए हैं और हुए हैं धोखा देने वाले; पर ऐसा क्यों? इसलिये कि जो व्यापार अधिक लाभप्रद होता है उसी में धोखा देने वाले या भ्रष्टाचार फैलाने वाले लोग अधिक हो जाते हैं। परन्तु यह कोई कारण नहीं है कि वह व्यापार अच्छा नहीं बन सकता। एक चीज़ और, मेरे दिये गये सारे तर्क बौद्धिक व्यायाम के साधन बन सकते हैं, अथवा चमत्कारपूर्ण घटनाओं का वर्णन बौद्धिक संतुष्टि भी दे सकता है, पर यदि आप में से कोई सचमुच इस विज्ञान को जानना चाहता है तो उसे इस बौद्धिक व्यायाम या संतुष्टि से ऊपर उठना होगा। केवल व्याख्यान को सुनना उसके लिये लाभप्रद नहीं है, क्योंकि व्याख्यान में सिखाई जाने वाली वस्तु यह नहीं है; यह तो जीवन है और जीवन ही जीवन को ले या दे सकता है। आप में से यदि ऐसा कोई हो जो सचमुच सीखना चाहता हो तो उसकी सहायता करने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।
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