वैसे तो अंग्रेजी भाषा के एक महान नाटक का शेक्सपियर साहब कह चुके हैं कि “व्हाट्स इन ए नाम” मतलब “नाम में क्या रखा है ? ” परंतु मेरा मानना यही है और आप भी मानेंगे कि जिसका नाम नहीं उसका काम नहीं। हर समाज अपने अतीत पर गौरवान्वित होता है और इस गौरवशाली परंपरा को बचाने के लिए इस अतीत का गायन भी करता है और जुड़ाव भी दिखाता है। जिसका अतीत जितना पुराना होता है वह अपने उसी अतीत को याद करता और जुड़ाव चाहता है। आज भारत में नालंदा है, काशी है , विदिशा है कालिंग है , मगध और बिहार (बौद्ध विहार से संबद्धता के कारण ) भी है तो शायद इसीलिए है कि अतीत से हम अपना जुड़ाव रखते हैं और अगर भारत है तो यकीन मानिए कि हम ऋषभदेव के पुत्र भरत को याद करते हैं , दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत को याद करते हैं , दशरथ पुत्र भरत को याद करते हैं।
और याद करें कि जब भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया है तो उन्हें यही कहा है कि युद्ध भूमि में खड़े कुरुओं को देखो और उन्हें अधिकतम वार्तालापों में भारत शब्द से हीं संबोधित किया है क्योंकि कुरु और भरत महाभारत कालीन युद्धाकांक्षी योद्धाओं के बीजी पुरुष थे और पूर्वज थे। पाणिनी का व्याकरण जब भी मनुष्य जाति को मानव कहता है तो यकीन मानिए उसे मनु की विरासत से जोड़ता है। संस्कृत व्याकरण में मनु में अण् प्रत्यय लगने से मानव शब्द बनता है। एक और उदाहरण रघु + अण् = राघव , यदु + अण् = यादव। कभी-कभी सोचता हूंँ कि अगर ज्ञानवापी मुक्ति या मथुरा कृष्ण जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ होता तो उत्तर प्रदेश की पुण्य भूमि पर या तो वैराग्य का अंतहीन परास दिखता या कृष्ण के रास का माधुर्य दिखता पर जो शालीनता या औदार्य अयोध्या की भूमि पर पसरा हुआ है वह राम के राजसी और राजर्षिजन्य चरित्र के कारण हीं है।
आज भी मिथिला में पुत्री के लिए राम जैसा पति हीं पिता की कल्पना में आता है। मथुरा और गोकुल में भी कृष्ण जैसा प्रेमी भले ही काव्य की शान हो पर पति शायद हीं कोई पिता अपनी पुत्री के लिए चाहता हो।
राम का हर रूप आदर्श है पुत्र , पति, जामाता, पिता , राजा या मित्र।
कभी ध्यान देंगे तो प्रयाग इलाहाबाद बना वाराणसी बनारस पर नवाब वाजिद अली शाह ने भी रियासत का नाम अवध नहीं बदला। आज भी उर्दू शायरी में सुबह ए बनारस के साथ शाम ए अवध हीं मशहूर है। हर कब्ज़ाए हुए शहर और गाँवों का नाम बदलता हुआ आक्रान्ता भी अवध को नहीं बदल पाया। आज एक अजीब विचार मन में उमड़ घुमड़ रहा है कि उत्तर प्रदेश वास्तव में हमारे गोरे साहबों के द्वारा दिए गए नामकरण यूनाइटेड प्रोविंस का हिंदीकरण मात्र है ताकि यूपी का एब्रिविएशन ना बदलना पड़े। वरना राम , कृष्ण और शिव की विरासत समेटे त्रिवेणी के जलसे अभिसिक्त इस भूखंड का ये अटपटा बेतरतीब और गुलामी का प्रतीक नाम यूपी यानी उत्तर प्रदेश क्यों न बदल दिया जाए?
हम इसका अयोध्या नाम क्यों न रखें ताकि उत्तर प्रदेश पर गुलामी का कोई प्रश्न चिह्न हीं ना रहे।
अयोध्या…..अवध … अर्थात् आक्रान्ताओं के थपेड़ों से अविचल निष्कंप और अपरिवर्तित नाम के साथ आज भी अपने शालीन ,सभ्य ,उदार और आभिजात्य स्वरूप को सँजोए अवध … यानी अयोध्या।
अयोध्या अर्थात वह भूमि जहां वह नगरी जहां योद्धाओं को अस्त्र उठाने और युद्ध ठानने की आवश्यकता हीं ना पड़े। मात्र राजा दशरथ ने देवताओं के लिए मित्र के रूप में असुरों से युद्ध किया। राजा रघु ने बस युद्ध की घोषणा की तो कुबेर ने अयोध्या की भूमि पर स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा कर दी। राजा रैक्व ने रावण से भी कर लिया वह भी उनके निश्शस्त्र मंत्री ने लंका जाकर।
अयोध्या जिसने न कभी किसी पर आक्रमण किया न किसी का वर्चस्व माना। और अयोध्या के वनवासी युवराज राम ने अयोध्या की सेना को संल्लग्न किए वगैर ब्रह्मांड विजेता रावण को वानरों की सेना द्वारा पराजित किया पर उसे अयोध्या में नहीं मिलाया।
अयोध्या अर्थात् शान्ति पूर्ण सह अस्तित्व की घोषणा।
यही तो विश्व बन्धुत्व है और वसुधैव कुटुम्बकम् का औदार्य ||
और फिर
हमारे साथ श्री रघुनाथ तो किस बात की चिन्ता।|
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