भारत एक भावप्रधान देश है। आज के भौतिक एवं मशीनी युग में निःसंदेह यह हमारी वैचारिक सबलता है। परंतु यदि हम सजग और सचेत न रहे तो कई बार यह अतिशय भावुकता ही हमारी बड़ी दुर्बलता बन जाती है और राष्ट्र विरोधी ताक़तें हमारी इसी दुर्बलता का लाभ उठाती रही हैं। वे घटनाओं-प्रतिघटनाओं पर गिद्ध-दृष्टि जमाए बैठी रहती हैं और सामाजिक समरसता एवं देश की एकता-अखंडता को खंड-खंड करने के भयावह षड्यंत्रों को मूर्त्तता प्रदान करने के लिए नेपथ्य में लगातार सक्रिय एवं सचेष्ट रहती हैं।
हाथरस में हुई घटनाओं के संदर्भ में जाँच एजेंसियों के खुलासे ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। जो तथ्य निकलकर सामने आए हैं, वे चौंकाने वाले हैं। दरअसल हाथरस के बहाने देश भर में दंगे कराने की साज़िशें रची गई थीं। जिस तरह अमेरिकी अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु के पश्चात दंगे भड़काए गए थे, कुछ उसी तर्ज़ पर उत्तरप्रदेश में भी दंगों को अंजाम देने की गुप्त योजनाएँ बनाई गई थीं। जानकारी के अनुसार इसके लिए विदेशों मुख्यतः इस्लामिक देशों से फंडिंग की गई थी। विरोध-प्रदर्शन की आड़ में आनन-फ़ानन में ‘जस्टिस फ़ॉर हाथरस’ नाम की वेबसाइट बनाई गई। इसके माध्यम से भ्रामक, भड़काऊ एवं आपत्तिजनक सामग्रियाँ प्रचारित-प्रसारित की गईं। जाँच एवं सुरक्षा एजेंसियों को इसमें पीएफआई एवं एसडीपीआई जैसे कट्टरपंथी संगठनों की संलिप्तता के ठोस संकेत मिले हैं। उनकी तैयारी एवं योजनाओं का आकलन इसी आधार पर किया जा सकता है कि वेबसाइट पर सविस्तार यह बताया गया था कि दंगों के दौरान प्रदर्शनकारियों को क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं करना है। दंगाइयों के लिए जारी किए गए दिशा-निर्देशों को पढ़कर उनकी मंशा एवं नीयत का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इससे पूर्व दिल्ली, बेंगलुरू, अलीगढ़, कानपुर आदि के दंगों और सीएए-विरोध के नाम पर जगह-जगह हुए हिंसक प्रदर्शनों से भी ऐसे ही तथ्य उभरकर सामने आ चुके हैं।
इन ताक़तों के व्यापक विस्तार, विश्वव्यापी संजाल, वैश्विक पहुँच एवं पहचान की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जिस संयुक्त राष्ट्र में तमाम अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व एवं मानवाधिकार के मुद्दों की साफ़-साफ़ अनदेखी कर दी जाती है, वहाँ भी हाथरस का मामला जोर-शोर से उठाया जाता है। यहाँ तक कि ब्रिटिश सांसद अपसाना बेगम द्वारा यूएन की मानवाधिकार संस्था यूएनएचआरसी को एक चिट्ठी लिखी जाती है, जिसमें पीड़िता को न्याय दिलाने या दोषियों को कठोर सजा देने के बजाय आश्चर्यजनक रूप से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पद से हटाए जाने की माँग की जाती है। इस चिट्ठी पर बक़ायदा अन्य ब्रिटिश सांसदों के हस्ताक्षर भी कराए जाते हैं। यह साफ-साफ संकेत है कि भारत में राष्ट्रीय शक्तियों के उभार से देश के भीतर और बाहर एक बेचैनी है, हलचल है, छटपटाहट है।
बीते छह वर्षों से सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास के लक्ष्य को साधने की दिशा में निरंतर सक्रिय एवं सचेष्ट भाजपा विपक्षी दलों को सत्ता से दूर रखने में कमोवेश सफ़ल रही है। सोशल इंजीनियरिंग के उसके सफ़ल प्रयासों एवं प्रयोगों ने जातीय अस्मिता के नाम पर अस्तित्व में आए राजनीतिक दलों के उभार पर लगभग विराम-सा लगा दिया है। विकास, हिंदुत्व एवं राष्ट्रीयता की नई पहचान के साथ लोग बड़ी संख्या में जुड़ते चले जा रहे हैं। ऐसे में कथित धर्मनिरपेक्षता, जातीय अस्मिता एवं दलित चेतना के नाम