14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को औचारिक रूप से भारत की राजभाषा के तौर मान्यता दी और इसे संविधान के अनुच्छेद 343(1 ) में देवनागिरी लिपि के साथ आधिकारिक राजभाषा बना दिया गया ! संघीय स्तर पर आधिकारिक कार्यों हेतु हिंदी और अंग्रेजी ही अधिकृत भाषाएँ हैं ! सुनने और समझने में, आज सात दशकों बाद ये  बड़ा स्वाभाविक सा ही प्रतीत होता है परन्तु अपने इस अधिकार को पाने के लिए हिंदी को भी एक लम्बी संघर्ष यात्रा से गुजरना पड़ा था ! आधुनिक पीढ़ी को ये भी जानना जरुरी है कि हिंदी भाषा के इस संघर्ष ने भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम को भी प्रभावित करा था !

वुड का डिस्पैच

मध्यकाल में और ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान भी रियासतों का आधिकारिक कार्य फ़ारसी और अरबी में होता था ! मगर ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के प्रभाव से ईस्ट इंडिया कंपनी पर भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए दबाब बन रहा था ! इसके चलते नियंत्रण बोर्ड़ के अध्यक्ष सर चार्ल्स वुड ने 1854 ईस्वी में भारत में शिक्षा हेतु गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को कुछ अनुशंसाएं भेजी, जिसे वुड का डिस्पैच कहा जाता है ! इसमें भारतियों को प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से और उच्च शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से देने का सुझाव दिया गया था और साथ ही क्षेत्रीय भाषा पर आधारित विद्यालय स्थानीय स्तर पर और कॉलेज प्रांतीय स्तर पर खोलने को कहा गया था ! इसका प्रमुख कारण था कि इससे भारतियों को यूरोपीय ज्ञान विज्ञान के प्रसार में मदद मिलेगी !  इस पर क्रियान्वयन से कुछ विद्यालय और कॉलेज आदि स्थापित भी करे गए !

हिंदी आंदोलन

वर्ष 1857 की क्रांति के बाद भारत की सत्ता ब्रिटिश संसद के पास आने के बाद शिक्षा के प्रसार में काफी तेजी आई ! इस सन्दर्भ में बिहार और संयुक्त प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश) के हिन्दुओं ने सरकार से अनुरोध  किया कि सरकारी कामकाज की भाषा के तौर पर फ़ारसी और अरबी लिपि की जगह देवनागरी लिपि और हिंदी को द्वितीय राजभाषा का स्तर दिया जाये ! इसके पीछे उनका तर्क ये था कि हिंदी क्षेत्रीय भाषा थी और देवनागरी लिपि आम जनता द्वारा भी पढ़ी लिखी जा सकती थी ! जैसे ही सरकार ने इस सुझाव को अधिक व्यावहारिक मानते हुये इसे 1867  में स्वीकार करना चाहा तो सर सैय्यद अहमद खान ने इसका विरोध करना शुरू करते हुये उर्दू को द्वितीय राजभाषा बनाने के लिए मुहिम छेड़ दी ! इसके पीछे उनका तर्क ये था कि उर्दू ही मुस्लिमों कि आम भाषा है ! वे मुग़ल शासन के अंत होने से ही उर्दू भाषा में लेखन करते हुये उसके प्रचार और प्रसार में लगे हुये थे और उनके द्वारा स्थापित स्कूल और कॉलेज उर्दू माध्यम में ही शिक्षा देते थे ! मगर उनका नजरिया काफी संकीर्ण और संकुचित होकर केवल मुसलमानों तक ही सीमित था ! उधर गैर मुस्लिमों जैसे हिन्दू और ईसाईयों को उर्दू को द्वितीय राजभाषा बनाये जाने से आपत्ति थी ! उनके उर्दू के विरोध में दो प्रमुख तर्क थे, पहला कि ये आम जनता की भाषा नहीं थी, दूसरा इसकी लिपि विदेशी है जो कि आम जनता को लिखना पढ़ना नहीं आती थी ! सर सैय्यद अहमद खान के लिये हिन्दुओं की हिंदी को द्वितीय राजभाषा बनाने की जिद एक प्रकार से भारत में सदियों पुरानी इस्लामी संस्कृति के प्रभाव के पतन का प्रतीक थी ! उनका तर्क ये था कि उर्दू मुस्लिमों और  हिन्दुओं के लिये सामान रूप से राजनीतिक और सांस्कृतिक विरासत थी, मगर मुस्लिम शासन के इतिहास की कड़वी यादों के चलते हिन्दू वर्ग ऐसी विरासत को ढ़ोने का बिल्कुल इच्छुक नहीं था, जिसमें लिपि और शब्दावली दोनों ही आम जनता की समझ से परे हों !

