हम भारतीयों को मेड इन फॉरेन कंट्रीज आइटम बड़े पसंद आते हैं । एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए भी हम आज तक एकस्वदेशी मूल का व्यक्ति नहीं ढूंढ पाए। उसी प्रकार जैसे ही तीन विदेशी सेलिब्रिटीज ने किसान आंदोलन के लिए थोड़ी सहानुभूति दिखाई हमारा सेकुलर खेमा अपनी जीत मान कर नाचने लगा । कुछ वैसा ही जैसा जेएनयू के दंगल में अपने फिल्मी भाईचारे में एक अभिनेत्री पहुंच गई थी और वह आंदोलन भी छपाक से गिरा और अभिनेत्री की फिल्म भी छपाक से गिरी और शायद गिरने की चोट इतनी बड़ी रही कि आज तक खड़ी नहीं हो पाई है।खैर तीन लोगों से ऑटोग्राफ ले लेना कोई सामान्य उपलब्धि नहीं है इसीलिए तीन ऐसे सेलिब्रिटीज का किसान आंदोलन के लिए समर्थन ले लेना ऑटोग्राफ लेने से कहीं बड़ा है। मुझे तो पूरी तरह शक है पर आप भी ये मानेंगे कि इन तीनों को किसान और खास करके भारतीय किसान का या उनकी मजबूरी का कुछ भी पता नहीं है। अगर पता होता तो किसानों की आत्महत्या के मुद्दे पर भी इन लोगों की जुबान हिलती और ये तीन जुबानें कुछ ना कुछ बोलती तो आज जो आरोप लगा रहे हैं , आरोपियों की फ़ेहरिश्त में भी होते।दरअसल ये भी क्या करें इन्हें भी कहा गया होगा कि इफ़ यू आर स्पीकिंग फॉर सम सोशल कॉज़ विद अ फ़िलेन्थ्रोपिक एटिट्यूड , यू हैव सर्टेनली अन इनक्रीस फैन फॉलोइंग ऑन टि्वटर एंड इंस्टाग्राम। अब तारीफ किसे बुरी लगती है? इन तीनों ने भी दे दिया बयान और अगर इन तीनों के फैन फॉलोइंग में ५ से १० लाख की बढ़ोतरी हो गई हो गई हो तो कोई आश्चर्य नहीं है।

वास्तव में किसानों की मांग एक तरफ से देखने पर उचित दिखाई पड़ती है और कम से कम वर्तमान परिपेक्ष में तो जरूर उचित दिखाई पड़ती है जब सरकार बे पेंदी के लोटे की तरह कभी इधर तो कभी उधर लुढ़क रही है और हजारों लाखों किसान दिल्ली का बॉर्डर घेरे बैठे हुए हैं।

पर मेरा मानना है कि संसद के पारित कानून संसद द्वारा ही निरस्त होने चाहिए ना कि किसी पार्टी के युवराज द्वारा फाड़ दिए जाने पर या किसी अविवेकी और प्रायोजित भीड़ के द्वारा विरोध प्रदर्शन करने पर। यह उतनी ही गलत बात होगी जितनी कोर्ट के द्वारा दिए गए किसी सजा को या किसी निर्णय को संसद निरस्त कर दे या भीड़ की माँग पर बदल दिया जाये। कोर्ट का निर्णय कोर्ट की कार्यवाही के बीच पोषित या नष्ट होना चाहिए और संसद के बिल संसद में ही मतों के द्वारा रिजेक्ट या सिलेक्ट होनी चाहिए । बाहर धरना पर बैठे लोग अपनी संख्या बल के आधार पर विधायिका और न्यायपालिका के निर्णय पर अपना असर ना डाल पाए यही एक एकमात्र लक्ष्य प्रजातंत्र के लिए उचित है।

अब जिन नये प्रावधानों के विरोध में वंशवादियों का कुनवा फड़फड़ा रहा है उनके बारे में समाचार पत्रों की खबरें कुछ और हीं बयान कर रही हैं। आन्ध्र प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, गोआ, गुजरात हरियाणा , हिमाचल प्रदेश, झारखंड , महाराष्ट्र , मध्य प्रदेश, मिज़ोरम, नागालैण्ड , ओडीसा, राजस्थान सिक्किम , तेलंगाना , त्रिपुरा और उत्तराखंड२००३ से २०२० के बीच में हीं प्रान्तीय ए०पी०एम०सी एक्ट के अनुसार अपना अलग काण्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग एक्ट बना रखा है।१९८० से पेप्सिको ने पंजाब में टमाटर और सन्तरे की काण्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग कर रखी है।

यह ध्यातव्य होना चाहिये कि १९८७ से १९९२ तक पंजाब राष्ट्रपति शासन के अन्तर्गत रहा जिसमें अधिकांश कांग्रेस हीं शासन करती रही या कुछ महीनों के लिये वीपी सिंह और चन्द्रशॆखर की सत्ता रही।किसान के एक योद्धा ने एक समाचार पत्र के अनुसार सरकार द्वारा मण्डी का दखल कम किये जाने पर हर्ष व्यक्त किया था और इसे किसान की जीत भी बताया था।एक बात और रह गई कि जिस नाबालिग विपक्ष ने इस आंदोलन को इंधन देने का प्रयास किया है उस पार्टी ने खुद ही अपने मेनिफेस्टो में मंडी और एमएसपी वाली नीति पर पुनर्विचार करने का वादा किया था यदि वह सत्ता में आई तो।परंतु यदि कोठा टूट जाए तो रूपाजीवाएं तीर्थाटन पर भी निकल सकती हैं।फिर ऐसे दोगले राजनैतिक दलों के द्वारा समर्थित और दोमुहें नेताओं द्वारा संचालित आन्दोलन के लिये सत्ता यदि राहों में काँटे बिछाये तो किसी को ऐतराज़ नहीं होना चाहिये।

चीन में उईगर मुसलमानों की सुखशान्ति, बोको हराम द्वारा महिलाओं के सम्मान, अमेरिका के कैपिटल हिल पर जनता के शान्तिपूर्ण भजन सन्ध्या आयोजन, पाकिस्तान में या कश्मीर में हिन्दुओं के सत्कार पर जिन लबों से एक मीठे बोल ना निकले वे होंठ हरियाणा बार्डर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जी सीमा पर जुटी भीड़ देखकर यदि लरज़ने लगें तो शक स्वाभाविक है!इन साक्ष्यों के आलोक में तो यही लगता है कि इन तीनों सेलिब्रिटिज़ की किसान प्रीति और कुछ बालीवुड स्टार्स के भारत में रहने पर डर लगने की बात में कोई प्रायोजित समानता है जिसे समझने वाले समझ गये हैं ना समझे वो …।

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