पर राजनीति कर रहे तमाम दल स्वयं को सत्ता की दौड़ में पिछड़ा हुआ अनुभव कर रहे हैं। निराशा, हताशा एवं सत्ता पाने की व्यग्रता व महत्त्वाकांक्षा में वे किसी भी सीमा तक जाकर राजनीति करने को आकुल-आतुर हैं। यह किसी भी दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है। लोकतंत्र में विपक्षी दलों की बड़ी निर्णायक एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सत्ता के लिए किए गए समझौतों की क़ीमत अंततः उन्हें भी चुकानी पड़ती है। देश, समाज एवं संस्थाओं को ध्वस्त कर पाई गई सत्ता साधन तो दिला सकती है, पर सच्चा लोकहित नहीं साध सकती। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सामाजिक हितों एवं राष्ट्रीय सरोकारों से उन्हें कोई लेना-देना ही नहीं हो। हाथरस से लेकर तमाम मामलों पर विपक्षी दल जिस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं, उससे सामाजिक सौहार्द्र एवं समरसता का ताना-बाना ही बिखर जाएगा। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि समाज के विभिन्न वर्गों एवं जातियों के बीच एकता एवं समरसता क़ायम करने में वर्षों लगते हैं और तोड़ने में मिनटों। इसलिए कम-से-कम राजनीतिक दलों को तो ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर जिम्मेदारी-बोध एवं परिपक्वता का परिचय देना चाहिए। उन्हें अपनी नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों एवं लोक कल्याणकारी कार्यों के बल पर सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए, न कि भावनात्मक आवेगों एवं अक्रोशों को तूल देकर। आज अधिकांश विपक्षी पार्टियाँ भावनात्मक ज्वार पर सवार होकर राजनीति की वैतरिणी पार लगाना चाहती हैं, जो सर्वथा अनुचित है।
इस प्रकरण में मीडिया के एक धड़े की भूमिका भी अत्यधिक ग़ैर-जिम्मेदार रही है। टीआरपी बटोरने की उनकी भूख पत्रकारिता के सरोकारों से उन्हें पूर्णतया विमुख कर रही है। उन्हें सभी पक्षों एवं स्वरों को सामने लाना चाहिए। उन्हें इस घटना को लेकर स्थानीय स्तर पर उठ रहे अन्य कोणों का भी निरीक्षण-विश्लेषण करना चाहिए। बहुतेरे स्थानीय जन इसे प्रेम-प्रसंग और ऑनर किलिंग का मामला बता रहे हैं? पीड़िता और आरोपी के मध्य हुई बातचीत के कॉल डिटेल्स ऐसी चर्चाओं को और हवा दे रहे हैं। क्या मीडिया को ऐसी ख़बरों एवं चर्चाओं की सत्यता की पड़ताल नहीं करनी चाहिए? या विभिन्न जाँच एजेंसियों के अंतिम रिपोर्ट आने तक निष्कर्ष देने से नहीं बचना चाहिए? क्या उन्हें पीड़ित परिवार द्वारा नार्को एवं सीबीआई जाँच के विरोध के कारणों की छान-बीन नहीं करनी चाहिए? उनकी एकतरफ़ा रिपोर्टिंग न केवल उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े करती है, अपितु उनकी समझ एवं नीयत को भी संदेह के दायरे में लाती है। इतने संवेदनशील मुद्दे पर रिपोर्टिंग करते हुए उन्हें यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए था कि सामाजिक सौहार्द्र एवं शांति भंग न होने पाए। न्याय दिलाने के नाम पर की जा रही मीडिया-रिपोर्टिंगस का परिणाम यदि दंगा, आगजनी एवं स्थाई वैमनस्यता हो तो निश्चित ही उन्हें गंभीर एवं ईमानदार आत्म-मूल्यांकन की आवश्यकता है। पीड़िता को न्याय मिले इससे भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है! बल्कि सभ्य समाज में तो ऐसी घटनाओं के लिए कोई स्थान ही नहीं होता। परंतु उसके आधार पर संस्थाओं का अवमूल्यन भी उचित नहीं। देश, समाज एवं संस्थाओं की गरिमा को बचाए रखना भी मीडिया समेत हम सबकी जिम्मेदारी है।
प्रणय कुमार
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