दिसंबर का आखरी सप्ताह भारत के इतिहास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। और आज के दौर में और भी प्रासंगिक है। साथ ही यह भी विचारणीय है कि यह ऐतिहासिक सप्ताह हम कहीं धीरे-धीरे विस्मृत तो नहीं कर रहे हैं। क्रिसमस का दौर शुरू हो रहा है। इसके साथ पाश्चात्य उपभोक्तावाद का दौर भी इस दौरान चरम पर होता है। लेकिन भारत के हर व्यक्ति को यह याद होना चाहिए कि यह वह सप्ताह है जब सिख गुरू गोबिंद सिंह ने अपने चारों सपूतों को धर्म की रक्षा और मुगलिया सत्ता की गुलामी स्वीकार नहीं करने के लिए बलिदान कर दिया था।

जरा याद कीजिए आज से तीन सौ साल पुराना वह मुगलिया दौर, जब हिंदुस्तान में हिंदुओं की सबसे बड़ी चिंता अपने धर्म की रक्षा थी। तलवार, हिंसा, अपहरण और सामूहिक नरसंहार जैसे शरिया के तथाकथित उपदेशों के बल पर मुगलिया शासकों के सैनिक हजारों और लाखों की संख्या में हिंदुओं के धर्म का अपहरण उन्हें जबरन इस्लाम कबूल करवा रहे थे। और पूरे हिंदुस्तान में इस्लाम ने जबरन धर्म परिवर्तन के लिए हिंसा का नंगा नाच मचा रखा था। उसी वक्त हिंदु धर्म की अग्रिम रक्षा पंक्ति के तौर पर गुरू तेगबहादुर और फिर गुरू गोबिंद सिंह ने हिंदु धर्म की रक्षा का भार अपने कंधों पर उठाया और खालसा पंथ की स्थापना कर धर्म के साथ तलवार का प्रशिक्षण अपने लोगों को देना शुरू किया। “निक्कियां जिंदां, वड्डा साका”…. गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहादत को जब भी याद किया जाता है तो सिख संगत के मुख से यह लफ्ज़ ही बयां होते हैं। सरसा नदी पर गोबिंद सिंह का परिवार बिछुड़ गया था। बड़े साहिबजादे गुरूजी के साथ चले गए लेकिन छोटे साहेबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह माता गुजरी जी के साथ रह गए थे। उनके साथ कोई सैनिक भी नहीं थे।

उन्हें शरण देने वाले एक देश द्रोही गंगू ने लालच में सरहिंद के नबाव वजीर खां को उनके बारे में जानकारी वजीर खां को दे दी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उस वक्त जोरावर सिंह सात साल के और फतेह सिंह पांच वर्ष के थे। उन्हें वजीर खां के सामने पेश किया गया। वहां उन्हें भरी सभा में इस्लाम कबूल करने को कहा गया लेकिन दोनों ने बिना हिचकिचाहट के जोर से – जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल का नारा बुलंद किया। यह सुनकर सारे दरबारी दंग रह गए। दोनों साहिबजादों ने सिर झुकाकर वजीर खां को सलामी देने से इनकार कर दिया और कहा- हम अकाल पुरुष और अपने गुरू पिता के अलावा किसी के सामने सर नहीं झुकाते। हम अपने दादा (गुरु तेगबहादुर) की कुर्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे। हम धर्म के नाम पर अपना सिर कलम करवा सकते हैं, लेकिन झुकाना हमें मंजूर नहीं है। तमाम प्रलोभनों, डर और हिंसा का भय दिखाकर उन पर इस्लाम स्वीकारने के लिए जोर डाला गया, लेकिन दोनों अपनी प्रतीक्षा पर अडिग रहे। आखिर में दोनों साहिबजादों को वजीर खां ने जिंदा ही दीवारों में चुनवाने का ऐलान कर दिया। दोनों साहिबजादों को जब दीवार में चुनना शुरू किया गया, उस समय दोनों नहीं जपुजी साहिब का पाठ करना शुरू कर दिया। दीवार पूरी होने के बाद भी अंदर से जयकारा लगाने की आवाजें आती रहीं।

माता गुजरी जी को सरहिंद के किले के बुर्ज से गिराकर शहीद कर दिया गया। उधर चमकौर के किले से निकल कर गुरू गोबिंद सिंह के दोनों बड़े बेटे अजीत सिंह और जूझार सिंह ने अटारी में बैठे मुगलियां सैनिकों को छक्के छुड़ा दिए। गुरू गोबिंद सिंह ने खुद अपने हाथों से दोनों बेटों को समर के लिए तैयार करके भेजा था। युद्ध के समय अजीत सिंह सत्रह और जूझार सिंह पंद्रह वर्ष के थे। चमकौर के युद्ध में गुरू गोबिंद सिंह के दोनों सपूतों ने मुगलिया सत्ता की गुलामी के स्थान पर अपना सर्वोच्च बलिदान दिया।

दुर्भाग्य से आज भी पंजाब धर्म परिवर्तन के उसी मुगलिया दौर से गुजर रहा है। लेकिन बस, चेहरा बदल गया है। मुस्लिम आक्रांताओं के स्थान पर अब पढ़े लिखे और टाई पहने सिखों की ही पगड़ी पहने ईसाई मिशनरी पूरे पंजाब में सक्रिय है। कनाडा ले जाने से लेकर न जाने कितने तरह के लोभ और लालच देकर ईसाई मिशनरी पंजाब के सिखों को उनके धर्म से डिगाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। कितना दुर्भाग्य है कि जिन धर्म गुरू तेगबहादुर और गुरू गोबिंद सिंह ने धर्म की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान दे दिया था, उसी धरती पर लोभ और लालच में लोग अपने धर्म को त्याग रहे हैं।

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