छोटी-छोटी बातें बच्चों पर कैसे प्रभाव डालती हैं, इसके विषय पर हम कभी विचार नहीं करते हैं। बच्चों की सोच सदैव सकारात्मक होनी चाहिए, परंतु वास्तव में कितने ऐसे परिवार हैं जो ऐसा वातावरण प्रदान करते हैं या ये कि उन परिवारों का कोई एक सदस्य भी।

समय जितनी तेजी से बदल रहा है आज के अभिभावक का अपने बच्चों के साथ संबंध भी उतनी तेजी से ही बदल रहा है। आज के अभिभावक अपने बच्चों के साथ दोस्ती का व्यवहार रखते हैं परंतु क्या यह बच्चों की सोच और उनके व्यवहार के लिए सही है ?

आज की मां और आज से 20 साल पहले की मां में अपने बच्चों के लिए क्या कोई अंतर है, नहीं। मां सदैव एक सी है अपने बच्चों के लिए, तो यह जो नया रिश्ता पनपा है दोस्ती का, ये कहां से आया, संभवत: पश्चिम से। पश्चिमी सभ्यताओं में इतना रमते जा रहे हैं कि अपनी स्वयं की पहचान खो चुके हैं। भारतीय संस्कार न सिर्फ बड़े बुजुर्गों का आदर करना बल्कि अपने से छोटों का आदर करना भी सिखाते हैं। क्या यह पश्चिमी संस्कृति में देखने को मिलता है, क्या पता, कम से कम वहां की फिल्मों को देख कर या किताबों को पढ़ कर तो नहीं लगता कि ऐसे संस्कार वे देते हैं। बीसवीं सदी के पिता ऐसे होते थे कि घर में बच्चों से बस इतना कह देने पर कि “पापा आते हैं तब बताते हैं कि तुमने क्या किया” इतना कहना ही होता था कि बच्चे उस पूरे दिन अपने पिता से छुपते फिरते थे। क्या आज भी बच्चों में यह डर है, ज्यादातर परिवारों में तो नहीं है। कुछ समय पहले एक वेब सीरीज में देखा कि एक पिता (कूल डैड) अपने बच्चे को तरीका बताते हैं कि लड़कियों से फ्लर्ट कैसे करते हैं क्या यही संबंध होता है पिता-पुत्र में।

एक व्यक्ति अनगिनत लोगों से अनगिनत रिश्तों के साथ जुड़ा होता है और हर एक रिश्ते की अपनी एक मर्यादा होती है एवम् हमें उन मर्यादाओं का आदर करना चाहिए।

हर एक व्यक्ति अपने जीवन चक्र में अलग-अलग अवस्थाओं से गुजरता है, उन्हीं अवस्थाओं में एक अवस्था किशोरावस्था की होती है। इसकी शुरुआत 12 वर्ष के आसपास से होकर 18 वर्ष तक होती है। वैसे तो यह वातावरण खानपान और स्वास्थ्य पर निर्भर करता है, परंतुुु भारतीय मनोवैज्ञानिकों नेे इसे 12 से 18 वर्ष ही माना है। किशोरावस्था में शारीरिक बदलाव तेजी से होता है जिसका कारण नए हार्मोंस का स्रावित होना है। यह बच्चों में शारीरिक एवम् मानसिक हलचल उत्पन्न करता है। अब यह हलचल सकारात्मक है या नकारात्मक यह अभिभावकों पर ही निर्भर करता है।


किशोरावस्था में बच्चे कुंठित होते हैं एवं विपरीत लिंग की तरफ उनका आकर्षण बढ़ता है और इसके साथ ही उनमें में उत्तेजना उत्पन्न होती है। यदि हम बच्चों को इन बदलावों के बारे में समय रहते अवगत करा देते हैं तो बच्चों में समझ उत्पन्न हो जाती है। यदि हम इस विषय में बच्चों को कुछ नहीं बताते हैं तो बच्चे इसी आयु में गलत संगत में पड़ जाते हैं। यह संगत भी उन्हें बदलाव के बारे में बताती तो है परंतु उनका तरीका गलत होता है। अभिभावक अपने बच्चों से इस विषय में बातें करके बच्चों में स्व – नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं। क्योंकि भारतीय शिक्षा इस पर जोर नहीं देती है इस कारण यह बातें लज्जापूर्ण प्रतीत होती हैं। शिक्षा में बदलाव कब तक संभव है या हमारे हाथ में तो नहीं, परंतु हम अपने बच्चों को व्यक्तिगत रुप से समझा सकते हैं।


