मैं काफ़ी अर्से से भारत में स्थित हूँ, फिर भी कई बाते समझने में मुझे अभी भी कठिनाई महसूस होती है। उदाहरण के लिए, जब भी भारत को एक हिन्दू देश मानने की बात होती है, तब बहुत सारे शिक्षित भारतीय क्यों उत्तेजित हो जाते हैं? भारत की बहुसंख्य जनता हिन्दू है। भारत की परंपराएँ इस देश की खासियत मानी जाती हैं। पश्चिमी लोग भारत की तरफ आकर्षित होने की यह एक प्रमुख वजह है। फिर भी इस देश की हिन्दू जड़ों का स्वीकार करने में कई भारतीय नागरीकों को क्या बाधा हो सकती है?यह रवैया दो तरह से अटपटा है।

पहेली बात यह है कि, इन शिक्षित हिन्दूओं को केवल ‘हिन्दू’ भारत देश के बारे में समस्या होती है, लेकिन अन्य ‘मुस्लिम’ या ‘ख्रिश्चन’ देशों से नहीं। उदाहरण के लिये, जर्मनी में केवल ५९ प्रतिशत आबादी दो प्रमुख ख्रिश्चन चर्चों से (प्रोटेस्टंट और कॅथॉलिक) जुडी हुई है, फिर भी इस देश को ‘ख्रिश्चन’ देशों की सूची में शामिल किया जाता है। चॅन्सेलर अँजेला मेर्केल ने हाल ही में जर्मनी की ख्रिश्चन जड़ों का जिक्र किया था और जनता से ‘ख्रिश्चन मूल्यों की तरफ़ वापस जाने’ का अनुरोध किया था। २०१२ में उन्हों ने जी-८ देशों की शिखर वार्ता में जाने की यात्रा, उन्हें जर्मन कॅथॉलिक दिवस के अवसर पर अभिभाषण करना था, इस कारण एक दिन के लिये विलंबित की थी। अँजेला मेर्केल की राज्यकर्ता पार्टी के साथ जर्मनी की दो प्रमुख राजकीय पार्टीयोँ के नामों में ‘ख्रिश्चन’ शब्द का समावेश है।

जर्मन लोगों को उन के देश को ख्रिश्चन कहा जाने पर कोई उत्तेजना नहीं होती, हलांकि अगर ऐसा होता तो मैं समझ सकती हूँ। क्यों कि चर्च का इतिहास वाकई भयानक है। ख्रिश्चानिटी की तथाकथित यशोगाथा की बुनियाद जुल्म और जबरदस्ती पर आधारित है। ‘धर्म परिवर्तन करो या मरो’ का विकल्प पाँचसो साल पहेले सिर्फ अमरीका की मूल रहिवासी जनता को ही नहीं दिया गया था। बल्कि बारासो साल पहेले जर्मनी में भी, कार्ल द ग्रेट नामक सम्राट नें उन के नये विजय प्राप्त मुल्कों में ईसाई दीक्षा (बपतिस्मा) लेने से इनकार करने वालों के लिये मौत की सजा का ऐलान किया था। इस से उनके सलाहकार अल्कुइन ने प्रभावित हो कर कहा था, “आप उन्हें जबरदस्ती से बापतिस्मा तो दे सकते हैं, मगर उन में जबरदस्ती से श्रद्धा कैसे पैदा  करोगे ?”

अपने सौभाग्य से अब वह दिन नहीं रहे, जब चर्च की रूढीओं के खिलाफ आवाज उठाने के लिये प्राणों का मोल चुकाना पडता था। आज कल पश्चिमी देशों में विचार विभिन्नता के कारण चर्च से संबंध तोडने वालों का एक सतत प्रवाह देखा जाता है। इस में से कुछ व्यक्ति चर्च के अधिकारिओं के नापाक वर्तन से ऊब गये हुए होते हैं, तो कुछ चर्च की रूढीओं में विश्वास नहीं कर सकते, उदाहरण के लिए, ‘जीझस के सिवाय कोई चारा नहीं है’ और ‘जो इन तत्त्वों को स्वीकार नहीं करता, उसे भगवान नरक में धकेलते हैं‘ इत्यादि

भारतीयों के हिन्दू शब्दसे जुडने के प्रति अनिच्छा या कठिनाई को न समझ पाने का  दूसरा कारण यह है कि, अब्राहामी धर्मों से हिन्दू धर्म की एक अलग ही श्रेणी है। इतिहास हमें यही बताता है कि, ख्रिश्चानिटी और इस्लाम की तुलना में हिन्दू धर्म ने अपने प्रसार और प्रचार के लिये प्राचीन काल में शास्त्रार्थ और तर्क-वितर्क का अक्सर उपयोग किया था, ना कि बल का. इस धर्म की परंपराएँ कभी भी रूढीओं में अंध विश्वास रखने की और अपनी बुद्धि के किवाड बंद रखने की मांग नहीं करती थी। उल्टा हिन्दू धर्म में अपनी बुद्धि और तर्क की कसौटी करने की चुनौती पायी जाती है। सत्य की यह ऐसी शोध है, जिस का आधार होते है शुद्ध चारित्र्य और बुद्धि । (जिसे पाने की विधि भी बताई गई है।) इस में केवल धर्म या तत्त्वज्ञान ही नहीं, बल्कि संगीत, वास्तु कला, नृत्य, विज्ञान, अर्थ शास्त्र, ज्योतिष, राजनीती इत्यादि कई सारे विषयों के बारे में महान और प्राचीन साहित्यक रचनाएँ समाविष्ट हैं।