ऐसा कहा जाता है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त कमीशन के सामने पेश होते समय सर सैय्यद अहमद खान ने अपनी बात रखते समय टिपणी करी थी कि “उर्दू सभ्य, शिष्ट और कुलीन लोगों कि भाषा है जबकि हिंदी अशिष्टों की !” इस प्रकार की विवादस्पद टिप्णियों की हिन्दू नेताओं और हिंदी समर्थकों की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया हुई !  इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप हिंदी के लेखकों  जैसे भारतेन्दु हरिश्चंद्र और राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द आदि ने हिंदी की खड़ी बोली को अपने लेखन के माध्यम से प्रचारित और प्रसारित करना शुरू कर दिया ! अंततः यू.पी. और बिहार में प्रांतीय गवर्नरों ने सर सैय्यद के विरोध को अस्वीकार करते हुये, हिंदी को आधिकारिक भाषा के तौर पर मान्यता दे दी ! इसके बाद सयुंक्त प्रान्त (यू.पी.) और बिहार के बंगाल में बसे हुये लोगों के अनुरोध पर बंगाल के ले. गवर्नर जी. कैम्बेल ने अदालतों, प्रशासन और यहाँ तक कि स्कूलों में भी उर्दू को प्रतिबंधित कर दिया ! इससे प्रेरणा पाकर उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रान्त, पंजाब और सिंध के हिन्दू लोग भी उर्दू को द्वितीय राजभाषा बनाने के विरुद्ध उठ खड़े हुये ! हिंदी आंदोलन की सफलता स्वाभाविक थी क्योंकि यह लिपि और आम जनता द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली भाषा थी।

स्वतंत्रता के बाद हिंदी

स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी बनाम उर्दू का विवाद फिर से एक राजनीतिक हथियार बन गया ! जब कांग्रेस में राजभाषा के मुद्दे पर चर्चा हो रही थी तब नेहरू ने दिल्ली और संयुक्त प्रांत (यू.पी.) के लिए उर्दू को आधिकारिक भाषा के रूप में प्रयोग करने पर जोर दिया, लेकिन गोविन्द बल्लभ पंत, पी. डी. टंडन और के. एम. मुंशी आदि ने उनके प्रस्ताव का आक्रामक विरोध किया।  उर्दू के प्रबल विरोध को देखकर नेहरू ने इस पर और अधिक जोर नहीं दिया लेकिन वे गोविन्द बल्लभ पंत से नाराज हो गये। इस घटना का जिक्र समकालीन प्रसिद्द पत्रकार दुर्गादास ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया फ्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ्टर’ में विस्तार से किया है ! अंततः हिंदी विजयी होकर राजभाषा के तौर पर स्वीकार हुई !   

वर्ष 1989 में आम चुनावों से ठीक पहले राजनीतिक कारणों से उत्तर प्रदेश व बिहार की तत्कालीन  राज्य सरकारों ने उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दे दिया जिसका व्यापक विरोध भी हुआ और उत्तर प्रदेश में एक तत्कालीन मंत्री वासुदेव पांडे ने विरोध स्वरुप त्यागपत्र भी दे दिया था ! इतने विघ्न बाधाओं के बावजूद हिंदी आज भी सामान्य जन की भाषा है और टीवी व सिनेमा के माध्यम से ये अन्य गैर हिंदी भाषी राज्यों में भी काफी लोकप्रिय हो चुकी है ! भारत से श्रमिक प्रवासियों के तौर पर गए लोगों के माध्यम से आज हिंदी भारत के बाहर फिजी, मालदीव और सूरीनाम आदि कुछ अन्य देशों में भी बोली जाती है ! श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान व खाड़ी देशों में तो कुछ लोग तो सिर्फ हिंदी फ़िल्में व टीवी धारावाहिक देख कर ही हिंदी सीख गए हैं !  इन सबसे से पता चलता है कि आज की दुनिया में हिंदी धर्म और भौगोलिक सीमाओं से परे एक लोकप्रिय भाषा है ! इसी के साथ आप सबको हिंदी दिवस की अग्रिम शुभकामनायें ! 

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