किशोरावस्था के ठीक पहले की अवस्था बाल्यावस्था की होती है। यह अवस्था 5 वर्ष की आयु से लेकर 12 वर्ष तक मानी जाती है, वैसे तो आज से डेढ़ सौ से दो सौ साल पहले के मनोवैज्ञानिकों ने इस आयु का निर्धारण किया था, परंतु आज के समय में हम कह सकते हैं कि यह अवस्था साढे़ 3 वर्ष की आयु से शुरू हो जाती है। इस अवस्था की विशेषता यह है कि इसमें बच्चों में जिज्ञासा उत्पन्न होने लगती है क्योंकि यह वह अवस्था होती है जब बालक वस्तुओं को समझने लगता है बातों को समझने लगता है। बच्चों के लिए यह सब कुछ नया होता है इस कारण उनके मन में ढेर सारे प्रश्न होते हैं चाहे वह घर की वस्तुएं हो, जीव-जंतु, पक्षी, पेड़ – पौधे, आकाश या तारे हो। कभी-कभी अभिभावक चिड़चिड़े हो सकते हैं उनके नित् नए-नए प्रश्नों से और दिए गए उत्तर से उपजे अन्य नए प्रश्नों से, पर यह सदैव ध्यान में रखें कि बच्चों के लिए वह नयी चीज है। एक उदाहरण लेते हैं कि जब हम बाजार में नई वस्तु खरीदने जाते हैं तो उसके बारे में पूरी जांच पड़ताल करते है क्योंकि वह वस्तु नई होती है और हमें उसकी जानकारी चाहिए होती है, ठीक ऐसे ही बच्चों की भी मानसिकता होती है।


ज्यादातर देखा जाता है कि अभिभावक बच्चों के प्रश्नों के सही उत्तर नहीं देते हैं वह कुछ भी उल्टा सीधा बोल देते हैं, क्योंकि वह तो बच्चा है, परंतु बच्चा तो उसे ही सही मानता है और उसी तरीके से सोचता है और यही भ्रम जब समझदार होने पर टूटता है तो बच्चों में कुण्ठा उत्पन्न होती है। बच्चे जब छोटे होते हैं तो घर के सदस्यों को यही लगता है कि बच्चा तो अभी छोटा है उसके सामने वह कैसे भी बातें करते हैं, एक दूसरे पर चिल्लाते हैं, गुस्सा करते हैं, चीजों को तोड़ते फोड़ते हैं उसके सामने गलत व्यवहार करते हैं, गलत शब्दों का प्रयोग करते हैं। बच्चा जब बाल्यावस्था में प्रवेश करता है तो वह जो भी देखता है या सुनता है वह उसके अवचेतन मन में संग्रहित हो जाती है, जब वैसी ही परिस्थितियां उसके सामने उत्पन्न होती है तो वह वैसा ही व्यवहार करने लगता है जैसा कि उसकी अवचेतन मन में संग्रहित होता है। बच्चों के व्यक्तित्व पर सबसे बड़ा असर परिवार, घर के वातावरण और समाज का ही पड़ता है। इस कारण घर का वातावरण शांत रखें, छोटी-छोटी बातों का निपटारा शांति से अकेले में करें जहां पर बच्चे ना हो।


आजकल के माता-पिता को अपने कार्य से समय ही नहीं मिलता अगर मिलता भी है तो वे आराम करने के लिए फोन में व्यस्त हो जाते हैं। अपने काम और आराम के लिए, बच्चों को व्यस्त रखने के लिए, उसे भी फोन और टीवी का ही सहारा देते हैं वे यह नहीं सोचते कि वह अपने बच्चों से कितनी दूरी बना रहे हैं।
बच्चों के कोमल मन पर इसका क्या असर पड़ेगा ? क्या बच्चों के भावी भविष्य के लिए ऐसा वातावरण उपयुक्त है ? जरा सोचें ??

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