यदि जर्मनी अथवा कोई भी अन्य पश्चिमी देश के पास इस प्रकार का साहित्य भंडार होता, तो निश्चित रूप से वह इस पर गर्व महसूस करते और उस की महानता का बारबार जिक्र करते। जब पहली बार मुझे उपनिषद पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, तब मैं अवाक हो गई थी। यहाँ सहजज्ञान संबंधित ऐसी बाते इतनी स्पष्टता से कही थी, जो मैं अंदर ही अंदर जानती तो थी, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति करना मेरे लिये असंभव था। ब्रह्मन् अपूर्ण नहीं है, वह सब के अंदर का अदृश्य, अविभाज्य मूलतत्तव है। अंतिम सत्य को पाने का मौका हर व्यक्ति को बार बार मिलता है और उसे अपनी राह चुनने की स्वतंत्रता है। उस की सहायताके लिये मार्गदर्शी सूचनाएँ बताई गयी हैं, लेकिन कहीं भी थोपी या लादी गयी नहीं है।

भारत में बसने के प्रारंभिक दिनों में मुझे ऐसा लगता था कि, सभी भारतीयों को अपनी इस महान परंपराओं का ज्ञान होगा और इसके प्रति अभिमान होगा। धीरे धीरे यह स्पष्ट होता गया कि, मैं गलत थी। ब्रिटिश सत्ता के शासकों ने भारतीय समाज के अभिजात वर्ग को प्राचीन परंपराओं से ना ही केवल अलग करने में कामयाबी पायी थी, बल्कि उन के मन में उसके प्रति घृणा भी पैदा की थी। नवशिक्षित नागरिकों के पास संस्कृत का ज्ञान नहीं था, यह बात भी ब्रिटिशों के पक्ष में थी और इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश अपनी कोई भी बात उनकी दिमाग़ में आसानी से डाल पाये। अपनी परंपराओं के प्रति अज्ञान और ब्रिटिशों ने किया हुवा मनोमार्जन, यही शायद आधुनिक भारतीयों के कुछ भी हिन्दू होने के प्रति दिखाई देनेवाली घृणा का कारण है। उन्हे इस फ़र्क का पता नहीं है कि, पश्चिमी धर्मों में केवल अंधश्रद्धा रखनी (कमसे कम दिखानी) होती है, और उस में अनुयायीओं को सोचने की स्वतंत्रता निषिद्ध मानी जाती है, तथा बहुपरत हिन्दू धर्म में स्वतंत्रता और अपनी बुद्धि का उपयोग करना यह दोनों चीजे संभव है।

इस शिक्षित वर्ग के ज्यादातर व्यक्तिओं के ध्यान में यह नहीं आता कि, एक तरफ़ अपने खुद के धरम की आलोचना करने के लिये पश्चिमी शक्तियाँ, खास करके वह जो अपना धर्म इस बडे देश में फैलाने के सपने देखते हैं, उन की पीठ थपथपायेगी क्यों कि उस से पश्चिमी युनिव्हर्सलिझम भारत में फैलेगा। दूसरी तरफ चर्च सहित कई अन्य पश्चिमी लोग भारतीय ज्ञान का मूल्य अंदर से पूरी तरह समझते हैं, और या तो मौका मिलते ही मूल स्रोत को छोड कर उसे अपने नाम से प्रस्तुत करने की चेष्टा में लगे हैं, अथवा उसे ऐसे पेश करना चाहते है, जैसे कि यह सत्य और ज्ञान मूलतः पश्चिम में ही पैदा हुए थे।

यदि केवल मिशनरीयों ने हिन्दू धर्म की निन्दा की होती, तो इतना बुरा नहीं होता, क्यों कि उनके पास यही लक्ष्य था और वह चतुर भारतीयों के समझ में आ भी सकता था। बुरा तो इस बात का है कि, हिन्दू नाम धारण करनेवाले भारतीय इस काम में उनकी मदद करते हैं, क्यों कि उन्हें यह गलतफ़हमी है कि, उनका धर्म पश्चिमी धर्मों से नीचले दर्जे का है। जो कुछ भी हिन्दू है, उस का पूरा ज्ञान न पाते हुए ही वह उस को घटिया मानते हैं। अपनी परंपराओं के बारे में उन्हे सिर्फ उतना पता होता है, जितना ब्रिटिशों ने उनको बताया हो। उदाहरण के लिये, धर्म की महत्त्वपूर्ण बाते मूर्तिपूजा और जातिव्यवस्था हैं, इत्यादि। उन्हे यह बात समझ में नहीं आती कि, सर्वसमावेशक और गाढी हिन्दू परंपराओं का पूरे दिल से समर्थन करने में भारत का नुकसान नहीं है, बल्कि फायदा ही है। कुछ दिनों पहले दलाई लामा ने कहा था कि, जब वह ल्हासा में युवा अवस्था में थे तभी से वह भारतीय विचारों की महानता से प्रभावित थे। उन्हों ने आगे कहाः “भारत में विश्व की मदद करने की क्षमता है।”

पश्चिम-प्रभावित अभिजात वर्ग के भारतीयों को यह सच कब समझ में आयेगा?

मारिया विर्थ

सुभाष फडके, अनुवादक अंग्रेजी से

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